सम्पूर्ण भारत में पंचपर्व दीपावली का अनादिकाल से प्रचुर सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक महत्व रहा है। प्राचीनता की दृष्टि से भगवान श्रीराम के वनवास से वापस अयोध्या लौटने पर दीपों के आलोक का यह पर्व उसके पहले भी चलन में रहा है। वर्षक्रिया कौमुदी एवं धर्म सिन्धु आदि प्राचीन शास्त्रों के अनुसार पूर्वकाल में इस पर्व पर महालय के उपरांत कुल देवता व पितरों की विदाई के लिए दीप प्रज्ज्वलित करने की परम्परा भी रही है।
भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन पूजा एवं नरकासुर वध के प्रसंग लगभग 5 हजार वर्ष प्राचीन हैं। कार्तिक अमावस्या पर महावीर स्वामी व दयानन्द सरस्वती के देहावसान के अपेक्षाकृत नवीन प्रसंग भी दीपावली से जुड़ गए हैं। रूप, बल, यश, दीघार्युष्य एवं समृद्धि कारक इस पर्व के आज के लौकिक महत्व पर दृष्टिपात करें तो दीपावली के अवसर पर देश में 75-85 हजार करोड़ का कारोबार होता है। परिवारों में उत्साह, सौहार्द व उल्लास का संचार होता है। भगवान धन्वन्तरि, श्रीराम, श्रीकृष्ण, कुबेर, विष्णु व लक्ष्मी की पूजा की परम्परा के साथ ही यह प्राचीन त्योहार विविधतापूर्ण लोकशिक्षण व लोक संस्कार का पर्व भी है।
पांच पर्वों को मनाने की विधि
धन्वन्तरि त्रयोदशी: पांच पर्वों में प्रथम धन्वन्तरि त्रयोदशी कार्तिक कृष्ण तेरस तिथि को आती है। धन्वन्तरि त्रयोदशी आरोग्य एवं दीघार्युष्य के धन्वन्तरि की पूजा एवं प्रदाता व आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि की जयन्ती के रूप में मनाते हैं। इस दिवस पर यम अर्थात् काल से रक्षार्थ दीपदान करने के साथ ही धन प्रदाता कुबेर एवं महालक्ष्मी की प्रसन्नता हेतु दीपदान भी किया जाता है। यम के लिए दीपदान अकाल मृत्यु से बचाता है। धन्वन्तरि पूजा असाध्य रोगों व अकाल मृत्यु से बचाती है। कुबेर, विष्णु व लक्ष्मी पूजा और उनके लिए दीपदान धन, सम्पदा का कारक है। इसलिए इस दिन पांच दीपक अवश्य जलाते हैं।
रूप चतुर्दशी: इसका दूसरा पर्व रूप चतुर्दशी है। भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध कर 16000 राजकन्याओं को इसी दिन मुक्ति दिलाई थी। इस दिन, सूर्योदय तक तैल में लक्ष्मी एवं सामान्य जल में गंगा का निवास होता है। इसलिए सूर्योदय के पूर्व शरीर पर तैल का अभ्यंग या मालिश एवं सूर्योदय से पहले ही जल से स्नान करने से आयु आरोग्य, रूप, बल, यश, धन व श्री वृद्धि प्राप्त होती है। साथ ही गंगा स्नान का पुण्य भी प्राप्त होता है। सूर्योदय के पूर्व स्नान नहीं कर सकें तो उसके बाद भी यथाशीघ्र स्नान का विधान है। मृत्यु के देवता यम की प्रसन्नता से नरक के भय से बचने के लिए भी इस दिवस के कई कृत्य हैं जिसके कारण इसे नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। इसी दिवस पर तिल युक्त जल से यम के सात नाम लेकर तर्पण किया जाता है और यम के लिए दीपदान कर मंदिरों, राजपथों, कूपों व अन्य उद्यानों—सार्वजनिक, स्थानीय में भी दीपदान करना चाहिए। तिथि तत्व (पृ. 124) एवं कृत्य तत्व (पृ. 450-51) के अनुसार चौदह प्रकार के शाक-पातों का सेवन करना चाहिए। यह दिन मास शिवरात्रि का भी है। इसलिए इस दिन रात्रि को शिव महापूजा भी की जाती है।
