इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि: इतिहास से सबक लेने का अवसर
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इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि: इतिहास से सबक लेने का अवसर

by पंकज झा
Oct 31, 2021, 01:43 pm IST
in भारत
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व्यापक राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों को कभी भी तुष्टीकरण के हिसाब से डील नहीं करना चाहिए। ऐसा कर जाने-अनजाने आप अंततः अपना भी नुक़सान करेंगे ही, लेकिन सबसे ज़्यादा उसी समूह का नुक़सान करेंगे, जिसका तुष्टीकरण आपका एजेंडा होता है। लोकतंत्र का अर्थ मधुमेह के मरीज़ को मिठाई खिलाना बिल्कुल नहीं होता।

कहावत पुरानी है, लेकिन हमेशा नवीन. नित-नूतन और सनातन. कहावत यह कि इतिहास को अगर दोहराना नहीं हो तो उससे सबक लेना चाहिए समाज और राष्ट्र को भी। भारत की तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि का यह अवसर भी इतिहास से सबक लेने के दिन में अगर स्मरण किया जाय, उससे सीख कर आगे की राह तय करें तो वास्तव में अपनी मृत्यु के बाद भी श्रीमती गांधी समाज के लिए उपयोगी हो सकती हैं। सबक न केवल राष्ट्र के लिए, अपितु कांग्रेस के लिए भी।

यह दिन श्रीमती इंदिरा गांधी को याद करने से भी अधिक हमारे उन दिवंगत सिख भाइयों को स्मरण करने का है, जो श्रीमती गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसी हिंसा और बर्बरता की भेंट चढ़ गए। खालिस्तानी आतंकियों द्वारा श्रीमती गांधी की हत्या और उसकी प्रतिक्रया में निर्दोष सिखों की बर्बर हत्या ने हमारे सामने अनेक सबक दिए हैं। सबसे पहला सबक यह कि वोटों या अन्य लाभों के लिए ‘तुष्टीकरण’ न केवल सबसे अधिक उस समाज का नुकसान करता है, जिसे तुष्ट करने की कोशिश करते हैं आप, बल्कि वह आपको और अंततः राष्ट्र को भी काफी नुकसान पहुंचा देता है। 

हम सब जानते हैं कि इंदिरा गांधी से इंटेलीजेंस वालों ने आग्रह किया था कि वे सिख अंगरक्षक हटा लें। इसे मानने से पीएम ने मना कर दिया था। एक स्टेटसमैन के नज़रिए से इस फ़ैसले की आजतक तारीफ़ की जाती है, लेकिन, अगर आप व्यावहारिक होकर सोचेंगे तो उस फैसले को एक ऐतिहासिक भूल से अधिक नहीं पायेंगे। सोचिये ज़रा, उन अंगरक्षकों को हटा देने से सिखों का कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन उन्हें रहने देने से समूचे समाज का सबसे अधिक नुक़सान हुआ। इंटेलिजेंस इनपुट को इंदिरा जी ने नही माना, उनकी हत्या हुई। देश ने एक नेता खोया और फिर निर्दोष सैकड़ों सिख भाइयों को जान से और लाखों को माल से हाथ धोना पड़ा। जिस तरह बर्बरता से तब कांग्रेसनेताओं की अगुवाई में नृशंस हत्याओं को अंजाम दिया गया, वह कांग्रेस के इतिहास के कुछ सबसे कलंकित अध्यायों में से एक है। 

सबक़ यही कि व्यापक राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों को कभी भी तुष्टीकरण के हिसाब से डील नहीं करना चाहिए। ऐसा कर जाने-अनजाने आप अंततः अपना भी नुक़सान करेंगे ही, लेकिन सबसे ज़्यादा उसी समूह का नुक़सान करेंगे, जिसका तुष्टीकरण आपका एजेंडा होता है। लोकतंत्र का अर्थ मधुमेह के मरीज़ को मिठाई खिलाना बिल्कुल नहीं होता।

