भारतीय ज्ञान परंपरा और नानकवाणी
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होम भारत

भारतीय ज्ञान परंपरा और नानकवाणी

by WEB DESK
Nov 19, 2021, 01:25 pm IST
in भारत, दिल्ली
गुरु नानकदेव जी के सामने विनय भाव में बैठे हैं भाई मरदाना

गुरु नानकदेव जी के सामने विनय भाव में बैठे हैं भाई मरदाना

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गुरुनानक जी ने अपनी वाणी में भारतीय ज्ञान परंपरा को ही पुष्ट करने का काम किया है। उन्होंने जीवन और यथार्थ के परम सत्य को अपनी वाणी में जगह देते हुए बताया है कि सत्य के मार्ग पर चलकर ही हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं

 डॉ.जगबीर सिंह

गुरु नानकदेव मध्यकालीन भारत के उन क्रांतिकारी पंथ प्रवर्तकों में से हैं, जिन्होंने अपने आध्यात्मिक संदेश द्वारा तत्कालीन मानव समाज को मूल्यवान नई दिशाएं प्रदान कीं। वे संसार के सबसे आधुनिक पंथ अर्थात् सिख पंथ के संस्थापक और आदिगुरु हैं। इस पंथ की प्रमुख विशेषता यह है कि यह भारत की उस प्राचीन और जीवंत सभ्यता का अंग है जिसका प्रादुर्भाव आज से तकरीबन 10,000 साल पहले भारतीय उप-महाद्वीप के सप्त सिंधु क्षेत्र में हुआ था। भारत की इस सभ्यता के अंतर्गत चार प्रमुख धार्मिक परंपराएं विकसित हुई हैं -सनातन धर्म, बौद्ध, जैन और सिख पंथ। निस्संदेह इन चारों ने विश्व में अपनी स्वतंत्र वैश्विक पहचान स्थापित की है, फिर भी, इन परंपराओं में पंथ, मत और साधना-पद्धति की भिन्नताओं के बावजूद विश्व-दृष्टि और जीवनशैली की समानता के अनेक सूत्र दृष्टिगत होते हैं, जो विभिन्नता में एकता की खूबसूरत मिसाल प्रस्तुत करते हैं।

भारत की यह सनातन परंपरा धर्म-केंद्रित और ज्ञान आधारित है। इस परंपरा के अंतर्गत धर्म का अर्थ ‘रिलिजन’ अथवा मजहब नहीं है। यह मानव जीवन को नैतिक आधार प्रदान करने वाले उस विराट विधान की ओर संकेत करती है जो संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। भारतीय सभ्यता ब्रह्म के रूप में जीवन और यथार्थ के परम सत्य की संकल्पना प्रस्तुत करती है और इसके अनुरूप ही मानव जीवन के परमार्थ की व्याख्या प्रस्तुत करती है।

एक अद्वितीय पंथ प्रवर्तक के रूप में, गुरुनानक देव जी की विशेषता यह है कि वे मध्यकालीन भारत की उस नव-जागृति लहर के साथ भी संबंधित है जिसको भक्ति लहर के नाम से जाना जाता है। नव-जागृति की इस क्रांतिकारी लहर ने भारतीय लोकमानस को विदेशी मूल के, तुर्क-मंगोल-अफगान, आक्रान्ताओं और दमनकारी शासकों के सदियों से चले आ रहे आतंक से मानसिक मुक्ति प्रदान करने की चेष्टा की। इसके साथ ही इस लहर से जुड़े संतों और भक्तों ने तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित खोखले धार्मिक  कर्मकाण्ड और सामाजिक कुरीतियों का भी विरोध किया और धर्म को उसके वास्तविक, आध्यात्मिक, अर्थों में स्थापित किया।

गुरु नानकदेव ने वाणी के रूप में एक वृहत् आकार की काव्य-रचना की, जिसका प्रामाणिक संकलन आदि ग्रंथ अथवा गुरुग्रंथ साहिब के पावनग्रंथ में दर्ज है। इस ग्रंथ में यह वाणी 19 रागों के अंतर्गत शामिल की गई है। इसमें छोटे और बड़े आकार की अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं शामिल हैं। जब हम गुरुनानक वाणी का गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि इसमें आम बोलचाल की भाषा के साथ-साथ भारतीय दर्शन की शब्दावली का भी प्रयोग किया गया है। वास्तव में यह वाणी भारत की सनातन ज्ञान परंपरा के साथ रचनात्मक संवाद स्थापित करती है और अपने दार्शनिक विमर्श का सृजन करती है।