दीपावली: दीपावली के मुख्य पर्व कार्तिक अमावस्या के दिन अपने कुलदेवता और पितरों सहित लक्ष्मी, कुबेर सहित गणपति, नव ग्रह, षोडश मातृकाओं का पूजन, परिजनों, परिवार के वृद्धजनों व अपने से बड़े परिजनों का सम्मान कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की परम्परा रही है। अपने मित्रों, परिजनों व आत्मीयजनों के साथ व परस्पर एक-दूसरे को बधाई, सम्मान व सामूहिक मिष्ठान सेवन भी इस पर्व के प्रमुख व्यवहार हैं। वैश्यों व व्यापारियों द्वारा बही-खातों की पूजा कर पुराने खाते बन्द कर नए खोले जाते हैं।
अमावस्या के कृत्यों में ब्रह्म मुहूर्त में जागरण, अभ्यंग स्नान (तेल से अभ्यंग व जल से सूर्योदय से पहले स्नान) देव, पितरों की पूजा, दही, दूध, घृत से पार्वण श्राद्ध, भांति-भांति के व्यंजनों का परिजनों के साथ सेवन, नवीन वस्त्र धारण, विजय के लिए नीराजन (दीपक को घुमाना), और अपने गृह में मंदिरों में, सार्वजनिक स्थानों, वीथियों व चौराहों पर दीपदान भी किया जाता है। वर्षक्रिया कौमुदी व धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों के अनुसार आश्विन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अमावस्या की संध्याओं को मनुष्यों को मशाल लेकर अपने पितरों को दिखा इस मंत्र का पाठ करना चाहिए- मेरे कुटुम्ब के वे पितर, जिनका दाह-संस्कार हो चुका है, जिनका दाह संस्कार नहीं हुआ है और जिनका दाह संस्कार केवल प्रज्ज्वलित अग्नि से (बिना धार्मिक कृत्य के) हुआ है, परम गति को प्राप्त हों। ऐसे पितर लोग, जो यमलोक से यहां महालया श्राद्ध पर आये हैं, उन्हें इस प्रकाश से मार्गदर्शन प्राप्त हो और वे अपने लोकों को पहुंच जाएं।
गोवर्धन पूजा व बलि प्रतिपदा: दीपावली के दूसरे दिन चतुर्थ पर्व कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा अर्थात एकम आता है। श्रीकृष्ण ने इसी दिन गोवर्धन पूजा प्रारम्भ कर इन्द्र के गर्व का हरण किया था। यह दिन गौ व गौ वत्स क्रीड़ा व पूजन का भी दिन है। श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर्वत को अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर उठा लिया था। इन्द्र के कोप से रक्षा हेतु बृजवासियों को गोवर्धन पर्वत उठा उसके नीचे उन्हें सुरक्षित आश्रय दिया था। अन्नकूट उत्सव में 56 व्यंजन व 33 प्रकार के शाकपात से देव आराधनपूर्वक बस्ती व ग्राम के सभी लोगों के समरसतापूर्वक ऊंच-नीच के भाव से दूर प्रसाद रूप में सामूहिक भोजन की भी परम्परा रही है। इस दिन गोवंश के गोबर से गोवर्धन पर्वत बना कर उसकी भी पूजा की जाती है।
स्वाति नक्षत्र से संयुक्त यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन भी अभ्यंग स्नान (तैल-स्नान) व बलि पूजन प्रमुख कृत्य है। भविष्योत्तर पुराण (140-47-73) के अनुसार रात्रि में पांच प्रकार के रंगीन चूर्णों से भूमि पर एक वृत्त पर दो हाथों वाली बलि की आकृति और उसके पास विध्यावलि (बलि की पत्नी) और चारों ओर से कूष्माण्ड, बाण, मुर आदि असुर घेरे हुए हों। मूर्ति या आकृति पर कुकुट एवं कणार्भूषण हों। चन्दन, धूप नैवेद्य दे भोजन देना चाहिए और यह मंत्र पढ़ना चाहिए – बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचन सुत प्रभो। भविष्येन्द्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्मताम्। अर्थात् विरोचन के पुत्र राजा बलि, तुम्हें प्रणाम! देवों के शत्रु एवं भविष्य के इन्द्र! यह पूजा लो। इस अवसर पर दान वह अक्षय होता है और विष्णु को प्रसन्न करता है। कृत्यतत्त्व (पृ. 453) के अनुसार बलि को तीन पुष्पांजलियां दी जानी चाहिए। स्नान एवं दान सौगुना फल देते हैं।
