डॉ. क्षिप्रा माथुर
हाल ही में पाकिस्तान की सरहद से लगे जिले जैसलमेर के युवा और विचारशील नागरिक जलवायु परिवर्तन और शहर की बेहतरी पर बात करने जमा हुए। सोने की तरह दमकते इस पश्चिमी इलाके के ये नागरिक जो पानी की किल्लत को अपनी नियति मानते हैं, यहां के खूबसूरत किले के इर्द-गिर्द साफ-सफाई, शहर में बेटियों की सुरक्षा, संसाधनों पर बढ़ते दबाव सहित तमाम मुद्दों पर अपनी बात रखते चले गए। खाली होते गांवों की फिक्र भी सुनाई दी और जैविक खेती को लेकर युवाओं में जिंघासा भी बहुत दिखी लेकिन झुकाव अब भी सरकारी नौकरियों की ओर ही दिखा। अपना घर-बार, स्थानीय रोजगार, खेती-बाड़ी छोड़कर शहरों की गुलामी करने पर राजी युवा जड़ों से और दूर होने की तैयारी करता नजर आया। हालांकि पानी के हालात और समाधान पर बात करते हुए कानून के जानकार एक युवा की कही इस बात पर जरूर सबने हामी भरी कि यदि रेगिस्तान में पारम्परिक जल-स्रोत ही संभाल लिए जाएं तो बात बन सकती है। और इसका जिम्मा कौन लेगा तो इसका जवाब किसी के पास नहीं है। पानी की योजनाएं तो कई हैं, लेकिन जरूरत के हिसाब से और जमीन पर न होकर बेहद मामूली ही हासिल है अब तक।
जमीनी हकीकत और वजूद
जैसलमेर में तब सुखद अहसास होता है जब जरा सी गहराई वाली बालू मिट्टी में भी मूंग, ग्वार और बाजरा नजर आता है। दूर तक फैले और फलते हुए ये खेत असल में साझेदारी के ’खड़ीन’ में खड़े हैं जिनमें बारिश का पानी जमा रहता है। ‘खेत तलाई’ या ‘फार्म पाण्ड’ और नहरी इलाके के खेतों में बनी ‘डिग्गियों’ से अलग ये संरचनाएं असल में ऐसी खुदी हुई तलाई हैं जिनमें पानी इकट्ठा होता है और किसान अपने-अपने हिस्से की जमीन इससे जोत कर उपज लेते हैं
‘गड़़सीसर’ तालाब और खेतों की प्यास
जैसलमेर का मान रखने वाला गड़सीसर तालाब शहर के बीचो-बीच है और लबालब है। इस बार ठीक बारिश होने से यहां के बाकी ताल और बावड़ियां भी भरी हुई हैं। युवा बताते हैं कि पश्चिमी जिलों में ऐसे सैकड़ों परंपरागत जल-स्रोत हैं जिनमें से केवल एकाध के सार-संभाल और उसके बूते फलते पर्यटन से बात नहीं बनने वाली। प्रशासन के अभियान चलते हैं जिनमें इन स्रोतों की मरम्मत होती है लेकिन हकीकत यह है कि इन परम्परागत स्रोतों की अनदेखी की वजह से ही देश के सबसे कम बारिश वाले इस इलाके में तोल-मोल कर बरसने वाला कई गैलन पानी हर साल बेकार चला जाता है। यानी हम पूरे साल की नमी के इन्तजाम से चूक जाते हैं। नमी कम तो कुएं भी सूखे और खेत भी रूठे-रूठे। बूंद-बूंद की कीमत समझने वाले पुराने लोगों के मुकाबले शहर में बसी नई पीढ़ी की बेफिक्री की एक वजह राजस्थान के पश्चिमी इलाके में नहरी पानी की आवक भी है। सरहदी इलाका होने से यहां सीमा सुरक्षा बल पूरी तरह मुस्तैद रहता है मगर उसकी जरूरतें भी टांकों को पानी के टैंकरों से भरे जाने पर ही पूरी हो पाती हैं। सेवण घास से भरे-पूरे रेगिस्तानी मैदान में मवेशियों के लिए तो कुदरत भरपूर उगाती है लेकिन खेती के लिए खासी मशक्कत करनी ही पड़ती है। तीखी धूप में रेत और धोरों के बीच जैसलमेर में सुखद अहसास तब होता है जब जरा सी गहराई वाली बालू मिट्टी में भी मूंग, ग्वार और बाजरे की खेती नजर आती है। फैले और फलते हुए ये खेत असल में साझेदारी के ’खड़ीन’ में खड़े हैं जिनमें बारिश का पानी जमा रहता है। इनकी आगोर इस तरह से बनाई जाती है कि ये बारिश की हर बूंद को अपने में रोक लें और अगर पानी ज्यादा हो तो उसे जाने का रास्ता भी दे सकें। ‘खेत तलाई’ या ‘फार्म पाण्ड’ और नहरी इलाके के खेतों में बनी ‘डिग्गियों’ से अलग ये संरचनाएं असल में ऐसी खुदी हुई तलाई हैं जिनमें पानी इकट्ठा होता है और किसान अपने-अपने हिस्से की जमीन इससे जोत कर उपज लेते हैं।
