गत एक नवंबर को जलवायु सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ओर जहां जलवायु न्याय को लेकर भारत की प्रतिबद्धता सामने रखी, वहीं अमीर देशों को उनकी जिम्मेदारियों का भान भी कराया। वैश्विक प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने ऋग्वेद के मंत्र 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्' के जरिए धरती को बचाने के लिए सामूहिक प्रयासों को अहम करार दिया है। भारत ने जलवायु न्याय के लिए अब तक हुए हर वैश्विक अनुष्ठान में सक्रिय सहभागिता दर्ज कराई है। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में भारत के लिए जलवायु सम्मेलन महज आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय चिंतन को अनुप्रमाणित करने का अवसर है। पेरिस जलवायु सम्मेलन में भारत की भूमिका का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि भारत ने जलवायु को सेहतमंद बनाने के लिए जितने लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें अपनी प्रतिबद्धता से हासिल किया है। ग्लासगो में भारत ने धरती के पुनर्जीवन के लिए जहां पंचामृत के पांच प्रस्ताव तय किए हैं। जलवायु के इस पंचामृत में लक्ष्य, कार्ययोजना और उपलब्धियों की एकरूपता पर बल दिया जाएगा। इसके अंतर्गत भारत पांच लक्ष्यों पर काम करेगा। पहला, हम अपनी गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता 550 गीगावॉट तक बढ़ाएंगे। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार देश में लगभग 750 गीगावॉट सौर ऊर्जा की अनुमानित क्षमता है। दूसरा, 2030 तक हम 50 प्रतिशत ऊर्जा अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करेंगे। एक अनुमान के मुताबिक भारत 2030 तक 11.7 एक करोड़ टन से अधिक हाइड्रोजन ऊर्जा का उपयोग करने की स्थिति में पहुंच जाएगा। मौजूदा समय में 50 लाख टन हाइड्रोजन ईंधन की खपत देश में हो रही है।
तीसरा, हरित अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए कार्बन उत्सर्जन में इस दशक के अंत तक एक अरब टन की कमी का लक्ष्य है। इस दिशा में देश में इलेक्ट्रिक वाहनों पर निर्भरता बढ़ाने के प्रयास शुरू हो गए हैं। एक इलेक्ट्रिक वाहन में पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहन के मुकाबले दस गुना कम खर्च आता है। देश भर में चार्जिंग प्वाइंट स्टेशन का जाल बिछाया जा रहा है। चौथा, ऊर्जा के हरित स्रोतों के विकास के साथ भारत ने अर्थव्यवस्था में कार्बन घनत्व 2030 तक 45 प्रतिशत कम करने के महात्वाकांक्षी लक्ष्य सामने रखे हैं। पांचवां, तरक्की के सभी प्रतिमानों को ऊर्जावान बनाते हुए 2070 तक भारत शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य हासिल कर लेगा। दरअसल, जलवायु न्याय के लिए पंचामृत के लक्ष्य की ओर भारत ने काफी समय पहले कदम बढ़ा दिया था। इनमें अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, गैस आधारित अर्थव्यवस्था, आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (सीडीआरआई) जैसी वैश्विक पहल प्रमुख हैं।
कोरोना संकट ने इस बात को और भी पुख्ता किया है कि जलवायु क्षरण की सबसे बड़ी वजह आक्रामक भौतिकवाद और उपभोक्तावाद है। दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या भारत में रहती है। बावजूद इसके विकसित देशों के मुकाबले हमारे यहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन काफी कम है। इसके पीछे भारतीय और स्वदेशी जीवनशैली है। ऐसे में समय आ गया है कि दुनिया पर्यावरणीय सह-अस्तित्व के मार्ग पर आगे बढ़े। हालांकि यह तभी संभव है जब जलवायु परिवर्तन को लेकर संपन्न देश अपने दोहरे रवैया से बाहर निकलें। तीन दशक पहले में ब्राजील के रि-डिजिनेरियो शहर में यूनाइटेड नेशन कॉन्फ्रेंस ऑन एनवायर्मेंट एंड डेवलपमेंट (यूएनसीईडी) के मंच पर ‘साझा किन्तु पृथक जिम्मेदारियों’ (सीबीडीआर) पर सहमति बनी थी। सीबीडीआर सिद्धांत ने एक ओर जहां सभी देशों को बढ़ते