दक्षिणा पुजारी का कानूनी अधिकार है

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विगत दिवस समाचार पत्र में किसी मंदिर में एक गरीब वृद्ध पुजारी जी द्वारा दक्षिणा ग्रहण करते हुए फ़ोटो को "चोरी करते हुए" निरूपित कर प्रकाशित किया गया। ब्राह्मण निशाने पर क्यों है ?

 

डॉ विश्वास चौहान 

भारत सहित विश्व में हिंदू पुजारी, पंडित, ब्राह्मण, पुरोहित वर्ग कुछ वामपंथी तथा कट्टर जेहादी और मतांतरण में लगी कुछ विदेशी धन पोषित ईसाई मिशनरियों के निशाने पर हैं। इसका कारण यह है कि हिंदुत्व के संरक्षण, संवर्धन कर उनकी परम्परा मूल्य तथा पूजन पद्धति में पूज्य ब्राह्मण वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका है। ब्राह्मण वर्ग हिंदू संस्कृति का संवाहक और पोषक वर्ग है और देश तोड़ने वाली विधर्मी विदेशी ताकतें "हिंदुत्व" को अपने मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा मानती हैं। इसलिए भारतीय फिल्मों, समाचार पत्रों, नाटकों, साहित्य में पुजारी वर्ग को अपमानित ,कलंकित करने और दुराचारी के रूप में निरूपित करने के प्रयास जान-बूझकर किये जाते हैं ।

दक्षिणा पुजारी का धार्मिक अधिकार
 
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार वास्तव में दक्षिणा पुजारी का धार्मिक अधिकार एवं देने वाले का धार्मिक कर्तव्य है। क्योंकि सृष्टि के प्रारंभिक समय से ही मनुष्य के हित के लिये तीन मार्ग प्रशस्त हैं। उन्हें ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग कहते हैं। कर्ममार्ग के विधान का मूल स्रोत वेद हैं। प्रत्येक कर्म के लिये अलग-अलग विधियां कही हैं। वेद के छह अंगों में से कल्प के द्वारा ये विधियां नियमित हैं। इन विधियों की जानकारी श्रोतसूत्र, गृह्यसूत्र और शुल्बसूत्र प्रभृति ग्रंथों के द्वारा की जा सकती है। श्रोतसूत्र के द्वारा किए जानेवाले कर्म श्रोत एवं गृह्यसूत्र के द्वारा होनेवाले कर्म स्मार्त हैं। संस्कारों का विधान भी गृह्य सूत्रों का अनुसरण करता है। हिन्दुओ में उक्त समस्त विधानों में पुरोहित की अपेक्षा होती है। विधि के अनुकूल किए हुए अनुष्ठानों से ही ऐहिक एवं आमुष्मिक फल की प्राप्ति कही गई है। यहां संस्कार से शुद्धि की धार्मिक क्रिया एवं व्यक्ति के दैहिक और बौधिक आध्यात्मिक परिष्कार के निमित्त प्रमुख संस्कारों से तात्पर्य है।

इन संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं : गर्भाधान, पुसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। इन संस्कारों का कराना पुरोहित का ही काम है। उक्त संस्कारों एवं अन्य पूजन पाठ इत्यादि में पुरोहितों एवं गुरुओं को दक्षिणा देने की परंपरा हिन्दू समाज मे अनादि काल से प्रमुख रूप से प्रचलित है।

दक्षिणा का उल्लेख विभिन्न हिन्दू ग्रन्थों में :