साझे की खेती
साझेदारी वाला समाज शहरों को तो कतई नसीब नहीं है और गांव भी अब संस्कृति के लिहाज से खाली होने लगे हैं। ऐसे में परम्परागत खेती का यह नमूना हमारी जल-विरासत का अहम हिस्सा है। जहां संघर्ष जीवन का हो, वहां एकाकीपन किसी को रास नहीं आता। जिन्दा रहने के लिए साथ रहना ही एक रास्ता बचता है। खेती की साझा जमीन में सबकी उपज बारिश के पानी से सींची जाती है। मसूड़ी तहसील के बड़े ‘खड़ीन’ में अपनी-अपनी फसल को लकड़ी के टुकड़े गाड़कर दायरा तय करने वाले किसानों से बात करने पर पता चला कि इस परम्परागत जानकारी को अपने-अपने खेतों में आजमाने के नतीजे भी बेहतर आ रहे हैं। तपते और सूखे मौसम का सामना करने के लिए हर बूंद को बचा लेना ही तरीका है जिसके लिए संस्थाओं के जरिए साझा और एकल दोनों तरह के ‘खड़ीन’ बनाए गए हैं जिससे उपज में काफी इजाफा हुआ है। आसपास की जमीन की नमी भी इन खड़ीनों की वजह से बाकी रहती है। एक बुजुर्ग किसान कचरा राम की जोत साझे ‘खड़ीन’ में भी है तो उनके अपने परिवार के खेत में भी ‘खड़ीन’ बनाकर उन्होंने अपनी उपज को कई गुना बढ़ा लिया है जो पहले ख्वाब में भी नसीब नहीं थी। पानी की परम्पराओं को बचाने का फायदा यह भी हुआ है कि पहले सिर्फ रबी की फसल हाथ आती थी, अब रबी और खरीफ दोनों फसलों सहित फल और सब्जियों की खेती से भी कमाई होने लगी है। किसानों के घर सहेजे हुए परम्परागत बीज भी देखे, मवेशियों की भरपूर मौज भी और बच्चों का पढ़ाई-लिखाई को लेकर रूझान भी देखा। पानी का प्रबन्ध ठीक होने से जीवन पूरी लय में आ जाता है। सहज प्रवृत्ति की रेगिस्तानी आबादी अब भी शहरों की तरह चालाक नहीं हुई है इसलिए साथ मिलकर लगन से काम करना उन्हें रास आता है। अच्छी और ज्यादा उपज की तकनीक भी वे सीख रहे हैं लेकिन अभी जैविक की ओर कदम बढ़ाने में बेहद झिझक है। रेगिस्तानी इलाकों में बदलती जलवायु का खलल भी बढ़ गया है। ज्यादा बारिश आने पर पानी की निकासी के इन्तजाम की अहमियत भी परम्पराओं ने ही सिखाई है। ‘खड़ीन’ की तकनीक तो इसके लिए तैयार है लेकिन जिस पैमाने पर इसका असर हो सकता है, उसमें अभी कसर जरूर है।
संस्थाओं का दखल
गांवों की राजनीति से परे, जहां-जहां गांवों और किसानों की मजबूती के लिए संस्थाओं का दखल है, वहां काम में तेजी है। ग्राम विकास समितियां अपने यहां के इलाके में पानी की प्राथमिकता तय करती हैं और समाज के कमजोर तबकों को बराबर का मौका देकर उन्हें आर्थिक मदद देती हैं। सरकारी योजनाओं से गांवों को जोड़ना भी इस सिलसिले का पड़ाव है। पानी से हरे-भरे खेत हैं, खुशहाली है, इनसान और कुदरत के रिश्तों की भरपूर रखवाली भी है। हर खेत की प्यास बुझे, इसके लिए अलग-थलग होकर काम करने से रास्ता नहीं निकलने वाला। चरागाहों को भी हरा-भरा करना होगा, ओरण भी संभालने होंगे, तालाबों का सार-संभाल कर उन्हें भरने के लिए तैयार करना होगा और दोहन के सोच को बदलकर उन्नत और जैविक खेती की ओर बढ़ते हुए बाजारों तक आसान पहुंच की राह बनानी होगी। खेती को अच्छा सौदा बनाकर ही किसानों की नई पीढ़ी को शहरों की ओर पलायन से रोका जा सकेगा। उत्तम बीज, नई तकनीक-जानकारी का इस्तेमाल कर और पोषण, बेटियों को पढ़ाने-बढ़ाने के सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं से जुड़कर जो परिवार सामाजिक और आर्थिक तौर पर बेहतरी की ओर जा रहे हैं, उसे जारी रखने के लिए बड़े पैमाने पर काम होने की दरकार है। पेशेवर तरीके और जमीनी समझ के साथ काम करने वाले चुनिंदा संगठनों की मौजूदगी ने कई इलाकों की सूरत बदलनी शुरू तो की है मगर पानी को लेकर संजीदा कोशिशों को आगे बढ़ाए जाने की भरपूर गुंजाइश है यहां। अब्दुल कलाम साहब ने कभी शहरी सुविधाओं से गांवों को लैस करने का ’पुरा’ का मॉडल सुझाया था जिसे तकनीकी संस्थानों की मदद से आजमाया भी गया। इसके नतीजों के बारे में जरूर बात होनी चाहिए।