प्रत्येक मानव समुदाय अपनी आध्यात्मिक और नैतिक अगुआई के लिए बार-बार अपने पावन ग्रंथों की ओर लौटता है। इन पावन ग्रंथों की विशेषता यह है कि इनके सरोकार सर्वकालीन होते हैं परंतु इनका भाषाई मुहावरा समकालीन होता है। इतिहास के विशेषकाल-खंड में रचे गए यह पावन ग्रंथ अक्सर समकालीन स्थितियों और राजनीतिक अवचेतन से प्रभावित होते हैं। अतीत की विरासत को वर्तमान में प्रासंगिक बनाकर ग्रहण करना किसी समुदाय के जीवंत होने की निशानी है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर, हमने गुरुनानक वाणी का अध्ययन करने की चेष्टा की है। हमने इस वाणी को भारत की उस सनातन ज्ञान परंपरा के संदर्भ में रखकर देखने का प्रयास किया है जो चिरंतन काल से हमें जीवन के आदर्श मूल्यों की शिक्षा प्रदान करती रही है।

जैसी मै आवै खसम की बाणी
तैसड़ाकरी गिआनुवेलालो॥
पाप की जंञ लै काबलहु
धाइआ जोंरी मंगै दानु वे लालो॥
सरम धरम छप श्वलोंए
कुडू फिरै परधान वे लालो॥
सच की बाणी नानकु आखै
सच सुणाइसी सचु की बेला।
(गुरुग्रंथसाहिब, 722-23)

ये पंक्तियां गुरुनानक देव जी द्वारा मुगल आक्रांता बाबर के हिंदुस्थान के ऊपर हमले के समय कही गई हैं। उस समय वे पश्चिमी पंजाब  के एक गांव सैदपुर (एमनाबाद) में अपने परम शिष्य भाई लालो के घर में रुके हुए थे। ये पंक्तियां भाई लालो को ही संबोधित करके रची गई हैं।

गुरुजी कहते हैं, ‘हे लालो! जैसा ज्ञान मुझे उस खसम (परमपिता परमात्मा) की ओर से आ रहा है वैसा ही ज्ञान मैं तुम्हें दे रहा हूं। ये जो आक्रांता (बाबर) है, यह काबुल की ओर से पाप की बारात लेकर आया है। यह अत्याचार द्वारा वधू के रूप में भारत-भूमि का कन्यादान मांग रहा है। इस समय शर्म और धर्म दोनों ही कहीं छुप गए हैं और चारों ओर असत्य की प्रधानता है। नानक सच (सत्य) की वाणी बोल रहा है और सच की इस बेला में सच ही सुनाएगा।
यहां ‘खसम की वाणी’ और ‘सच की वाणी’ का सृजनात्मक संदर्भ एक ही है। वह है दैवी आवेश का वह चमत्कारी क्षण जिसमें से गुजरने वाला व्यक्ति अपने अस्तित्व की  लघुता से ऊपर उठ जाता है और निर्भय हो जाता है। गुरुजी परम सत्य पर अपना ध्यान एकाग्र करते हैं-
 

हम आदमी हां इकदमी
मुहलतु न जाणा॥
नानकु बिनवै तिसै सखेह
वह जाके जीअ पराणा॥
अंधे जीवना वीचारि देखि
के ते के दिना॥
सासु मास सभु जीउ तुमारा
तू मै खरा पिआरा॥
नानकु साइरु एव कहतु है
सचे परवदगारा॥
(गुरुग्रंथसाहिब, 660)

गुरुजी कहते हैं कि हम ‘आदमी’ हैं अर्थात् हमारा जीवन एक ‘दम’ पर ही टिका हुआ है। हमें इस बात का कोई ज्ञान नहीं कि हमें जीने की कब तक की मुहलत मिली है और किस मुहर्ू्त में  हमारे जीवन का अंत होने वाला है। इसलिए यही उचित है कि हम उस परमात्मा का स्मरण करें जिसने हमें यह जीवन प्रदान किया है। जीवन की अनिश्चितता और मौत की अटलता का यह अहसास मानव जीवन में निरंतर संवाद की आवश्यकता पर भी बल देने वाला है। इसी भाव की अभिव्यक्ति गुरुनानक वाणी की निम्न पंक्तियों में हुई है-  

जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक
किछु सुणीऐ किछु कहीऐ॥
भालि रहे हम रह णुन पाइ
आजीवति आमरि रहीऐ॥
(गुरुग्रंथसाहिब, 661)

गुरुजी कहते हैं हे नानक, जब तक हम इस दुनिया में रहें कुछ सुनें और कुछ कहें। हमने बहुत खोजबीन कर ली है और पता चला है कि यह जीवन सदा रहने वाला नहीं है। कुछ कहने और कुछ सुनने से तात्पर्य यहां परस्पर संवाद के महत्व को उजागर करने का है। इस तरह, गुरुनानक देव ने संवाद की इस क्रिया को ज्ञान प्राप्ति के माध्यम के रूप में स्थापित किया है।

 नश्वर शरीर को त्यागते गुरु नानकदेव जी, साथ में हैं शोकमग्न शिष्य

गुरुनानक वाणी की विधागत विशेषता यह है कि यह काव्य और संगीत के माध्यम से दार्शनिक विमर्श का निर्माण करती है। गुरु नानकदेवजी ने शास्त्रीय संगीत के 19 रागों में अपनी वाणी की रचना की है और इसके साथ ही उन्होंने लोक संगीत की प्रचलित धुनों का भी प्रयोग किया है।

गुरु नानकदेव जी ने मानव जीवन के लौकिक सरोकारों को आध्यात्मिक दृष्टि से परिभाषित करते हुए एक संतुलित जीवनशैली का संदेश संचारित किया है। उन्होंने भारतीय परंपरा में प्रचलित मानव जीवन के चार पुरुषार्थों को अपना आधार बनाया है। ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म अर्थ काम और मोक्ष। उन्होंने मानव जीवन के इन परम उद्देश्यों की चर्चा नए संदर्भ में प्रस्तुत की है। इन पंक्तियों को देखिए-

मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जडाओ।
कसतूरिकुंगू अगर चंदन लीपि आवै चाओ।
मतु देखि भूला वीसरै तेरा चितिन आवै नाओं।
हरिबिनु जीउजलिबलिजाउ।
मैं आपणा गुरु पूछि देखिआ
अवरु नाहीं थाओ।
(गुरुग्रंथसाहिब, 14)

यहां आर्थिक खुशहाली का एक मनमोहक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी आध्यात्मिक सार्थकता पर ध्यान आकर्षित किया गया है। वे कहते हैं, मेरे रहने के लिए मोतियों से बना हुआ एक सुंदर भवन हो जिसमें हीरे-मोती जड़े हुए हों, कस्तूरी और चंदन जैसी सुगंधित वस्तुओं का उस पर लेप किया गया हो। पर ऐसा न हो कि मैं अपने आवास की इस अत्यंत समृद्ध स्थिति को देखकर प्रभु के नाम को ही भूल जाऊं। मैंने अपने गुरु से पूछकर भलीभांति समझ लिया है कि हरि के बिना यह जीव जलकर राख हो जाएगा। इस संसार में उस हरि के बिना कोई भी दूसरा स्थान नहीं है जो प्राप्त करने योग्य है। अर्थात् प्रभु परमात्मा ही मानव जीवन का परम आधार है।

मुख्य बात यह है कि गुरुनानक वाणी की पृष्ठभूमि में भारतीय दर्शन की परंपरा कार्यशील है। इसमें जीवन और यथार्थ के परम सत्य को केंद्र में रखा गया है जिसका परम प्रतीक ब्रह्म है।  दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि गुरुनानक वाणी में ब्रह्मजीव और जगत की व्याख्या को ही दार्शनिक सरोकार माना गया है। वैदिक साहित्य में ब्रह्म की परिभाषा-‘सर्वंखलुविदंब्रह्म’ और ‘सत्यमज्ञान अनंतं  ब्रह्म’ आदि महावाक्यों के माध्यम से की गई है। ब्रह्म सृष्टि का परम सत्य है और यही दृष्टामान संसार का कर्ता है। भारतीय सभ्यता के सबसे प्राचीन ज्ञान-ग्रंथ ऋग्वेद में ‘नासदीयसूक्त’ के अंतर्गत इसका सुंदर वर्णन किया गया है। इस सूक्तिका हिंदी में सरल अनुवाद है-

