550 वर्ष पहले भेदभाव और आडम्बर के कारण भारतीय समाज कमजोर होकर विघटित हो रहा था। इसका फायदा उठाकर विदेशी आक्रांता भारतीय धर्म, संस्कृति को नष्ट कर रहे थे। उस समय श्रीगुरु नानक देव जी महाराज ने समाज को नई दिशा दिखाई। इसके लिए उन्होंने आमजन से ‘संवाद’ कर उसका मार्ग प्रशस्त किया
स. गुरचरन सिंह गिल
श्री गुरुनानक देव जी महाराज का अवतरण भारत के राजनैतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक जगत की एक महत्वपूर्ण घटना है। ऐसा नहीं है कि उस समय ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हुई थी, लेकिन ज्ञान में स्पष्टता कम थी और कर्मकाण्ड व अंधविश्वास को आधार बना कर दिए दिए जा रहे ज्ञान से लोगों का सही मार्गदर्शन नहीं हो पा रहा था। जोगी-जंगम, नाथ, सिद्ध और ब्राह्मण वर्ग धर्म का ज्ञान देने वाले माने जाते थे, लेकिन उनके ज्ञान से आमजन का स्पष्ट मागदर्शन नहीं हो पाता था। भाई गुरुदास जी ने इसकी कल्पना धुंध से की है। धुंध में अंधेरा नहीं होता, लेकिन प्रकाश भी अधिक नहीं होता। इस जगत का आभास तारों से भी होता है, पर स्पष्टता सूर्य के प्रकाश में ही आती है।
उस समय समाज अपनी प्राचीन परंपरा से प्राप्त सत्य को भूलकर, आत्मविस्मृत होकर दंभ, मिथ्याचार, स्वार्थ तथा भेदभाव के दलदल में फंसकर दुर्बल और विघटित हो रहा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर विदेशी आक्रांता भारतवर्ष की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट कर रहे थे, इसके बावजूद समाज अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संगठित नहीं हो रहा था। ऐसी परिस्थिति में श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने ज्ञान का मार्ग दिखाकर अध्यात्म के युगानुकूल आचरण से समाज के उत्थान व आत्मोद्धार का मार्ग प्रशस्त किया जिसके कारण भ्रमित भारतीय समाज को अपनी परंपराओं को परिशोधित करने तथा एकात्मता का मार्ग मिला। गुरु नानकदेव जी महाराज ने समाज को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए ‘संवाद’ का मार्ग अपनाया। इसके लिए उन्होंने फरमाया था-
जब लगु जोबनि सासु है तब लगु इहु तनु देह।
बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह॥
श्री गुरु नानकदेव जी महाराज ने अपने प्रारंभिक जीवन में चार यात्राएं कीं जो उदासी के नाम से जानी जाती है। पहली उदासी, भारतवर्ष की पूर्व दिशा की है, जिसमें उन्होंने भगवा चोला, सफेद कमरबंध, सिर पर नोकदार टोपी, गले में हड्डियों की माला तथा दोनों पैरो में अलग-अलग रंग-ढंग की जूतियां पहनीं व माथे पर केसर का टीका लगाया। ऐसा उन्होंने लोगों से संवाद करने के लिए, उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए किया। उनके स्वरूप को देखकर लोग स्वत: ही उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते थे।
करीब 12 वर्ष में उन्होंने कुरुक्षेत्र, पानीपत, हरिद्वार, पीलीभीत, गोरखमता, मथुरा, काशी, गया, पटना, कामरूप, ढाका एवं जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की यात्रा की। फिर जगन्नाथपुरी होते हुए रूहेलखंड के रास्ते वापस आए। इस यात्रा के दौरान उन्होंने सनातन हिंदू परंपरा के स्थानों से संपर्क किया और धर्म के नाम पर प्रचलित अंधविश्वास, कर्मकाण्ड पर सैद्धांतिक एवं तार्किक दृष्टिकोण बताते हुए समाज का मार्गदर्शन किया।
