जयराम शुक्ल
स्वतंत्रता प्राप्ति के पांच वर्ष पश्चात ही एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता और अन्त्योदयी विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चेताया था कि निकट भविष्य में भारत में रहने वाले मुसलमान खुलकर पाकिस्तान के प्रति अपने भाव व्यक्त करने लगेंगे और ऐसी स्थिति किसी भी सरकार के लिए असहज होगी।
गत 24 अक्तूबर को हुए टी-20 क्रिकेट मैच में भारत पर पाकिस्तान की जीत के बाद जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्यों से पाकपरस्त भारतवासी मुसलमानों की जो प्रतिक्रियाएं उभर कर आर्इं और उसपर पाकिस्तान के मंत्री शेख रशीद ने जो वक्तव्य जारी किया, उससे दीनदयाल जी की चेतावनी चरितार्थ होती दिखती है।
विजयादशमी उत्सव में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने अपने बौद्धिक में जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन को लेकर जो चिंता व्यक्त की है, उसका मूल सिरा भविष्य के इसी खतरे के साथ जुड़ा हुआ है। देश के एक वर्ग की स्थिति रेगिस्तान के शुतुरमुर्ग की भांति है जो आंधी के समय रेत में सिर छुपाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेता है।
जिस बात का खतरा है
1952 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘अखंड भारत क्यों’? शीर्षक से लिखे लंबे लेख में कहा था- ‘कल तक जो काम मुस्लिम लीग एक संस्था के रूप में करती थी, आज वही कार्य पाकिस्तान एक स्टेट के रूप में कर रहा है। निश्चित ही इस समस्या का परिवर्तित स्वरूप अधिक खतरनाक है। पाकिस्तान के निर्माण में सहायक भारतवासी मुसलमानों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को भी वहां से बराबर बल मिलता रहता है तथा भारत के राष्ट्रीय क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़ (आज की स्थिति में साढ़े 17 करोड़) मुसलमानों की गतिविधि किसी भी सरकार के लिए शंका का कारणबनी रहेगी।’
दीनदयाल जी ने भारत से काटकर पाकिस्तान के निर्माण के बाद भविष्य की आसन्न चुनौतियों का गहन शोधात्मक आकलन किया था..जो ‘अखंड भारत क्यों?’ नामक पुस्तिका के रूप में छपा था। 68 साल पहले कही गई बातों का असली रूप अब ऐसे मौकों पर प्राय: उभरकर दिखने लगता है, खासतौर पर जब पाकिस्तान और इस्लामिक चरमपंथ की बात होती है। इसके अलावा भी बात चाहे कश्मीर के आतंकवादियों की हो, फिलिस्तीन के हमास, अफगानिस्तान के तालिबान या अलकायदा की या फिर क्रिकेट ही क्यों न हो, इनके चेहरों से पलस्तर उधड़कर अपने नग्न रूप में सामने आ जाता है।
24 अक्तूबर को दुबई में खेले गए टी-20 क्रिकेट मैच में भारत पर पाकिस्तान की विजय के बाद देशभर में जहां-तहां मुस्लिम युवाओं ने पटाखे फोड़कर खुशियां व्यक्त कीं। वहीं कश्मीर के एक महाविद्यालय के छात्रों ने तो खुलकर जश्न मनाया, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए।
हो सकता है कि देश में रह रहे 17 करोड़ मुसलमानों में से यह संख्या अत्यल्प हो। लेकिन इस संख्या के साथ मूक सहमति का आकलन करना लगभग वैसे ही है, जैसे भूगर्भ में सक्रिय ज्वालामुखी का स्पष्ट अंदेशा लगाना। ये छात्र और युवा उसी घर-समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे देश ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की अपेक्षा करता है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पाकिस्तान जाने का विकल्प न चुनने वाले मुसलमानों को लेकर जो आशंका व्यक्त की थी, पाकिस्तान के एक मंत्री शेख रशीद ने उसकी सत्यता पर यह कहते हुए अपनी मुहर लगा दी-‘दुनिया के मुसलमानों समेत हिन्दुस्थान के मुसलमानों की भावनाएं पाकिस्तान के साथ हैं। इस्लाम को फतह मुबारक हो। पाकिस्तान जिन्दाबाद।’