प्रसिद्ध ग्रन्थ रघुवंश, पण्चम्, (पृष्ठ 20-30 पर) में कालिदास ने कौत्स की अपने गुरु वरतंतु को दक्षिणा देने के संबंध की जो कथा दी है, उससे दक्षिणा के पीछे की सारी मान्यताओं का स्पष्ट बोध हो जाता है। हिन्दू ग्रंथो में तो यहां तक उल्लेखित है कि यदि गरीब शिष्य गुरु की दक्षिणा स्वयं न दे सके तो राजा से उसे पाने का उसको अधिकार था और पंडित या पुजारी को किसी भी दशा में दक्षिणा से वंचित नहीं किया जा सकता था। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, वास्तव में कोई भी पूजा, अनुष्ठान, अभिषेक या यज्ञ बिना दक्षिणा के पूर्ण नहीं होता और पुजारी या पुरोहित को दक्षिणा दिए बिना उसका कोई भी फल यजमान को प्राप्त नहीं होता। इसीलिए हिन्दू शास्त्रों में कठोरता से कहा गया है कि यज्ञ पूर्ण होने के बाद ब्राह्मण और पुरोहित को तुरंत दक्षिणा दी जाय और उसे किसी भी अवस्था में बाकी न लगाया जाय। दक्षिणा बाकी लगने पर वह समय के अनुपात से बढ़ती भी जाती है।

प्रसिद्ध ग्रन्थ  " ब्रह्मवै., प्रकृति " के 42वें अध्याय के अनुसार, दक्षिणा न देनेवाला ब्रह्मस्वापहारी, अशुचि, दरिद्र, पातकी, व्याधियुक्त तथा अन्य अनेक कष्टों से ग्रस्त हो जाता है, उसकी लक्ष्मी चली जाती है, पितर उसका पिंड नहीं स्वीकार करते और उसकी कई पीढ़ियों, आगे तथा पीछे उसके परिवारिकों को अधोगति मिलती है।

दक्षिणा के सम्बंध में उल्लेखित इन विधानों और समाज मे व्याप्त परम्परा की उत्पत्ति के पीछे एक प्रधान कारण था कि यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों को करानेवाला जो ब्राह्मणों और पुरोहितों का वर्ग था उसके जीविकोपार्जन का साधन धीरे-धीरे दक्षिणाएं ही बच रहीं और वे ही जीवन यापन के लिए उनका शुल्क तथा वृत्ति बन गईं, जिन्हें कोई बाकी नहीं रख सकता था। हिन्दू ग्रन्थों में उल्लेखित है कि दक्षिणा यज्ञ की पत्नी है अतः किसी भी अनुष्ठान के बाद दक्षिणा देने का विधान है।

दान और दक्षिणा में अंतर 

कुछ लोग दक्षिणा और दान में अन्तर नहीं समझते और वे कहते हैं कि दक्षिणा जो भी दी जाए उसे स्वीकार कर लेना चाहिए जबकि ये बात दान के विषय में सार्थक है। दान व्यक्ति जो अपनी श्रद्धा अनुसार करे उसे स्वीकार करना चाहिए परंतु दक्षिणा किसी श्रेष्ठ (गुरु, विद्वान, आचार्य, अथवा ज्योतिषी) व्यक्ति के किए गए कर्म का पारिश्रमिक होता है जो उसके कृत्य के अनुसार उतनी देना ही चाहिए जिससे वह संतुष्ट हो। साधारण शब्दों में दक्षिणा ईश्वर को धन्यवाद के रूप में पुरोहित को दिया जाता है। मार्कं., अध्याय 7-8; हिस्ट्री ऑव कोशल, विशुद्धानंद पाठक, पृष्ठ 137-8 के अनुसार यज्ञ की दक्षिणा न चुकानेवाले राजा हरिश्चंद्र को विश्वामित्र ने जो पहले उनके पुरोहित रह चुके थे, किस प्रकार दंडित किया यह कथा पुराणों में मिलती है। ये दक्षिणाएं आज भी भारतीय जीवन में हिन्दुओ के धार्मिक कृत्यों, यज्ञों और पूजाओं, श्राद्धों और सांस्कारिक अवसरों के प्रधान अंग है। 