कार्बन फूटप्रिंट के लिए जिम्मेदार माना। दूसरी ओर विकसित व विकासशील देशों के बीच समाधान की क्षमता व संसाधनों की उपलब्धता में अंतर को पहली बार संज्ञान में लिया गया। वैश्विक स्तर पर सीबीडीआर की अवधारणा ने इस बात को मान्यता दी कि कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती का जो तापमान बढ़ रहा है, उसमें 75 प्रतिशत हिस्सेदारी अमीर देशों का है। इसी क्रम में पेरिस समझौता-2015 में 2030 तक नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (आईएनडीसी) के लक्ष्यों को पूरा करने पर सहमति बनी। आईपीसीसी (इंटर पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की छठवीं आकलन रिपोर्ट भी कुछ इस तथ्य की पुष्टि करती है। रिपोर्ट के मुताबिक धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्शियस पर रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन में 2005 के स्तर पर 45 प्रतिशत कटौती करनी होगी। आईपीसीसी ने इसके लिए 2030 के समय सीमा के सुझाव पर मुहर भी लगाई। सवाल यह है एक दशक शेष रहते यदि पेरिस समझौते के लक्ष्य से दुनिया कोसों दूर है, तो उसके उसका जिम्मेदार कौन है। क्या वह देश नहीं जो कभी समझौते से बाहर निकलते हैं तो कभी अपनी सहूलियत के अनुसार उसे मान्यता देते हैं।
जलवायु परिवर्तन के समाधान में आर्थिक सहयोग के साथ हरित तकनीक की उपलब्धता बड़ा कारक है। 2009 में संपन्न देश 2020 तक जलवायु वित्त के नाम पर हर साल 100 अरब डॉलर विकासशील देशों में खर्च करने पर राजी हुए थे। यह आर्थिक सहयोग 2001 में गठित अडॉप्टेशन फंड के अतिरिक्त है। ग्लासगो जलवायु सम्मेलन से ठीक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने हरित कोष को लेकर विकसित देशों की मंशा पर सवाल उठाए हैं। ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की रिपोर्ट कहती है कि विकासशील देशों को जलवायु अर्थव्यवस्था के लिए होने वाले आर्थिक सहयोग व मुआवजे का अनुपात बहुत कम है।
इस बीच ग्लासगो में भारत ने विकासशील देशों के लिए एक ट्रिलियन डॉलर का हरित कोष मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा है। जलवायु वित्त की घोषणा और उसको लेकर किए गए दावों के परीक्षण की व्यवस्था खड़ी करने की मांग भी भारत द्वारा की गई है। हालांकि कार्बन बजट तय करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों के साथ घरेलू मोर्चे पर नए संसाधन विकसित करने होंगे। 1989 में स्थापित क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (सीएएन) ने जलवायु संवर्धन प्रयासों में तकनीक हस्तांतरण के प्रति अमीर देशों की उदासीनता को चुनौती माना है। जलवायु को बचाने में कारगर तकनीक को मुनाफे का जरिया समझने के बजाय इसे वैश्विक कल्याण का संसाधन बनाना होगा। इस दिशा में हरित तकनीक से जुड़े बौद्धिक संपदा कानून में अभूतपूर्व बदलाव की जरूरत है। यदि जलवायु परिवर्तन पर सबसे मुखर देश ऐसा करने में सफल हुए तो वैश्विक हाइड्रोजन और सोलर गठबंधन जैसे प्रयास मजबूत होंगे।
भारत और अफ्रीका जैसे बड़े विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन दर विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। सेंटर फॉर साइंड एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय प्रतिवर्ष 1.97 टन कार्बन उत्सर्जित करते हैं। अमेरिका 18.6 टन, कनाडा 16 टन, चीन 8.4 टन और यूरोपीय संघ 7.16 टन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करता है। दुनिया के सकल कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी प्रतिशत के आसपास है। ग्लासगो के मंच से भारत द्वारा दिया गया जलवायु न्याय का मंत्र धरती और उससे जुड़े घटकों की जीवन प्रत्याशा बढ़ाने में सहायक होगा। बशर्ते, हर व्यक्ति जलवायु संरक्षण के प्रति संवेदनशील हो। जलवायु न्याय का पंचामृत भारत ही नहीं पूरे विश्व को मार्ग दिखाने वाला है।
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