शेख रसीद के इस वक्तव्य पर भारत के किसी बौद्धिक मुसलमान का कोई प्रतिवाद नहीं आया। जबकि यही लोग कश्मीर के हर आतंकवादी को निर्दोष और मासूम बता देने में एक मिनट का भी वक्त जाया नहीं करते। और उन कथित मानववादी विचारकों के बारे में तो क्या कहना जो संसद हमले, मुंबई विस्फोट के गुनहगारों अफजल गुरु और मोहम्मद कसाब की सजामुक्ति को लेकर हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं। बहरहाल क्रिकेट प्रकरण को वैसी ही एक बानगी समझिए जैसी कि जेएनयू जैसे शैक्षणिक संस्थानों में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे..इंशाअल्लाह.. इंशाअल्लाह’ के नारे। इससे ज्यादा गंभीर खतरा उस रणनीति का है जो जनसांख्यिक बल के आधार पर निकट भविष्य में देश पर प्रभुत्व जमाने का मंसूबा पाले हुए है। जनसांख्यिक असंतुलन के इस बड़े खतरे का रेखांकन सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने अपने विजयादशमी उद्बोधन में किया है।
जनसांख्यिक असंतुलन का सच
पहले समझें सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत की चिंता। विजयादशमी के महत्वपूर्ण उद्बोधन में उन्होंने तथ्यों और आंकड़ों के साथ जनसंख्या में असंतुलन और उससे जुड़े खतरे को लेकर नीति-नियंताओं को सचेत किया और समय रहते सर्वव्यापी, सर्वसमावेशी नीति तैयार कर उसे सभी नागरिकों पर समभाव से लागू करने की बात की। श्री भागवत ने कहा—
देश में जनसंख्या नियंत्रण हेतु किए विविध उपायों से पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में पर्याप्त कमी आयी है,लेकिन 2011 की जनगणना के पांथिक आधार (रिलीजियस ग्राउंड) पर किए गए विश्लेषण से विविध संप्रदायों के जनसंख्या अनुपात में जो परिवर्तन सामने आया है, उसे देखते हुए जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है। विविध सम्प्रदायों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व कन्वर्जन के कारण देश की समग्र जनसंख्या, विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है।
विश्व में भारत अग्रणी देशों में से एक था जिसने 1952 में ही जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी, परन्तु 2000 में जाकर ही वह एक समग्र जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन कर सका। इस नीति का उद्देश्य 2.1 की सकल प्रजनन-दर की आदर्श स्थिति को 2045 तक प्राप्त कर स्थिर व स्वस्थ जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना था। ऐसी अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन-दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रूप से लागू होगा। परन्तु 2005-06 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के 0-6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आंकड़ों से असमान सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का संकेत मिलता है।
यह इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि वर्ष 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर के कारण देश की जनसंख्या में जहां भारत में उत्पन्न मत-पंथों के अनुयायियों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया, वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़ कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।
इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बंगलादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देती है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हजारिके आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आए न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है। यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठिए राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे है तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक तनावों का कारण बन रहे हैं।
पूर्वोत्तर के राज्यों में पांथिक आधार पर हो रहा जनसांख्यिक असंतुलन और भी गंभीर रूप ले चुका है।
अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहां 1951 में 99.21 प्रतिशत थे, वहीं 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत ही रह गये। केवल एक दशक में ही अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहां 80 प्रतिशत से अधिक था, वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है। उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में ईसाइयों की अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्षित कन्वर्जन गतिविधि का ही संकेत देती है।
श्री भागवत ने 2015 में रांची में सम्पन्न अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की प्रतिबद्धता का स्मरण कराते हुए कहा था कि कार्यकारी मंडल इन सभी जनसांख्यिक असंतुलनों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से आग्रह करता है कि :
- देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए।
- सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए। राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) का निर्माण कर इन घुसपैठियों को नागरिकता के अधिकारों से तथा भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए।
श्री भागवत का कहना था कि इन विषयों के प्रति जो भी नीति बनती हो, उसके सार्वत्रिक संपूर्ण तथा परिणामकारक क्रियान्वयन के लिए अमलीकरण के पूर्व व्यापक लोकप्रबोधन तथा निष्पक्ष कार्रवाई आवश्यक रहेगी। सद्यस्थिति में असंतुलित जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में स्थानीय हिन्दू समाज पर पलायन का दबाव बनने की, अपराध बढ़ने की घटनाएं सामने आई हैं।
पश्चिम बंगाल में हाल ही के चुनाव के बाद हुई हिंसा में हिन्दू समाज की जो दुरावस्था हुई, उसका शासन-प्रशासन द्वारा हिंसक तत्वों के अनुनय के साथ वहां का जनसंख्या असंतुलन भी एक कारण था। इसलिए यह आवश्यक है कि सबपर समान रूप से लागू हो सकने वाली नीति बने। अपने छोटे समूहों के संकुचित स्वार्थों के मोहजाल से बाहर आकर सम्पूर्ण देश के हित को सर्वोपरि मानकर चलने की आदत हम सभी को डालनी ही पड़ेगी।
आज कश्मीर, तो कल दूसरे प्रांत
जनसांख्यिक आंकड़ों का यथार्थ के धरातल पर रखकर विश्लेषण करें तो सीमावर्ती प्रांतों की चिंतनीय स्थिति समझ में आती है। जम्मू-कश्मीर इन स्थितियों का सबसे भयावह मॉडल है। दशकों, सदियों से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक जिस विस्तृत भूभाग का राजा हिन्दू रहा हो, आज वहां का हिन्दू सबसे दीन-हीन और अल्पसंख्यक है। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद जो अपेक्षाएं, आकांक्षाएं थीं, उन पर तुषारापात हुआ।
पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामिक आतंकवाद ने लंबे समय से यहां के हिन्दुओं के वंशनाश का अभियान चलाया। जो रह गए, वे मारे गए, जो पुरखों की विरासत का मोह छोड़कर वहां से निकले, वे आज अपने ही देश में शरणार्थी हैं। 2011 के आंकड़ों के अनुसार जम्मू-कश्मीर की कुल जनसंख्या में 68 प्रतिशत मुसलमान हैं। यदि जम्मू से अलग सिर्फ कश्मीर घाटी की बात करें तो यहां यह आंकड़ा 95 प्रतिशत है। क्या आपको यह नहीं लगता कि यही आंकड़ा वहां भारत के विरोध का मूल कारण बना हुआ है। यहीं से देशभर के मुसलमानों तक राष्ट्र के विरोध और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का संदेश प्रेषित होता है।
असम में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी के 35 प्रतिशत से ज्यादा है। मां कामाख्या की पुण्यभूमि पर झोंपड़-पट्टीनुमा घरों के ऊपर लहराते चांद-सितारों वाले हरे झंडे अपनी अलग कहानी कहते हैं। भारत के चुनावी लोकतंत्र में 35 प्रतिशत के वोट का आंकड़ा केन्द्र व राज्यों में सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है। असम बांग्लादेशी घुसपैठियों से भरा पड़ा है। सेकुलर नेताओं की स्वार्थी राजनीति ने इन्हें अपना वोट बनाने के लिए मातृभूमि का सौदा कर लिया। कश्मीर के बाद दूसरा सबसे बड़ा सिरदर्द असम है। जो कश्मीरी कर रहे हैं, वह कल असम के यही लोग करेंगे। वे पाकपरस्त हैं, तो ये बांग्लादेश परस्त बन जाएंगे क्योंकि इनकी मजहबी एकता यही कहती है। इनके लिए विश्व का हर गैर मुसलमान आज भी काफिर है, कल भी रहेगा।