1567-72 तक दूसरी उदासी में श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने भारतवर्ष के लाहौर होते हुए दक्षिण की यात्रा की जिसमें सिरसा, धर्मकोट, भटनेर, भठिंडा बीकानेर, अजमेर होते हुए श्रीलंका तक गए। इस यात्रा में वह सूफी फकीरों, जैन व बौद्ध संतों से मिले।
तीसरी उदासी (1573 से 1575) में उन्होंने भारतवर्ष के उत्तर दिशा जम्मू-कश्मीर, मत्तन, मार्कण्ड, शिवालिक क्षेत्र होते हुए नेपाल, मानसरोवर, कैलाश पर्वत आदि की यात्राएं कीं तथा सिद्धों व जोगियों आदि से संवाद किया।
चौथी उदासी में वह नील वस्त्र पहनकर कच्छ में बस्ता लेकर निकले, जिसमें गुरु नानक जी के शब्दों का संग्रह था व दूसरे में मुसल्ला यानी दरी, एक हाथ में सोटा और दूसरे में लोटा यानी हाजियों जैसा स्वरूप था। इस यात्रा में वह शक्करपुर, रोहिताश, गाजी खां, मुल्तान आदि होते हुए मक्का-मदीना के अलावा, बहावलपुर, बगदाद, ईरान, कंधार व अफगानिस्तान आदि गए। उनकी चौथी यात्रा 1575 से 1579 तक चली। इन यात्राओं के अलावा, उन्होंने समय-समय पर पंजाब क्षेत्र का दौरा भी दौरा किया। अपने जीवन काल में उन्होंने करीब 45 हजार किलोमीटर की यात्रा की। इस दौरान इस क्षेत्र के सभी प्रमुख तत्कालीन नगरों की यात्रा की, जो विश्व के आध्यात्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक यात्राओं में क्षेत्रफल के हिसाब से एक अनछुआ मानदंड है। इस क्रम में वह सनातन धर्म, बौद्ध, जैन, इस्लाम तथा सूफी परंपरा के प्रमुखों से मिले एवं उनके साथ संवाद किया।
वैसे तो महापुरुषों के जीवन का प्रत्येक पल एक दिशादर्शन कराता है। कुछ मार्गदर्शन समकालीन तथा तत्कालीन परिस्थितियों के अनुक्रम में होते हैं। कुछ मार्गदर्शन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाश स्तंभ बनकर सदैव हमारा मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे अनेक आयामों में से कुछ की चर्चा हम यहां करने वाले हैं।
राष्ट्रीय चेतना- भारतीय समाज, जो विदेशी आक्रांताओं के दमन एवं सामाजिक भेदभाव के कारण आत्मसम्मान खो चुका था, को श्रीगुरु नानक देव जी महाराज ने जाग्रत करते हुए कहा कि यदि मनुष्य की इज्जत चली जाती है तो उसका खाना-पीना, ऐशो-आराम सब बेकार है।
इसी संदर्भ में उन्होंने भारत के अध्यात्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए खुरासान के आक्रांता बाबर को ‘यमदूत’ की संज्ञा दी। उसके अत्याचारों का वृहद् विश्लेषण करते हुए उन्होंने न केवल बाबर को चुनौती, बल्कि परमात्मा को भी उलाहना दिया कि ‘‘हे प्रभु, यदि शक्तिशाली किसी शक्तिशाली को मारता तो मेरे मन में कोई रोष न होता, लेकिन गायों के बाड़े में शेर घुस आए तो बाड़े के मालिक का भी तो कुछ दायित्व बनता है।’’ परमात्मा के प्रति यह उनका रोष तो हो सकता था, लेकिन उन्होंने ऐसा शायद इसलिए कहा होगा कि भारतीय समाज में हर अन्याय को परमात्मा की मर्जी समझकर चुपचाप रहने का जैसे रिवाज बन गया था।