भाई दूज: कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भ्रातृद्वितीया, भाई दूज या यमद्वितीया आती है। भविष्य पुराण (14118-73) के अनुसार – कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने यम को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। इस दिन अपने घर में मध्याह्न का भोजन नहीं कर अपनी बहिन के घर में खाना चाहिए। बहिनों को भेंट दी जानी चाहिए। सभी बहिनों को स्वर्णाभूषण, वस्त्र, आदर-सत्कार एवं भोजन देना चाहिए। किन्तु यदि बहिन न हो तो अपने चाचा या मौसी की पुत्री या मित्र की बहिन को बहिन मानकर ऐसा करना चाहिए। (हेमाद्रि व्रत, भाग 1, पृ. 374, कार्य विवेक, पृ. 405, कृत्य रत्नाकर, पृ. 413, व. क्रिया कौमुदी पृ. 476-489, तिथि तत्व पृ 29, कृत्यतत्त्व, पृ. 453)। भाई निर्धन हो सकता है, बहिन सम्पन्न हो सकती है, वर्षों से भेंट नहीं हो सकी है, तब इस अवसर पर भाई-बहिन एक दूसरे से मिलते हें, बचपन के सुख-दुख की याद करते हैं।
पद्मपुराण के अनुसार जो व्यक्ति अपनी विवाहिता बहिनों को वस्त्रों एवं आभूषणों से सम्मानित करता है, वह वर्ष भर किसी झगड़े में नहीं पड़ता और न उसे शत्रुओं का भय रहता है। भविष्योत्तर एवं पद्य ने कहा है – जिस दिन यम को यमुना ने इस लोक में स्नेहपूर्वक भोजन कराया, उस दिन जो व्यक्ति अपनी बहिन के हाथ बनाया हुआ भोजन करता है, वह धन और सुन्दर भोजन पाता है। परिवार से बाजार तक उल्लास: दीपावली के अवसर पर जहां बाजार में रौनक से लेकर सभी प्रकार के स्वर्ण आभूषणों, मिठाइयों, मेवों, घी-तैल व स्वचालित वाहनों सहित विविध वस्तुओं की बिक्री में उछाल देखी जाती है। वहीं शेयर बाजार, बैंक, बीमा आदि में भी व्यावसायिक प्रगति देखी जाती है। दीपावली से व्यावसायिक वर्ष का भी चलन रहा है। रक्षाबन्धन से प्रारम्भ हो कर जन्माष्टमी गणेशोत्सव, नवरात्री, विजया दशमी, करवाचौथ, दीपावली, छठ व कार्तिक पूर्णिमा को गुरु नानक जयन्ती तक चलने वाली त्यौहारों की शृंखला सर्वत्र उल्लास का सृजन करती है। व्यक्ति को वर्ष भर में किसी कारण से भी रही नीरसता, अवसाद व चिन्ताओं से मुक्ति दिलाकर पर्वों की यह शृंखला नवउत्साह के सृजन का माध्यम सिद्ध होती है। जहां कहीं परिवारों एवं मित्र-परिजनों में उदासीनता व अलगाव की बेल पल रही होती है, वहां भी आपसी सौहार्द व स्नेह का संचार एवं नए संबंधों का सूत्रपात, इस त्योहारी अवधि में उत्पन्न होता है।
इन पर्वों में रक्षाबन्धन पर्व जहां लक्ष्मी जी द्वारा राजा बलि को राखी बांधने से चलन में आया, वहीं दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा का पर्व भी बलि प्रतिपदा से जुड़ा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा बलि ने नर्मदा के तट पर भृगुकच्छ तीर्थ में, जिसका अपभ्रंश अब भरूच हो गया है, यज्ञ किया था। यह यज्ञ वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर से पिछले चाक्षुस मन्वन्तर में किया था, जब हिमालय व गंगाजी का उद्भव भी नहीं हुआ था। पौराणिक वर्णनों के अनुसार तब ही उस मन्वन्तर में वामन अवतार भी हुआ था। इस प्रकार दीपावली का भारतीय इतिहास, संस्कृति, अध्यात्म एवं आर्थिक जनजीवन में अप्रतिम महत्व है।
टिप्पणियाँ