अस नहीं था तब, ना ही सत था,
अंबर नहीं था, ना ही पार फैला
हुआ महा-आकाश।
परदे में छिपा, क्या था और कहां, किसने थामा था उसे, तब तो अगम अगाध जल भी कहां था।
मृत्यु नहीं थी वहां, ना ही अमर जीवन,
रात नहीं थी और ना दिन के प्रकाश का संकेत कोई।
बिना हवा के सांस लेता हुआ,
अपने आप पर निर्भर, तब केवल एक था,
उसके सिवा कोई दूसरा नहीं था।
अंधेरा था वहां, अंधेरे से ढंका हुआ,
अंधकार था चारों तरफ।
था तो बस निराकार शून्य,
तपस की महा ऊर्जा से ऊपजा पुंज।
फिर, पहले पहल, कामना का हुआ उभार, मन का आदि-अनादि बीज।
अंतर की सूझ वाले मुनिजनों ने,
 समझ लिया था भलीभांति,
रिश्ता क्या है अस्तित्व का
अनस्तित्व के साथ।
फैला दिया उन्होंने सूत्र को,
महाशून्य के आरपार,
ऊपर वार और नीचे भी।
धारणीय महाशक्तियां तत्पर थीं वहां,
नीचे थी ऊष्मा, ऊपर असीम ऊर्जा।
कौन जानता है, कैसे उत्पन्न हआ यह संसार,
देवताओं का भी बाद में हुआ प्रादुर्भाव।
ना जाने रची गई, कब यह रचना, कौन है सृष्टिकर्ता, कर्ताअकर्ता?
अंतर्यामी कौन है, ऊंचे अंबर
वाली इस धरा का?
वही जानता है, जो है स्वामी इसका,
या फिर शायद वह भी नहीं जानता।
                         (ॠग्वेद129.10)

नासदीय सूक्त में वर्णित सृष्टि रचना की इसी रहस्यमय स्थिति के साथ रचनात्मक संवाद रचाते हुए गुरुनानक देव ने मारू राग में लिखा है-
अरबद नरबद धुंधूकारा॥
धर्राण न गगना हुकमु अपारा॥
ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु
सुंन समाधि लगाइदा॥१॥
खाणी न बाणी पउण न पाणी॥
ओपति खपति न आवणजाणी॥
खंड पताल सपत नही सागर
नदी न नीरु वहाइदा॥२॥    . . .
जा तिस भाणात जगतु उपाया।
बाझु कला आडाण रहाया।
ब्रह्मा बिसनु महे सुउ पाएमाइ
आमो हुवधा एंदा।
(गुरुग्रंथसाहिब, 1035)

इस तरह गुरुजी ने सृष्टि रचना से पूर्व की शून्य अवस्था का जो वर्णन किया है वह नासदीय सूक्त में वर्णित स्थिति के अनुरूप है। इसमें गुरु नानकदेव  जी ने अपनी ओर से कुछ नया जोड़ने का प्रयास भी किया है। उन्होंने सृष्टि रचना के कारण के रूप में प्रभु की इच्छा (भाणा) और त्रिदेव (ब्रह्मा विष्णु महेश) को शामिल किया है।  