उन्होंने अपनी वाणी में हिंदुस्थान का प्रयोग किया है। बाबर ने जब शैदपुर पर आक्रमण किया, उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों-रजवाड़ों में बंटा हुआ था। राजनैतिक रूप से भले ही भारत का कोई संघीय स्वरूप नहीं था, लेकिन आध्यात्मिक व सांस्कृतिक रूप से यह एक था। इसीलिए उन्होंने इसे हिंदुस्थान यानी हिंदुओं का स्थान से संबोधित किया है। इस प्रकार श्रीगुरु नानक देव जी महाराज ने बाबर के जुल्म के विरुद्ध भारत के लोगों में राष्टÑीय चेतना जगाई।
आर्थिक समझ-श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने सारी सृष्टि को परमात्मा का स्वरूप मानते हुए किसी भी जीव के शोषण को पूर्णतया नकारते हुए मनुष्य के मन में दयाभाव उत्पन्न हो सके, ऐसा मार्गदर्शन किया। उन्होंने फरमाया-
सुणिऐ अठसठि का इसनानु। सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु॥
सुणिऐ लागै सहजि धिआनु। नानक भगता सदा विगासु॥
श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने शोषण से मुक्त अपने पुरुषार्थ से जीविका उपार्जन करने का संदेश दिया। उन्होंने फरमाया कि यह माया पाप के बिना इकट्ठी नहीं होती, लेकिन मरने पर यह साथ नहीं जाती है। परमात्मा का स्मरण करते हुए पुरुषार्थ से कमाए हुए धन को जरूरतमंद लोगों में बांटकर उसका उपभोग करना चाहिए।
उनके जीवन की सच्चे सौदे वाली घटना, जिसमें भूखों को तृप्त कराना ही सच्चा व्यापार बताया। चालीस गज माया जोड़कर जनता को धनहीन करने वाले राजा कारू से उन्होंने कहा कि मेरी सूई रख लो। अगले जन्म में दे देना। इस पर उसने कहा कि महाराज, अगले जन्म में यह सूई कैसे साथ जाएगी? तब उन्होंने फरमाया कि फिर तेरा चालीस गज पैसा किस काम का जो साथ नहीं जाएगा, इसलिए इसे उन्हीं में बांट दो यानी परमार्थ करो, जिनसे तुमने कमाया है। आज धन के पीछे अंधाधुंध भागने वालों के लिए यह सटीक सटीक मार्गदर्शन है। गुरुजी ने फरेब से धन कमाने वाले ठग, जो भद्र वेश धारण कर लोगों की सेवा संभाल का ढोंग करता था, लेकिन रात में उन्हें लूटता था, को भी उन्होंने सही मार्ग दिखाया तथा भूमिया चोर को भी गुरुजी ने अद्भुत तरीके से समझाया।
धार्मिक आडम्बर- उस समय धर्म के नाम पर समाज में कुरीतियां एवं अंधविश्वास अधिक था, क्योंकि लोग धर्म के मूल तत्व से काफी दूर थे। लाहौर का सेठ दुनीचंद, जिसने लोगों का शोषण कर अपार धन अर्जित किया था, श्राद्ध के समय अपने पितरों के नाम पर ब्राह्मणों को धन संपदा दान दे रहा था। गुरु नानक जी ने सेठ को समझाया कि जिस पिता के नाम पर इतना धन लुटा रहे हो, वे तो जंगलों में कहीं भटक रहे हैं। यह धन भूखे-गरीबों को दान करो, उन्हें भोजन कराओ। यह स्वभाव श्राद्ध आदि किसी विशेष अवसर के लिए नहीं, बल्कि जीवन का एक सहज स्वभाव होना चाहिए। उस समय देवभूमि के मुहाने पर स्थित पवित्र हरिद्वार आत्मसाधना के स्थान पर अपने पितरों को जल चढ़ाने तथा पंडों के माध्यम से उन्हें तर्पण देने का स्थान बनकर रह गया था।
एक बार जब नानकदेव महाराज ने गंगाजी में खड़े होकर पश्चिम दिशा में जल देने लगे तो पंडों ने कहा कि उल्टा क्रम क्यों कर रहे हो? इस पर उन्होंने कहा कि मेरे खेत सूख रहे हैं। उनको पानी दे रहा हूंं। जब पंडों ने कहा कि ऐसा करने से सैकड़ों मील दूर खेतों तक पानी कैसे पहुंच जाएगा? तब गुरु महाराज महाराज ने फरमाया, ‘‘फिर करोड़ों मिल दूर सूर्य तक भी जल कैसे पहुंच सकता है? अज्ञात स्थान पर विराजे हमारे पितरों तक भोजन या तर्पण कैसे पहुंच सकता है?’’
