मानवता के अग्रदूत

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श्री गुरु नानकदेव जी का चिंतन अत्यंत व्यापक है जो विविध विषयों की परिधि में घूमता है। उन्होंने इस बात को सम्पुष्ट किया कि स्त्रियां, जो कि भक्ति साहित्य में समर्पण का स्वरूप हैं, मानव जीवन की धुरी हैं। उन्होंने जल के संरक्षण तथा स्वच्छ पर्यावरण की आवश्यकता के संबंध में भी जागरूकता उत्पन्न की

डॉ़ सच्चिदानंद जोशी

किसी भी व्यक्ति की महानता सिर्फ इस बात से नहीं आंकी जा सकती कि उसने अपने जीवन में कितने महान कार्य किये हैं, बल्कि वह इस बात से मापी जाती है कि उसके द्वारा किये गये कार्यों का प्रभाव आने वाले समय में, अगली कई शताब्दियों पर कैसा पड़ेगा। भारत की पवित्र भूमि ऐसे महान सपूतों को जन्म देकर गौरवान्वित हुई है जिन्होंने अपनी छाप इस मिट्टी पर कई शताब्दियों के लिये छोड़ी है। श्री गुरु नानकदेव भारत माता के एक ऐसे ही महान सपूत थे।
श्री गुरु नानक को इस धरती पर जन्म लिये साढ़े पांच सौ साल से ज्यादा गुजर चुके हैं और उनकी ख्याति देश, भूगोल, धर्म, भाषा और संस्कृति से ऊपर उठ कर दिग्दिगंत तक फैलती ही जा रही है। ख्यातलब्ध विद्वान भाई गुरुदास, जो कि पंजाबी और ब्रजभाषा के अध्येता हैं, ने गुरु नानक के जन्म को सही अर्थों में सभी परेशानियों का अंत तथा एक नयी सुबह के शुभारंभ का सूर्योदय बताया है। वह लंबी काली रात जा चुकी थी और गुरु नानकदेव ने सिंहनाद किया और यह घोषित किया कि ईश्वर एक है, निर्विकार है तथा जन्म और मृत्यु से परे है।

यह कहा जा सकता है कि गुरु नानक भारतीय सभ्यता के एक नये युग के अग्रदूत थे। वे एक महान आध्यात्मिक नायक थे, परंतु उनकी सोच धार्मिक मामलों तक ही सीमित नहीं थी। वे एक प्रबुद्ध आत्मा थे। वे वह सब देख सकते थे जो उनके समय का विज्ञान भी देखने में अक्षम था। समाज के उत्थान के लिये उनकी एक अनोखी परिकल्पना थी। गुरु नानक वह देख सकते थे जो अन्य लोग न तो देख सकते थे, न सोच सकते थे और न ही कल्पना कर सकते थे। उनका दृष्टिकोण था कि ब्रह्माण्ड में अनगिनत आकाशीय पिंड हैं तथा लाखों आकाश हैं, इसलिये शाश्वत सत्य की खोज चलती रहेगी। यह धरती बैल के सींगों पर नहीं टिकी है जैसा कि उस समय का विश्वास था। गुरु नानक जी ने कहा कि पृथ्वी न्याय अर्थात् धर्म की बुनियाद पर स्थिर है। याद कीजिये कि भारतीय परंपरा में धर्म का अर्थ है न्याय, जीवन जीने का सिद्धांत या तरीका, न कि अंग्रेजी शब्द ‘रिलिजन’ का शाब्दिक अर्थ। हम कह सकते हैं कि गुरु नानकदेव जी भारतीय पुनर्जागरण का आधार तैयार कर रहे थे।

गुरु नानकदेव जी अव्यवहारिक दार्शनिक नहीं थे, ना ही वे कोई संसार त्याग चुके संन्यासी थे। उन्होंने कर्म को ही धर्म का आधार माना और आध्यात्मिकता की परिकल्पना को सामाजिक दायित्व और बदलाव की विचारधारा में रूपांतरित किया। मेहनत करके जीविका कमाना और उसके फलस्वरूप मिलने वाले पारिश्रमिक को समाज के साथ बांटना ही वह विचार है जो कि गुरु नानक के उपदेशों की चिरस्थायी विरासत है।