ननकाना स्थित पत्ती साहिब गुरुद्वारा

ऋग्वेद की दार्शनिक शब्दावली में ‘सत्यम्’ और ‘ऋतं’ की अवधारणा बहुत महत्वशील है। सत्यम् सृष्टि रचना के परम यथार्थ की ओर संकेत करता है और ऋतं संपूर्ण ब्रह्मांड में कार्यशील विधान का द्योतक है। गुरु नानक वाणी में इन अवधारणाओं को  ‘सच’ और ‘हुक्म’ के हवाले से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के तौर पर गुरु नानकदेव जी की दार्शनिक रचना ‘जपुजी’ की निम्न पंक्तियां देखी जा सकती हैं-
आदि सचुजुगादिसचु, है भी सचु,
नानक हो सी भी सचु।…
किव सचिआरा होईए कि वकूड़ैतुटैपालि॥
हुकमिरजाईचलणानानकलिखिआनालि॥१॥
हुकमीहोवनिआकारहुकमुनकहिआजाई॥
हुकमीहोवनिजीअहुकमिमिलैवडिआई॥
हुकमीउतमुनीचुहुकमिलिखिदुखसुखपाईअहि॥
इकनाहुकमीबखसीसइकिहुकमीसदाभवाईअहि॥
हुकमैअंदरिसभुकोबाहरिहुकमनकोइ॥
नानकहुकमैजेबुझैतहउमैकहैनकोइ॥२॥
(गुरुग्रंथसाहिब, 1)

इन पंक्तियों में सत्यम् और ऋतं की अवधारणा को सच और हुकुम की अवधारणा के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है। इन अवधारणाओं का अर्थ वही है परंतु शब्दावली अलग है। यह शब्दावली लोकभाषा से ली गई है। इस तरह हमें गुरुनानक वाणी में भारतीय धार्मिक परंपरा की निरंतरता का आभास होता है। नानकदेव जी ने सृष्टि रचना को एक खेल कहा। इस सृष्टि के रचयिता ने अनेक रंगों और आकारों वाले इस संसार की रचना की है जिसकी तुलना किसी नाट्य-रचना के माध्यम से प्रस्तुत होने वाले कल्पनाशील यथार्थ से की जा सकती है। गुरु नानकवाणी की मुख्य विशेषता यह है कि इसकी रचना तो बेशक कविता या शायरी के रूप में हुई है परंतु यह शुद्ध काव्य रचना नहीं है।  इस बात का एहसास खुद नानकदेव जी को भी है। उन्होंने अपनी वाणी में इस ओर संकेत करते हुए कहा है-

गावहुगीतुनबिरहड़ानानकब्रहमबीचारो॥८॥३॥
गुरुजी कहते हैं कि यह जो मैं गा रहा हूं वह कोई गीत या बिरहडा (लोकगीत की एक वानगी) नहीं है। यह तो ब्रह्म-विचार है। दूसरे शब्दों में नानकदेव जी अपनी वाणी को ब्रह्म विचार करने वाली रचना अर्थात् दार्शनिक रचना के रूप में देखते हैं। इसका सरोकार जीवन के अंतिम अर्थों की तलाश से जुड़ा हुआ है।

उनका जीवन दर्शन एक ऐसी जीवनशैली की ओर संकेत करता है, जो आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है। गुरुजी की दृष्टि में एक आदर्श मानव वह है जो साहित्य, संगीत और कला की समझ रखता हुआ दार्शनिक दृष्टि में परिपक्व है-

इकिकहिजाणनिकहिआबुझनितेनरसुघड़सरूप॥
इकनानादुनबेदुनगीअरसुरसुकसुनजाणंति॥
इकनासिधिनबुधिनअकलिसरअखरकाभेउनलहं॥
नानकतेनरअसलिखरजिबिनुगुणगरबुकरंत॥१५॥
(गुरुग्रंथसाहिब,1246)

 गुरुजी कहते हैं कि संसार में दो ही तरह के व्यक्ति हैं। एक वह हैं जो कहना जानते हैं और कही हुई बात को बूझना भी जानते हैं। ऐसे व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान हैं। इनके अलावा दुनिया में दूसरे व्यक्ति भी हैं जिनको न तो नाद की समझ है और नावेद का ज्ञान है। वे कला और साहित्य के रसों से परिचित नहीं हैं। विवेक बुद्धि से कोरे होने के कारण वे अक्षर का भेद समझ सकने का सामर्थ्य नहीं रखते। ऐसे व्यक्ति तो असल में खर (पशु) हैं जो बिना गुणों के अभिमान में रहते हैं। इस तरह गुरुनानक की यह वाणी भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ रचनात्मक संवाद रचने वाली रचना के रूप में उजागर होती है।
(लेखक दिल्ली के माता सुन्दरी कॉलेज में पंजाबी विभाग के अध्यक्ष रहे हैं)

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