फासलों की मनमानी
बीते तीन साल में जलजीवन मिशन से करीब 14 करोड़ रु. की राशि राजस्थान के हिस्से आने के बावजूद केवल 10 प्रतिशत का इस्तेमाल हो पाना व्यवस्थागत खामियों की ओर इशारा है। बांध खाली हैं, बोरवैल ने पूरी जमीन का पानी सोख लिया है। लाखों घरों में पानी का नल नहीं है, आज भी औरतें और बच्चे दूर-दूर से पानी ढोकर लाते हैं। खेतों में पानी के लिए कई योजनाएं हैं लेकिन उनका फायदा उठाने के लिए आॅनलाइन प्रक्रिया को दरकिनार कर लॉटरी के जरिए फायदे बांटना मनमाना तरीका है। पारदर्शिता के बगैर लोकतंत्र के कोई मायने नहीं रह जाते। पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार सहित अच्छे अवसरों के लिए जूझ रही बड़ी आबादी की राहत इसी में है कि व्यवस्था में इनसानियत की जगह तो बाकी रहे लेकिन बाबुओं, अफसरों और नेताओं की दखलन्दाजी की जगह ना बचे। सियासी और जाति के समीकरणों के खेल से सिर्फ जहर घुलता है, मसला कभी हल नहीं होता। सरकारें आधारभूत जरूरतों के लिए मिली राशियों और संसाधनों का इस्तेमाल न कर पाएं तो सूचना के अधिकार की किसी अर्जी का इन्तजार किए बगैर खुद ही आगे बढ़कर यह बताने की जहमत जरूर उठायें कि मामला कहां और किस वजह से अटका। इससे देश को पीछे धकेलने वाली सारी ताकतों का चेहरा जनता के सामने होगा।
न दोहन, न पलायन
पश्चिमी इलाके कम बारिश वाले हैं और इस बार भी साल भर के लिए पीने का पानी मुश्किल से मुहैया हो पाएगा। गर्मी फिर बेहाली में गुजरेगी। जल-शक्ति मंत्रालय का जल जीवन मिशन शामिल राज्य, नागरिकों और संस्थाओं के सक्रिय सहयोग के बगैर अमली जामा नहीं पहन सकता। हमारे संघीय ढांचे में राज्यों के साथ जो सियासी खींचतान चलती रहती है, उसका सीधा असर विकास योजनाओं पर यानी आम आदमी की जिन्दगी पर पड़ता है। इसका तोड़ दोनों पक्षों की जल-जवाबदेही तय होने और जनता की ओर से सवाल पूछते रहने की आदत से ही निकलेगा। काम में कोताही बरतने पर जिम्मेदारी से भागते प्रतिनिधियों के खिलाफ ‘राइट टू रीकॉल’ को आजमाने और दबाव बनाने के तरीके तलाशे जाने चाहिए।
परम्पराओं को संवारने वाली पीढ़ियां याद करती हैं कि बारिश आने से पहले का वक्त किसी उत्सव से कम कहां था। घर की छतों की सफाई होती थी जहां का पानी टांकों में इकट्ठा होता था, पानी के आने के सारे रास्तों की मिट्टी और गन्दगी हटाई जाती थी, तालाबों को तलहट तक चमकाने का जिम्मा पूरा समुदाय, पूरा गांव लेता था, हर परिवार शामिल होता था, ओरण और गोचर में बीज बिखेरे जाते थे, मवेशियों की पसन्द की घास उगाई जाती थी। कुओं और देवी-देवताओं को धोक लगता था। और फिर बूंद-बूंद मिट्टी में समाती थी तो पूरे साल का इन्तजाम कर जाती थी। लोकजीवन की यह थिरकन शहरों की प्रतिच्छाया से बचे हुए गांवों और कस्बों में आज भी कायम है। लेकिन अब बोरवैल ने जमीन को जितना खाली किया है, उससे ज्यादा भरे बगैर भरपाई नहीं हो सकती। गांवों को अब शहर जैसी सुख-सुविधा चाहिए तो शहरों की नाकामियों को समझने पर ही विकास का सेतु बनाने की तैयारी में जुटना होगा। दोहन और पलायन से न गांव आबाद होंगे, न शहर। जो जहां है, वह वहीं पनपे, अपनी जमीन और नए सोच से जुड़ा रहे, अब यही रास आएगा हम सबको। सोच को सींचती जानकारियों के साथ पानी रहेगा तो संस्कृति की हिफाजत भी होगी। आबादी की राजी-खुशी और कारोबार का फलना-फूलना भी वहीं से होगा।
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