इसी प्रकार, श्रीजगन्नाथपुरी के मंदिर को केवल आरती का स्थान बनाकर रख दिया गया था तो श्रीगुरुजी महाराज ने कहा कि किसी मूर्ति की आरती करने मात्र से ही भगवान की पूजा नहीं हो जाती है। भगवान की पूजा तो स्वत: प्रकृति कर रही है। यह बात उन्होंने इस शबद से समझायी-
एक बार किसी विद्वान ने रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित राष्ट्रगान जन-गण-मन के बारे में चर्चा करते हुए यह कहा कि आपने भारत के लिए जैसा राष्टÑगान लिखा है, सारी सृष्टि के लिए भी ऐसा राष्टÑगान लिखें तो उन्होंने कहा कि ऐसा राष्टÑगान श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज सदियों पहले लिख गए हैं। ऐसा कहते हुए उन्होंने उपरोक्त शबद का हवाला दिया।
श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने मजहबी आडम्बर पर मक्का जाकर मौलवियों का भी मार्गदर्शन किया। इस्लाम में एक ओर मूर्ति पूजा का विरोध किया जाता था, लेकिन दूसरी ओर काबा को एक मूर्ति की तरह ही पूजा जाता था। इसलिए श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज जब काबा की तरफ पैर करके सो गए तो एक मौलवी ने कहा कि आपने अल्लाह के घर की तरफ पैर क्यों किए तो उन्होंने कहा कि जिधर अल्लाह नहीं है, मेरे पैर उधर कर दो।
इस प्रकार, गुरुजी ने धर्म-मजहब के मर्म को समझ कर सहज जीवन जीने का उपदेश दिया।
अद्वैत का सिद्धांत- भारतीय अध्यात्म परंपरा के स्थान पर उन्होंने ईश्वर और जीवन अथवा ईश्वर व माया के द्वैत सिद्धांत के स्थान पर परमात्मा के एक होने यानी अद्वैत के विचार को सुदृढ़ किया। उनके ‘एक’ में यह सारी सृष्टि भी समाहित थी। यह इस्लाम के एक ईश्वर सिद्धांत से यह मत भिन्न है। एक ईश्वर सिद्धांत से परमात्मा की रचना यानी सृष्टि के प्रति कोई प्रेम पैदा नहीं होता और हिंसा जन्म लेती है, जबकि अद्वैत सिद्धांत में सभी जीव परमात्मा का ही अंश है। इसलिए समभाव यानी सभी को एक साथ बांधना और एक साथ सह अस्तित्व के साथ जीवन जीने का मार्गदर्शन मिलता है तथा वसुधैव कुटुम्बकम् यानी समस्त पृथ्वी परिवार है का सिद्धांत सुदृढ़ होता है। श्रीगुरुजी महाराज ने अच्छे-बुरे और गरीब-अमीर सभी जीवों को भी परमात्मा का अंश तथा इस आधार पर भाईचारे का सिद्धांत दिया है।
इस प्रकार श्रीगुरुजी महाराज के बताए रास्ते पर प्रत्येक आयु और वर्ग के लोगों तक सहज रूप से, उनके द्वारा जीवन में स्वयं के अनुभव से दर्शाए गए मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने का व्यक्तिगत व सामूहिक प्रयास करना चाहिए।
(लेखक राष्ट्रीय सिख संगत के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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