प्रौद्योगिकी की क्षमताएं जिस अंदाज में बढ़ रही हैं, वह हैरतअंगेज है। स्पीच सिंथेसिस की बदौलत आज कंप्यूटर बोल सकता है और वॉयस रिकॉग्निशन के जरिए आपकी आवाज सुन सकता है। कुछ इमारतों में आपने देखा होगा कि आप आगे बढ़ते हैं और कुछ दरवाजे अपने-आप खुल जाते हैं। कंप्यूटर विजन ने टेक्नॉलॉजी को देखने में सक्षम बना दिया है। तमाम किस्म के सेंसरों के जरिए टेक्नॉलॉजी स्पर्श को भी पहचानने लगी है। आपका स्मार्टफोन फिंगरप्रिंट सेंसर पर उंगली दबाते ही खुल जाता है। यहां तक कि स्मार्टफोन के कीबोर्ड पर धीरे से उंगली दबाने का अलग अर्थ है और जोर से दबाने का अलग। वह स्पर्श ही नहीं, उसकी गहराई को भी समझने लगा है।
टेक्नॉलॉजी कई क्षेत्रों में हमारी इंद्रियों से होड़ लेने लगी है। लेकिन शायद आपको तसल्ली होगी कि कम से कम वह किसी चीज को चखने में सक्षम नहीं है। मगर नहीं, यह आपकी गलतफहमी है। यह एक और मोर्चा है जिसे टेक्नॉलॉजी ने फतह कर लिया है। अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में इसके प्रयोग कामयाब रहे हैं और सिर्फ प्रयोग ही क्यों, 'ई-टंग' (इलेक्ट्रॉनिक जीभ) के नाम से एक कॉमर्शियल उत्पाद बाजार में आ गया है।
शायद तकनीक के लिए यह उतना मुश्किल काम नहीं है जितना हमें लगता है। हम चखते कैसे हैं? हमारी जीभ पर दर्जनों स्वाद-बिंदु (कलिकाएं) होते हैं जो सेंसर का काम करते हैं। ये भोजन कणों के स्वाद पर प्रतिक्रिया करते हुए मस्तिष्क को संकेत भेजते हैं। मस्तिष्क ऐसे तमाम संकेतों को इकट्ठा करके स्वाद की अनुभूति पैदा करता है, जैसे कि कड़वा या खट्टा। चखने की इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया भी काफी हद तक इसी तर्ज पर संपन्न होती है।
इलेक्ट्रॉनिक जीभ में अनेक रसायन होते हैं जो यही प्रक्रिया थोड़े अलग अंदाज में पूरी करते हैं। पॉलिश एकेडमी आॅफ साइंटिस्ट्स से इस बात को समझते हैं। खट्टी चीजों को पहचानने के लिए हमारे पास पहले से ही एक मानक मौजूद है जिसे पीएच कहा जाता है। आपने अम्लों और शरीर के भीतर की अम्लता की पहचान के संदर्भ में इस मानक का जिक्र सुना होगा। फिर लिटमस पेपर भी तो एक रसायन के जरिए ही अम्ल और क्षार की पहचान करता है। खारे स्वाद को पहचानने के लिए उन्हीं रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है जो सोडियम, पोटेशियम और क्लोरीन के साथ प्रतिक्रिया करते हैं। नमक सोडियम और क्लोरीन के मिलन से भी बनता है और पोटेशियम और क्लोरीन के मिलने से भी। इलेक्ट्रॉनिक जीभ में ऐसे बहुत सारे सेंसर होंगे जो मिलकर स्वाद की सूचना तैयार करेंगे।
जर्नल आॅफ फूड साइंस ने वाशिंगटन स्टेट विवि में चल रहे एक अध्ययन को प्रकाशित किया है। इसमें ऐसी इलेक्ट्रॉनिक स्वाद प्रणाली की बात की गई है जो स्वाद को विजुअल (दर्शनीय) सूचनाओं में बदल देती है। अगर खट्टा है तो चित्र अलग होगा और बहुत खट्टा है तो अलग। इस तरह की तकनीकें जब मुख्यधारा में आ जाएंगी तो खतरनाक पदार्थों को चखने से लेकर खट्टे, कड़वे और कसैले पदार्थों को चखने की चुनौती कितनी आसान हो जाएगी।
साउथ कैरोलिना विवि में जेवियर सेतो और उनके साथियों ने सोने, प्लेटिनम और कार्बन के इलेक्ट्रॉड्स से एक स्वाद-मशीन तैयार की है। इसका इस्तेमाल विभिन्न किस्म की शराब में मौजूद मिठास, कड़वेपन और दूसरे स्वादों को चखने के लिए किया जा रहा है। अब जिक्र जापान की हिगूची नामक कंपनी का जिसने बाकायदा एक स्वाद परीक्षण प्रणाली (टेस्ट सेन्सिंग सिस्टम) तैयार कर ली है। यह टीएस-5000जेड और एसए402बी नामक उपकरणों के रूप में उपलब्ध है। हम जानते हैं कि हमारा भोजन हजारों किस्म के पदार्थोंे के कणों से बना है। हिगूची की स्वाद परीक्षण प्रणाली भोजन के अणुओं की सूचना को इकट्ठा कर उसके आधार पर ऐसे चित्र बनाती है जो उसके स्वाद का संकेत देते हैं। इन संकेतों को गणितीय तौर-तरीकों से और सटीक बनाया जाता है। अंतत: वह हल्की और कड़क कॉफी के बीच अंतर बता सकती है।
ये फिलहाल नई बातें हैं लेकिन पारंपरिक रसायन विज्ञान, गणित और नई टेक्नॉलॉजी (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, अथाह कंप्यूटिंग शक्ति और डेटा एनालिटिक्स) की बदौलत ऐसी मशीनें कुछ ही साल में आम हो जाएंगी जो खतरनाक से खतरनाक स्वाद भी चख सकेंगी, यहां तक कि जहर भी और साइनाइड भी। तब हम और भी ज्यादा वास्तविक दिखने वाले ह्यूमनॉयड रोबोट बना सकेंगे और अनगिनत औद्योगिक स्थितियों में उनका इस्तेमाल कर सकेंगे। तब शायद शराब, चाय, कॉफी और चॉकलेट कंपनियों को स्वाद चखने के लिए अलग से कर्मचारी न रखने पड़ें और नतीजे भी ज्यादा सटीक आएं।
(लेखक सुप्रसिद्ध तकनीक विशेषज्ञ हैं)
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