27 प्रतिशत की मुस्लिम आबादी वाले पश्चिम बंगाल ने इस विधानसभा चुनाव में अपना रंग दिखाया। चुनाव पूर्व और चुनाव बाद जिस तरह खून-खराबा, लूटपाट हुई, वह दुर्दांत सुहरावर्दी के दौर की याद दिलाती है। यहां की राजनीति में मुसलमानों की जड़ें गहरी हैं। इन्हें पहले कांग्रेस ने पाल-पोसकर अपना वोट बैंक बनाया, फिर वामपंथी राजनीतिक दलों ने अपना राजनीतिक हथियार बनाया और आज ये तृणमूल कांग्रेस की आत्मा ही बन बैठे हैं।
इस देश में आईएसआईएस के कनेक्शन का सबसे पहले यदि कहीं पता चला तो वह है केरल। यहां मुसलमानों की आबादी 27.7 प्रतिशत है। 16 से ज्यादा ऐसे जिले हैं जहां यह आंकड़ा 50 से ऊपर बैठता है। संभवत: इसीलिए राहुल गांधी वायनाड से चुनाव लड़ने पहुंचे और जीते भी। केरल में मिशनरियां और खाड़ी देशों का पेट्रो डॉलर अभी भी अपना रसूख दिखा रहा है। शंकराचार्य की इस पुण्यभूमि में कब उनके अनुयायी अल्पसंख्यक बनकर रह जाएं, कह नहीं सकते। मिशनरियों और मदरसों के लक्ष्य में वही क्षेत्र पहले रहता है, जो कभी अपनी सनातनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है। 1983 में केरल के ही एक शोधार्थी केसी जाचरिया के एक अध्ययन के अनुसार यहां एक मुस्लिम महिला प्रजनन दर औसत 4.1 है जबकि हिन्दू महिला का 2.9। यानी यहां प्रजनन दर में लगभग दोगुने का अंतर है। यह आंकड़ा चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ते हुए कब मूलधन से ऊपर आ जाए, कोई समाजशास्त्री ही इसका आकलन कर सकता है।
देश की हिन्दी पट्टी बिहार और उत्तरप्रदेश को बाहुबलियों और सरकार के समानांतर माफियाराज चलाने वाले गिरोहों के लिए जाना जाता रहा था। विधानसभाओं और संसद में अपराधियों के प्रवेश का रास्ता इन्हीं दो राज्यों से होकर गुजरता था। 2014 के बाद माफियाओं की नकेलें कसी गईं। इनमें से कई सांसद-विधायक होते हुए भी जेल में हैं। उनका आपराधिक साम्राज्य ध्वस्त किया गया। उत्तरप्रदेश की कुल जनसंख्या में मुस्लिम मतावलंबियों का प्रतिशत भले ही 19.3 का हो लेकिन संख्या की दृष्टि से साढ़े चार करोड़ से ज्यादा ही हैं। मुगल आक्रांताओं ने सबसे ज्यादा यहीं विध्वंस किया। मंदिरों को तोड़कर उसपर मस्जिदें बनाईं और शहरों के नाम बदलकर वहां इस्लाम की पट्टेदारी लिख दी। दुर्भाग्य देखिए, जिस लुटेरे बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया, उसी के नाम से बिहार में आज भी बख्तियारपुर कस्बा मौजूद है।
बिहार में मुस्लिमों की जनसंख्या 16 प्रतिशत है पर पश्चिम बंगाल के रास्ते यहां आने वाले बांग्लादेशी घुसपैठियों और रोहिंग्या मुसलमानों की गणना अभी दर्ज होनी बाकी है। यहां वास्तविक जनसंख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा बैठती है। उत्तरप्रदेश और बिहार के कई कस्बों से निकली ये कहानियां सुर्खियों में रहीं कि यहां से डर के मारे हिन्दू समुदाय को औने-पौने सब बेच-बाचकर पलायन करना पड़ा।
देश के पैमाने पर देखें तो मुसलमानों की आबादी जहां 24.6 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है, वहीं हिन्दू जनसंख्या की वृद्धिदर 16.76 प्रतिशत है यानी कि 8 प्रतिशत अधिक। मुस्लिम जनसंख्या में ऐसी वृद्धि एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है और इसे शरिया और मजहब के साथ जोड़ दिया गया है। इतिहास पलटकर देखें तो यह पंक्ति कितनी भयावहता के साथ सत्य का पदार्फाश करती है कि-जहां हिन्दू घटा वहां देश बंटा..।
पड़ोसी देशों में हिन्दुओं की स्थिति
भारत से काटकर पाकिस्तान बनाए जाने के पीछे जनसंख्या बल ही था। अंग्रेजों ने जाति और पंथ के आधार पर जनगणना जारी कर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर अमल किया। पाकिस्तान की मांग का मूल आधार मुस्लिम आबादी रही है। जब पंथ के आधार पर देश को बांटा गया तो कायदे से दोनों ओर की हिन्दू-मुस्लिम आबादी का शत-प्रतिशत स्थानांतरण होना चाहिए। लेकिन यहां भी एक दूरगामी रणनीति रची गई जिसे तत्कालीन कांग्रेस की सरकार और उसके नेताओं ने सहारा दिया। बहरहाल अगस्त 1947 में बंटवारे के समय साढ़े चार करोड़ मुस्लिम पाकिस्तान गए, पर वहां से महज 55 लाख हिन्दू व सिख भारत आए। जबकि साढ़े तीन करोड़ मुस्लिमों की आबादी भारत में ही रह गई। यह उस समय की कुल आबादी लगभग 37 करोड़ के मान से साढे़ आठ से नौ प्रतिशत की थी जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में मुसलमानों की आबादी 14.2 प्रतिशत यानी कि 17 करोड़ 20 लाख के आसपास है। सन् 1947 से अबतक मुस्लिम जनसंख्या लगभग 6 प्रतिशत बढ़ गई।