उस घटना के बाद कांग्रेस में सज्जनता का अर्थ सज्जन कुमार होना हो गया। अनेक सफेदपोश बच गए, हालांकि अंततः सज्जन कुमार सिखों के सामूहिक संहार के उस नृशंस वारदात में जेल में है। आरोप संगीन थे जगदीश टाइटलर समेत सभी पर। आज दिवंगत सिखों की स्मृति में देश भर में आयोजन होने चाहिए थे। यह आयोजन इंदिरा गांधी की स्मृति से अधिक बड़ा होना था। 

इस बर्बरता ने हमारे समक्ष और अनेक सबक़ दिए। पता है आपको, कांग्रेस नेता सज्जन कुमार जैसे गुंडों की अगुवाई वाली हत्यारी भीड़ क्या नारे लगाती थी? वह चिल्लाती थी- हिंदू भाई मुस्लिम भाई सरदारों की करो सफ़ाई।’ सबक यह है कि जब भी कांग्रेस जबरन और कृत्रिम रूप से साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करे तो सावधान हो जाना चाहिये। पूछना चाहिए स्वयं से कि किसी साज़िश की पटकथा तो नहीं रची जा रही है ? सबक यह भी है कि जब भी आप ऐसे तत्वों को ताक़त देंगे, वह अधिक बर्बर और हिंसक तरीक़े से समाज में सामने आयेगी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद चितपावन ब्राह्मणों की हत्या को हालांकि पर्याप्त कवरेज नहीं किया था देसी मीडिया ने, लेकिन विदेशी समाचार माध्यमों में उसकी कुछ कतरनें यदा-कदा दिख जाती हैं। आश्चर्य लगेगा उसे सोचकर कि महात्मा की चिता की आग तब ठंडी भी नहीं हुई थी और उनकी विरासत के दावेदारों ने उनका दिया सबसे बड़ा अहिंसा का सन्देश ही भुला दिया था। ऐसा ही और अधिक बर्बर रूप में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद हुआ।

एक अन्य सबक इसका यह भी है कि अगर आप आतंक को अपने फ़ायदे के लिए उपयोग करेंगे जैसे भिंडरावाले मामले में या फिर आगे प्रभाकरन मामलों में कांग्रेस सरकारों द्वारा किया गया, तो अंततः ये भस्मासुर आपका भी नुक़सान करेंगे ही। देश का भी नुकसान होगा और उस समूह की भी क्षति कम नहीं होगी, जिसे आप आतंक के नाम पर प्रोत्साहित करते रहते हैं। सबक यह भी कि हर समय आतंक के मामले में भयंकर असहिष्णु हो जाना चाहिए। इसे लाभ-हानि के तुला पर तोलने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये। दुखद यह है कि अभी भी कांग्रेस इस सबक को सीखना नहीं चाहती है। क्षुद्र लाभ के लिए वह किसी भी हद तक जाने से बाज़ नहीं आती। अभी भी कथित किसान आंदोलन में घुसे हत्यारों को ख़ालिस्तानी हत्यारों को परोक्ष समर्थन कर कांग्रेस वही ग़लती दुहरा रही है। लखीमपुर मामले में विशुद्ध चयनित हंगामा खड़ा करना और निहंगों द्वारा उसे नृशंस तरीके से एक दलित की हत्या कर देना जैसे कांग्रेसियों ने सिखों की हत्या की थी, कांग्रेस द्वारा इसके विरोध में जुबान सिल लेने जैसी चीज़ें बार-बार देश को उसी चौराहे पर खड़ा कर देती है, जिससे काफी मुश्किलों और अनेक कीमत चुकाने के बावजूद देश निकल पाता है। 
उपरोक्त सबक सीख कर कांग्रेस आज अगर खेद व्यक्त करते हुए श्रीमती गांधी की हत्या के बाद की गयी ग़लती भविष्य में कभी भी नहीं दोहराने का संकल्प ले ले, तभी श्रीमती गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। हालाँकि कम्युनिस्टों के हाथ खेल रहे कांग्रेस नेतृत्व के रहते ऐसी उम्मीद बेमानी ही है। 
 
 

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