श्री गुरु नानकदेव ने आगाह किया था कि धर्म का उपयोग भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिये ना किया जाए। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा, ऊंच-नीच के झूठे घमंड से निकली सामाजिक असमानता पर अनवरत वार किया। उन्होंने सामाजिक परजीविता की कड़े शब्दों में आलोचना की, सामाजिक दायित्व के दर्शन की रचना की। उन्होंने हर उस चीज की आलोचना की जो कि देखने में तो धर्म जैसी लगती थी परंतु वास्तव में एक जाल होती थी सीधे-सादे लोगों को फंसाने के लिये। गुरु नानकदेव जी ने बताया है कि भगवान का नाम लेना और उसके कार्यों में दृढ़ निष्ठा रखना ही सदाचारी जीवन का आधार है। भगवान का नाम लेने से, हृदय से बुराई की गंदगी वैसे ही साफ हो जाती है, जैसे कि साबुन कपड़ों से गंदगी साफ कर देता है। आत्म-संयम सदाचारी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण गुण है।

गुरु नानकदेव जी सत्य की किसी ऐसी अवधारणा की खोज में नहीं थे जिनमें कि आध्यात्मिक, दार्शनिक, तार्किक अथवा व्याकरण संबंधी जटिलतायें हों। वे सत्य की सहज अवधारणा को अधिक महत्व देते थे, ऐसा सत्य जो कि सच्चे और ईमानदार जीवन का आधार हो। उन्होंने घोषित किया कि सत्य सर्वोच्च गुण है परंतु सच्चा जीवन उससे भी ऊंचा है। इस प्रकार से गुरु नानक देव जी ने सत्य के विचार और अभ्यास के मध्य की दूरी को मिटाया।

श्री गुरु नानकदेव जी का चिंतन अत्यंत व्यापक था जो विविध विषयों की परिधि में घूमता था। उन्होंने इस बात को सम्पुष्ट किया कि स्त्रियां, जो कि भक्ति साहित्य में समर्पण का स्वरूप हैं, मानव जीवन की धुरी हैं। उन्होंने जल के संरक्षण तथा स्वच्छ पर्यावरण की आवश्यकता के संबंध में भी जागरूकता उत्पन्न की। उनकी नि:स्वार्थ सेवा से संबंधित शिक्षा सामान्य आदमी के लिये बहुत व्यावहारिक तथा अनुसरणीय है। उन्होंने कभी ऐसी बात की शिक्षा नहीं दी जिसका वह स्वयं पालन नहीं करते थे।

गुरु नानक जी एक बहुत व्यापक देशाटन करने वाले व्यक्ति थे। वे संभवत: विश्व में सबसे अधिक यात्रा करने वाले संत भी हो सकते हैं, जिन्होंने 36,000 किलोमीटर से भी अधिक की यात्रा की है। यह सोचने में कठिनाई होती है कि 550 साल पहले उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ यह सब कैसे किया होगा। उन्होंने न केवल यात्रा की बल्कि सभी मतों के प्रमुख लोगों से मैत्रीपूर्ण चर्चाएं भी कीं। उन्होंने उनके दृष्टिकोण को समझने की कोशिश की और उसके बाद अपना मानवता का दर्शन आगे रखा। श्री गुरु ग्रंथ साहिब उन तमाम संतों के उदाहरण से समाहित ग्रंथ है जिनसे उनकी मुलाकात हुई होगी। उनके विचार भी इस पवित्र पुस्तक में आदर का स्थान पाते हैं। श्री गुरु नानकदेव जी की यात्राओं को उदासी कहा गया जो उन्होंने चारों दिशाओं में की थीं।

यह वह समय था जब भारत एक कठिनाई के दौर से गुजर रहा था और मध्यकालीन समाज में बहुत सारे परिवर्तन हो रहे थे। धर्म, मत, पंथ और विचार सभी पर गहरा संकट था। आस्थाओं को जबरदस्ती खंडित किया जा रहा था। गुरु नानकदेव जी में यह कहने का साहस था कि ‘‘न कोई हिन्दू ना मुसलमान है, सभी उस ईश्वर की संतान हैं।’’ उन्होंने तीन चीजों पर जोर दिया, ‘‘कीरत करो’’ अर्थात मेहनत से काम करो, अच्छे कर्म करो और सच्ची जीविका अर्जित करो। ‘‘वंड चखो’’ अर्थात् स्वार्थी मत बनो। दूसरों से साझा करो। ‘‘नाम जपो’’ अर्थात ध्यान लगाओ और सदैव भगवान का नाम याद रखो।

श्री गुरु नानकदेव जी का जीवन, शिक्षा और लेख मानव सभ्यता की सामूहिक विरासत हैं। उनका अवतरण भारत के लिए सबसे बड़े वरदानों में से एक है। मानव जाति के उत्थान के लिये उनके दिखाये एकता, समानता, विनम्रता और सेवा के मार्ग का विश्व में बहुत बड़ी संख्या में लोगों के द्वारा अनुगमन किया जा रहा है। यह समय की आवश्यकता है कि हम श्री गुरु नानकदेव जी को याद रखें तथा राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता के लिये उनके उपदेशों का पालन करें।
(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सदस्य सचिव हैं)

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