भारत में जितने भी त्योहार हैं, उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है दीपावली। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय:' और ‘अप्प दीपो भव’ के दिव्य मंत्रों को आधार देने वाले इस पर्व के उल्लासमय क्रियाकलाप समाज को सकारात्मक दिशाबोध देते हैं। श्रेष्ठ जीवनमूल्यों एवं आदर्शों के प्रति संकल्पित होने के इस महापर्व में मानवीय काया का बुनियादी सच समाया हुआ है। धन्वंतरि जयंती (त्रयोदशी) से शुरू होकर भाईदूज (यम द्वितीया) पर संपन्न होने वाले दीपोत्सव की इस पांच दिवसीय पर्व श्रंखला में सनातन संस्कृति के अनेक शिक्षाप्रद सूत्र निहित हैं। त्रयोदशी को आयुर्वेद के जनक आचार्य धन्वंतरि की जयंती मनायी जाती है, जिनकी उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख पुरा साहित्य में मिलता है।
आचार्य धन्वंतरि के स्वास्थ्य दर्शन के मुताबिक मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आप में एक संसार है। वह कहते हैं कि प्रकृति के साथ तदाकार हुए बिना हम कभी स्वस्थ नहीं रह सकते। उनका आयुर्वेद ज्ञान जीवन के लिए हितकारी और अहितकारी, जीवन जीने की शैली, रोगों से बचाव के तरीके और रोगों के उपचार के उपायों का विस्तृत ज्ञान कराता है। हमारी ऋषि मनीषा की मेधा के आगे अत्याधुनिक विज्ञान भी बौना है। नरक चतुर्दशी (रूप चौदस) तिथि को सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तिल या सरसों का तेल लगाकर स्नान करने की परम्परा है। चूंकि यह समय मौसम बदलने का होता है, इसलिए ऋषियों ने यह विधान बनाया और इसे धर्मनिष्ठा से जोड़ दिया ताकि सभी लोग इन परम्पराओं का पालन कर स्वस्थ रहें। ऋषियों ने युक्तिसंगत तरीके से यह कहकर इस नियम को प्रचारित किया कि जो मनुष्य इस दिन सूर्योदय के पश्चात स्नान करेगा उसके वर्षभर के शुभ कार्यफल नष्ट हो जाएंगे, जबकि इस परम्परा का पालन करने वाले के वर्षभर के पाप नष्ट हो जाएंगे। महानिशा को दीप प्रज्वलन के साथ लक्ष्मी व गणेश के संयुक्त पूजन के पीछे मूलतः समृद्धि एवं सदबुद्धि दोनों की आराधना के साथ श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना का दिव्य भाव निहित है। कारण कि सदबुद्धि के अभाव में समृद्धि हितकारी नहीं हो सकती और विपुल बुद्धि भी धनाभाव के कारण मंद पड़ जाती है। दीपावली के बाद प्रतिपदा को गौमाता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए गोवर्धन पूजा की जाती है और यम द्वितीया को बहनें अपने भाई की स्वस्थ व दीर्घ जीवन की कामना के साथ उसके मस्तक पर मंगल तिलक लगाकर इस पांच दिवसीय दीपोत्सव को संपन्न करती हैं।
दीप पर्व की विविध परम्पराएं
दीपावली का पांच दिवसीय महापर्व समूचे भारत में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस दौरान नए वस्त्र-आभूषण और बर्तनों की खरीद, रंगोली, दीपमालिका, लक्ष्मी-गणेश का पूजन और पकवानों के साथ आतिशबाजी की परम्परा सभी राज्यों में प्रचलित है। स्थानीय विविधता दीपोत्सव की इन परम्पराओं के सौंदर्य को बहुगुणित कर देती हैं। जहां एक ओर उत्तर भारत में आने वाले जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में दीपावली का पर्व मूलतः श्रीराम की अयोध्या वापसी की खुशी में दीपमालिका सजाकर और आतिशबाजी करके मनाया जाता है। घरों के मुख्य द्वार पर बंधनवार और रंगोली सजायी जाती है तथा पारंपरिक व्यंजन और मिठाइयां बनती हैं और लोग नए वस्त्र-आभूषण पहनकर एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। वहीं दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, लक्षद्वीप और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में दीपावली का पर्व दो ही दिन का होता है। पहला अश्विजा कृष्ण और दूसरा बाली पदयमी जिसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है। उसे यहां अश्विजा कृष्ण चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन लोग तेल स्नान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने नरकासुर को मारने के बाद अपने शरीर से रक्त के धब्बों को मिटाने के लिए तेल से स्नान किया था। बाली पदयमी के दिन महिलाएं रंगोलियां बनाती हैं और गाय के गोबर से घरों को लीपती भी हैं।
