सत्यव्रत त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से
प्रगतिशील होना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा प्रगतिशील दिखना जरूरी है। उदाहरण के लिए किसान आंदोलन पर लोग पोस्ट कर रहे हैं, ये लोग खेत के मेड़ पर गए नहीं हैं। उन्हें बिगहा-बिस्वा में अंतर नहीं मालूम।
अरे जनाब! इस दुनिया का सबसे खतरनाक काम एक्टिविज्म है। काम धंधा छोड़कर आओ उन ‘किसानों’ के साथ खड़े हो।
पंजाब के किसान
इनके खेतों में काम पूरब के तमाम प्रवासी मजदूर करते हैं, जिन्हें साल भर पहले भगा दिया गया। लोग पैदल ही चलते चले आए। अरे ऐसा मालिक होने से क्या फायदा कि आप अपने कर्मचारियों को 15 दिन खाना नहीं खिला सकते।
जब फैक्ट्रियां लगती थीं तो उसी के आसपास कामगारों के घर बनाए जाते थे। जैसे- झारखंड में टाटा नगर , गाजियाबाद में मोहन नगर। मुम्बई, कानपुर में ऐसे तमाम उदाहरण हैं। फिर यहां घुसे ट्रेड यूनियन, जिसका नतीजा यह हुआ कि मिल मालिक अपना कारोबार दूसरी जगहों पर मोड़
ले गए। जैसे टाटा का प्लांट पश्चिम बंगाल से गुजरात गया।
सुनने में आया कि उत्तर प्रदेश के तमाम किसान जा रहे हैं। मेरा गांव शुद्ध रूप से किसानों का गांव है। यहां धान-गेहूं नहीं, बल्कि केला और शिमला मिर्च, ब्रॉकली जैसी सब्जियों का उत्पादन खुले आसमान के नीचे होता है। मैंने जिज्ञासावश पता किया उनमें से एक भी किसान नहीं गया। सब अपने खेतों में हैं।
सवाल आया कि यह कौन लोग हैं? पंजाब-हरियाणा में किसान से ज्यादा मंडियों के दलाल हैं। सबने मिलकर जुगत लगाई और किसान आंदोलन शुरू करवा दिया। हम अगर खालिस्तान के नारों को नजरअंदाज करें तो भी यह शोचनीय विषय है कि प्रदर्शनकारियों की सेवा में जो लंगर चल रहा है, उसका प्रायोजक कौन है?
आखिर में मैं अपने उन सभी दोस्तों की सोच को हार्दिक संवेदना भेजता हूं और यह बताता हूं कि यह मोदी सरकार है। यहां जो हो गया, वह हो गया। उसे बदला नहीं जाएगा। नोटबन्दी भूल गए या फिर हालिया सीएए?
ठीक है कॉमरेड! नाटक कर लो, हम कुछ न कहेंगे। लाले लाले लाल सलाम।
वन्दे मातरम्!
भारत माता की जय।
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