दक्षिणा के प्रकार

दक्षिणा स्वर्ण, रजत, सिक्कों, अन्न, वस्त्र आदि अनेक रूपों में दी जाती है और यजमान की श्रद्धा तथा वित्तीय स्थिति के अनुसार घटती-बढ़ती भी रहती है। वृत्ति होते हुए भी उसका मान कभी निश्चित किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ब्रह्मवै., प्रकृति., 42वें अध्याय के अनुसार दक्षिणा के संबंध में धार्मिक भाव उत्पन्न करने के सिलसिले में ही दक्षिणा को यज्ञ पुरुष की स्त्री के रूप की देवकथा का विकास हुआ और उसे भी एक देवी माना गया। वास्तव में दक्षिणा हिन्दू संस्कारो का भाग है, इसलिए पुजारी जी का कानूनी अधिकार है  

पुजारी को दक्षिणा से वंचित करना गैरकानूनी
पूज्य पुजारी जी द्वारा दक्षिणा ग्रहण करते हुए का फोटो, जान-बूझकर, साशय हिन्दू धर्म का अपमान करने लिए समाचार पत्र में चोरी के रूप में निरूपित करके छापने वाले समाचार पत्र एवं इस समाचार के आधार पर पूज्य पुजारी जी पर कार्यवाही करने वाले शासकीय अधिकारी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 295 A ,153 एवम 499 के अंतर्गत कार्यवाही कर जेल भेजना चाहिए। शासन को अपने अधिकारियों को पत्र जारी कर सभी मंदिरों में पूजा उपरांत दक्षिणा को पुजारी जी का अधिकार घोषित करने के लिखित निर्देश जारी करना चाहिए। किसी भी दान पर सिर्फ उसी मंदिर का और मंदिर में की जाने वाली पूजा, अनुष्ठान में प्राप्त होने वाली दक्षिणा पर व्यक्तिगत रूप से पूज्य पुजारियों का अधिकार होना चाहिए न कि सरकार का।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने श्री एएस नारायण दीक्षितुलु बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में  दिनांक 19 मार्च 1996 को निर्णय देते हुए टिप्पणी की है कि " भृगु क्रियाधिकारी  के अनुसार वैखानस शास्त्र में निर्देश दिया गया है कि वैदिक विद्या में पारंगत, धार्मिक अनुनय, ज्ञान पिपासु, कोमल हृदय तथा इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला पुजारी जो भगवान की पूजा कराता है, उसे दक्षिणा प्रदान की जानी चाहिए। उस धन से वह पुजारी अपने और परिवार का भरण-पोषण कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में उल्लेखित किया है कि मंदिर के दान या चढ़ावे की कमाई को तीन बराबर भागों में बांटने का आदेश शास्त्र में दिया गया है, जिसमें स्वयं के भरण-पोषण के लिए 2/3 हिस्सा अपने और परिवार के लिए तथा एक तिहाई हिस्सा धार्मिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए।

इसी प्रकार एक अन्य केस है। मप्र राज्य एवं अन्य बनाम पुजारी उत्थान एवम कल्याण समिति एवं अन्य  SLP (CIVIL) NO. 33675 OF 2017) के मामले में 7 सितम्बर 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने यद्यपि पुजारी को मंदिर की भूमि का स्वामी भले ही न माना हो लेकिन मंदिर के प्रबंधन एवं स्वयं और परिवार के भरण-पोषण के लिए दक्षिणा प्राप्त करने से मना नहीं किया है। न्यायालय ने इस परम्परा को स्वीकार करते हुए अपने निर्णय में उल्लेख किया है।

क्या कहता है संविधान
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। उक्त प्रावधान में हिन्दू धर्म के अनुसार आचरण के अंतर्गत धार्मिक पूजा, परंपरा, समारोह करने और अपनी आस्था तथा विचारों के प्रदर्शन की स्वतंत्रता सहित पूजा-पाठ और दक्षिणा भी आती है। इसी प्रकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक कार्यों के प्रबन्धन का भी हिन्दू पुजारियों को अधिकार है। इसके अंतर्गत चल और अचल संपत्ति के अर्जन तथा स्वामित्व का अधिकार तथा ऐसी संपत्ति का कानून के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार हिन्दू समाज को भी है।

(लेखक प्राध्यापक विधि और मध्य प्रदेश निजी विश्वविद्यालय विनियामक आयोग भोपाल के प्रशासनिक सदस्य हैं) 

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