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण
दक्षिण में दीवाली से जुड़ी एक अनोखी परंपरा है 'थलाई दिवाली'। इस परंपरा के अनुसार नवविवाहित जोड़ा दीवाली मनाने के लिए लड़की के घर जाता है और घर के बड़े लोगों का आशीर्वाद लेता है। फिर वे दोनों शगुन का एक पटाखा जलाते हैं और मंदिर जाते हैं। आंध्र में दीवाली पर संगीतमय हरिकथा में नरकासुरवध का बखान किया जाता है। दीपावली के दिन प. बंगाल, असम, मणिपुर, नगालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल, सिक्किम और मिजोरम उत्तर-पूर्वी राज्यों में काली पूजा का खासा महत्व है। दीपावली की मध्य रात्रि तंत्र साधना के लिए सबसे उपर्युक्त मानी जाती है, इसलिए तंत्र को मानने वाले इस दिन कई तरह की साधनाएं करते हैं। मध्यभारत में दीपावली पर रंगोली की जगह ‘मांडना’ बनाने की परंपरा प्रचलित है। पूर्वी भारत की बात करें तो पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार एवं झारखंड राज्यों में महानिशा पर विशेष रूप से महिषासुर मर्दिनी महाकाली की पूजा-अर्चना की जाती है तथा पारंपरिक नृत्य को भी काफी महत्व दिया जाता है। पश्चिम भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव की दीपावली की परम्पराएं कम रोचक नहीं हैं। गुजरात में दीपावली नए साल के रूप में भी मनायी जाती है। यह राज्य व्यापारियों का गढ़ माना जाता है, इसलिए यहां लक्ष्मी पूजा धूमधाम से की जाती है। गुजराती इस दिन नया उद्योग, संपत्ति की खरीद, कार्यालय व दुकान खोलना बहुत शुभ मानते हैं। महाराष्ट्र में दीपावली का त्योहार चार दिनों तक चलता है। पहले दिन ‘वसुर बरस’ मनाया जाता है। इस दौरान गाय और बछड़े का पूजन किया जाता है और धनतेरस पर व्यापारिक लोग अपने बही-खाते का पूजन करते हैं। इसके बाद नरक चतुर्दशी पर सूर्योदय से पहले उबटन कर स्नान करने की परंपरा है। चौथे दिन माता लक्ष्मी के पूजन के पहले करंजी, चकली, लड्डू, सेव आदि पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं। समुद्री तट पर बसे गोवावासियों की दीपावली भी देखने लायक होती है। पारंपरिक व्यंजनों और नृत्य और गान के साथ मनायी जाने वाली यहां की दीपावली पर रंगोली बनाने का खासा महत्व है।
अनेक देशों में मनायी जाती है दीपावली
रामायण में श्रीलंका में दीपावली मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। श्रीलंका में रहने वाला तमिल समुदाय दीपावली का त्योहार बहुत धूमधाम से मनाता है। वे अपने घरों को दीये से सजाते हैं, देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं और मिठाइयों का आनंद लेते हैं। नेपाल में भी दीपावली धूमधाम से मनायी जाती है। यह नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है जो भारत की तरह पांच दिन का होता है। लोग दीयों से घर सजाते हैं और जमकर आतिशबाजी करते हैं। माँ लक्ष्मी की पूजा करते हैं और एक-दूसरे को मिठाइयां देते हैं। यहां खासतौर पर कौए, कुत्ते और गायों की पूजा की जाती है। पांचवें दिन भाईदूज के दिन बहनें अपने भाइयों को तिलक लगाती हैं। बांग्लादेश में इस पर्व पर कालीपूजा की धूम रहती है। इंडोनेशिया के बाली द्वीप में देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है। मलेशिया में दीपावली के दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। इस दिन यहां लोग तेल लगा कर स्नान करने के बाद मंदिरों में जाकर पूजा करते हैं और अपने घरों और गलियों को दीयों से रोशन करते हैं। इसी तरह फिजी में बड़ी संख्या में रहने वाले भारतीय मूल के लोग घरों में दीये और मोमबत्ती जलाकर दीवाली बहुत उल्लास के साथ मनाते हैं।