अब पाकिस्तान में हिन्दुओं की स्थिति देखें। बंटवारे के बाद 1951 की जनगणना में पश्चिमी पाकिस्तान (आज का पाकिस्तान) में 1.6 प्रतिशत हिन्दू बचे थे जबकि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिन्दुओं की आबादी 22.02 प्रतिशत थी। पाकिस्तान में आज की स्थिति में वहां हिन्दुओं की जनसंख्या अब 1 प्रतिशत भी नहीं बची है। जबकि बांग्लादेश में 2011 की जनगणना के हिसाब से महज 10.2 प्रतिशत हिन्दू ही बचे थे। यानी बांग्लादेश में हिन्दू जनसंख्या में 12 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अब बामियान बुद्ध के देश अफगानिस्तान को लें, रिपोर्ट बताती हैं कि ’70 के दशक में यहां हिन्दू-सिखों की आबादी 7 लाख के करीब थी। 2016 के आंकड़ों के अनुसार 1350 हिन्दू बचे थे। इंटरनेट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2020 में वहां सिर्फ 50 हिन्दू नागरिक बचे।
अमेरिकी थिंकटैंक प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट बताती है कि अब वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब विश्वभर की कुल मुस्लिम आबादी की सबसे ज्यादा संख्या भारत में होगी। यानी कि सबसे ज्यादा मुसलमान हिन्दुस्थान में पाए जाएंगे। और मुस्लिम देशों से शनै: शनै: हिन्दुओं का नामोनिशान मिट जाएगा।
तथ्य बताते हैं कि जिन पड़ोसी मुस्लिम मुल्कों में हिन्दू थे, उनकी संख्या लगातार शून्य की ओर बढ़ती जा रही है और इसके उलट भारत में मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी दिन दूनी-रात चौगुनी होती जा रही है। यही चिंता का विषय है। पहले से ही आबादी का बोझ झेल रहे देश में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से पीड़ित-दमित हिन्दू तो आए ही.. इन देशों से बड़ी भारी संख्या में अवैध तरीके से मुस्लिम आबादी भी घुस आई। अब जब राष्ट्रीय नागरिक पंजिका की बात होती है या भारत की नागरिकता पाने के नए कानून पर अमल की बात उठती है तो शहर-शहर में शाहीनबाग सजा दिए जाते हैं। जनजीवन खतरे में डाल दिया जाता है। मजहबी वोट की राजनीति करने वाले नामधारी दल ताल ठोकते हुए सड़क पर आ जाते हैं। कथित बुद्धिजीवी भड़काते हैं कि सर्वे के लिए सरकारी लोग आएं तो सही नाम बताने की बजाय रंगा-बिल्ला बताइए।
अखंड भारत की बात
1876 के पहले यानी सन् 1857 की क्रांति के समय अफगानिस्तान, भूटान, श्रीलंका और बर्मा (म्यामांर) भारत के हिस्से थे। 1947 में पाकिस्तान के अलग होने के पहले 1937 में वर्मा, 1935 में श्रीलंका, 1906 में भूटान और 1876 में अफगानिस्तान भारत से अलग हुए। जब हम अखंड भारत की बात करते हैं तो भारतमाता की यही तस्वीर सामने आती है। यदि हम वृहत्तर भारत साम्राज्य की बात करें जहां सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति का फैलाव था तो उसमें मलेशिया, फिलीपींस, थाईलैण्ड, दक्षिणी वियतनाम, कंबोडिया और इंडोनेशिया भी शामिल थे। अब इनमें से आधे देशों में बौद्ध हैं यद्यपि इनकी पुण्यभूमि आज भी भारत ही है और आधे में मुसलमान हैं जहां कभी भारतीय संस्कृति का वर्चस्व रहा है और उसके अवशेष आज भी वहां हैं। क्या यह सही और आवश्यक समय नहीं जब हम तपोनिष्ठ पंडित दीनदयाल उपाध्याय की चेतावनी और सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत की चिंता को विमर्श बनाकर जनजन तक पहुंचाएं और देश के नीति-नियंताओं को इस बात के लिए विवश करें कि समय रहते जनसंख्या असंतुलन ठीक करने के वैधानिक उपाय नहीं किए गए तो भारतीयता का भविष्य अंधकूप में समा जाएगा।
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