पंजाब में ताजा राजनीतिक उठापटक भारतीय राजनीति के नए समीकरण गढ़ेगी या सिर्फ एक प्रान्त तक सीमित रहेगी? यह तो कैप्टन अमरिन्दर सिंह थे जो पार्टी और परिवार के प्रति निष्ठा और समर्पण के कारण धैर्य का परिचय देते रहे वरना उपेक्षा और अपमान के छींटों से अलगाव का घड़ा तो कब का भर चुका था!
अब ढहती कांग्रेस को उसके पारम्परिक गढ़ गिने जाने वाले प्रान्त में कद्दावर सेनापति की चुनौती के निहितार्थ गहरे हैं।
पंजाब की राजनीति में आम आदमी पार्टी की 'लॉलीपॉप पॉलिटिक्स' की नई दस्तक को किनारे रख दें तो अखाड़े में तीन गंभीर खिलाड़ियों को गिना जाना चाहिए।
पहला – शिरोमणि अकाली दल, जो अपनी पंथिक पहचान और बादल कुनबे की पुरानी मजबूत पकड़ के कारण पंजाब की राजनीति में हमेशा एक पक्ष रहा है।
दूसरी- कांग्रेस, जो वहां क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के पहले से है। और जिसका एक तय, बंधा वोटबैंक यहां लगाातार रहा है।
और तीसरी –भाजपा। जो अबतक राष्ट्रीय स्तर की पहचान और नेतृत्व होने के बाद भी राज्य में गठबंधन धर्म निभाते हुए झुककर चल रही थी। दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पंजाब में सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर भाजपा ने क्षेत्रीय विस्तार के संकल्प को जता दिया है।
पंजाब की राजनीति का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि तीन प्रमुख दलों में से दो ऐसे हैं जिनके बारे में विश्लेषक मानते हैं कि बेटों ने परिवार केंद्रित दल और राजनीति का आधार बिगाड़ा है। एक, राहुल गांधी, जिनका रवैया अड़ियल न होता और हल्के अप्रभावी नेताओं को वरिष्ठ समर्पित नेताओं पर वरीयता देने की उनकी जिद न होती तो पंजाब कांग्रेस में बिखराव का ऐसा विस्फोट ना होता।
दूसरे, सुखबीर सिंह बादल, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि 'बड़े बादल' के कमान छोड़ने के बाद से भ्रष्टाचार के आरोप, मनमानी और पुराने नेताओं के साथ समीकरणों को बिगाड़कर रखने से दल के लिए दलदल बढ़ी है।
ऐसे में यह कहने की जरूरत नहीं कि तीसरा कोण कैप्टन अमरिन्दर मजबूत करेंगे। निश्चित ही अमरिन्दर सिंह की शक्ति अभी इतनी नहीं लगती कि वे अपने बूते पूरे राजनीतिक समीकरण का कायापलट कर दें। मगर जो तीसरा कोण उभर रहा है जहां कांग्रेस से भी छिटकाव है और शिरोमणि अकाली दल से भी, उस तीसरे कोण को मजबूत करने का काम कैप्टन करेंगे।
इसलिए दलों की राजनीति के अतिरिक्त पंजाब में अमरिंदर सिंह होने के अर्थ को समझना ज्यादा आवश्यक है।
वे सैनिक हैं – कैप्टन उनके नाम के साथ लगा तमगा है।
सिक्ख रेजिमेंट के कैप्टन के नाते वर्ष 1965 में भारत- पाक युद्ध में योगदान की उनकी पृष्ठभूमि है।
वे सिख हैं -और यह नहीं भूलना चाहिए कि सूबे की राजनीति में हुए ताजा बदल के समय कांग्रेस नेतृत्व ने भी कहा था कि अमरिंदर के विकल्प में भी उसे कोई केशधारी सिख ही चाहिए। यानी कि सूबे में पंथिक पहचान की ताकत कैप्टन के पास ही है।
तिस पर वे जट्ट सिख हैं – यानी जाट और सिख का समीकरण साधती पहचान। क्या आप जानते हैं इस समय अखिल भारतीय जाट महासभा का अध्यक्ष कौन है? अमरिंदर सिंह।
देखना यह होगा कि कांग्रेस से किनारा करने के अमरिन्दर के निर्णय का असर क्या हरियाणा और उससे परे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक भी होगा? यह तथ्य है कि कथित किसान आंदोलन की बात करने वाले ‘आन्दोलनजीवी’ भी अमरिन्दर के खिलाफ कोई कड़ी या कड़वी बात कहने का साहस अबतक नहीं जुटा पाए हैं क्योंकि उनके जनाधार को वे लोग भी जानते हैं। उनकी अन्य विशेषता यह भी है कि वे खरी बात कहते हैं, डरते नहीं हैं और किसी की कृपा पर आश्रित नहीं हैं। यानी बैसाखी पर नहीं, बल्कि अपने पैरों पर मजबूती से खड़े नेता हैं।
अमरिंदर सिंह प्रकरण के बाद कांग्रेस के लिए यह कहना उचित होगा कि राहुल गांधी ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है। मगर राहुल होने का अर्थ यह है कि अपने पांव पर कुल्हाड़ी एक बार नहीं, बल्कि बार-बार मारी जा सकती है। और उनके पास ऐसी 'कॉमरेड कोटरी' है जो पांव पर कुल्हाड़ी मारने को भी उनकी रणनीति बता सकती है।
हेमंत बिस्वसरमा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद और अब अमरिन्दर सिंह के उदाहरण बताते हैं कि कांग्रेस की डाल को काटने का राहुल का खेल जारी है।
देखना यह है कि पंजाब में सियासत की जो नई पटकथा लिखी जा रही है, उसका व्याप सिर्फ सूबे तक रहेगा या वहां से राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव पैदा करने वाली तरंगें निकलेंगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब, सब उस कहानी के कहे जाने का व्यग्रता से इंतजार कर रहे हैं।
@hiteshshankar
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