इतिहास के पन्नों में दीप पर्व
दीपावली का उल्लेख उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) में मिलता है। उस काल में शरदकाल (वर्तमान में दिवाली का समय) में दीपक को किसी ऊंचे बांस पर टांग दिया जाता था। इसके अनुसार श्राद्ध पक्ष के बाद जब पूर्वज अपने लोकों की ओर लौटते हैं तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए ऐसा किया जाता था। इन्हें आकाशदीप कहा जाता था। 606 से 648 ईस्वी के बीच कन्नौज के राजा हर्षवर्धन द्वारा लिखे गए नाटक ‘नागानंद’ में दीप प्रतिपदोत्सव का उल्लेख मिलता है 500 से 800 ईसवी के बीच लिखे गये ‘नीलमत पुराण’ में दीपावली का ‘यक्षरात्रि’ और ‘सुखसुप्तिका’ के रूप में वर्णन है। 959 ईस्वी के आसपास मालखेड़ के राष्ट्रकूट राजा कृष्ण-तृतीय के समय सोम देवसूरि द्वारा लिखे गए ग्रन्थ ‘यशस्तिलक चंपू’ में दीपोत्सव से पहले घरों की लिपाई-पुताई और सजावट करने का उल्लेख है। घरों की सबसे ऊंचाई वाले स्थानों पर उजाला करने के साथ-साथ इस दिन नाच-गाने और चौपड़ खेलने का वर्णन है। 1030 ईस्वी में भारत यात्रा पर आए अरब यात्री अलबरूनी ने ‘तहकीक-अल-हिंद’ में लिखा है, ‘इस दिन भारत में लोग नए कपड़े पहनते हैं, पान के पत्ते और सुपारी के साथ उपहार देते हैं, मंदिरों के दर्शन करते हैं, गरीबों को दान देते हैं और घर के हर कोने में रोशनी करते हैं तथा दीपक से निकले काजल को आंखों में लगाते हैं। 1119 ईस्वी में चालुक्य वंश के समय के कन्नड़ शिलालेख में दीपावली पर्व का वर्णन मिलता है।
आत्मीय ज्ञान से तुलना
1220 ईसवी में महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर ने अपनी तीन अलग-अलग रचनाओं में दीपावली का उल्लेख किया है। उन्होंने इस दिन दीपकों के जरिए हुए उजाले की तुलना आत्मीय ज्ञान से की है। 1250 ईस्वी में मराठी रचना ‘लीलाचरित्र’ में गणेश जी को आराध्य देव मानने वाले गोसावी समुदाय के लोगों का दीपावली पर तेल स्नान का जिक्र किया गया है। 1260 ईस्वी में उत्तराखंड के विद्वान हिमाद्री पंत ने अपने ग्रन्थ ‘चतुवर्ग चिन्तामणि’ में यम और उनकी बहन यमुना के संवाद का उल्लेख करते हुए कहा है कि भाईदूज की प्रथा तभी से शुरू हुई। 1305 ईस्वी में गुजरात के जैन विद्वान मेरुतुंग ने अपनी रचना ‘प्रबंध चिंतामणि’ में दीवाली की रात गुजरात के राजा सिद्दाराजा राजा द्वारा अपनी पत्नियों के साथ महालक्ष्मी की पूजा तथा माँ लक्ष्मी को सोने के गहने, मूल्यवान वस्त्र व सुगन्धित द्रव्य चढ़ाने का उल्लेख किया है। 1420 ईस्वी में इटली के यात्री निकोलोई कोंटी ने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की थी। उन्होंने अपने यात्रा वृतान्त में दीपावली के बारे में लिखा है कि इस दिनघरों की छतों पर दिन-रात दिए जलाए जाते थे। सिंधु घाटी की सभ्यता के पुरातात्विक उत्खनन में मिले पकी मिट्टी के दीपक इस बात का साक्ष्य देते हैं कि वह सभ्यता आर्य सभ्यता थी और वे लोग दीपावली मनाते थे। 3500 ईसा वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में मिले भवनों में दीपकों को रखने वाले ‘ताख’ अथवा आले और मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते इसकी पुष्टि करते प्रतीत होते हैं।
टिप्पणियाँ