क्या कोई दूध देने वाली गाय को लात मारता है. जी हां, मार सकता है. अगर गाय ये न समझे कि लात मारने वाला मेरे ही दिए हुए दूध पर पल रहा है. ठीक यही हालत हिंदू समाज की है. भारतीय बाजार को अगर आप धार्मिक दृष्टिकोण से देखेंगे, तो सबसे अधिक क्रय शक्ति वाला उपभोक्ता वर्ग हिंदू ही है. हिंदू पर्व, उत्सव भारतीय अर्थव्यवस्था का ईंधन हैं. इसके बावजूद भारतीय कारपोरेट हिंदू त्योहारों पर हिंदुओं को ही नीचा दिखाकर कमाई करता है. ताजा उदाहरण डाबर इंडिया का है. एक विज्ञापन के जरिये करवाचौथ पर एक समलैंगिक जोड़े को त्योहार मनाता दिखाकर डाबर इंडिया क्या संदेश देना चाहता है. यही कि सनातन परंपराओं को गाली देकर वह हिंदुओं को ही अपना उत्पाद बेचना चाहता है. डाबर इंडिया ये सोच सकता है, क्योंकि सीएट से लेकर फेब इंडिया तक सभी कंपनियां यही तो कर रही हैं. और इसलिए कर पा रही हैं कि हिंदू समाज प्रतिकार नहीं कर रहा, इन्हें जवाब नहीं दे रहा.पहले जरा दो घटनाओं पर गौर कीजिए और फिर नैरेटिव के अंतर को समझिए.
इस्मत चुगताई की एक लघुकथा है लिहाफ. कहानी मुस्लिम पृष्ठभूमि में है. यह कहानी एक बेगम और उनकी दासी के बीच समलैंगिक संबंधों पर आधारित है. एक औरत की यौन इच्छाओं के समलैंगिक निरूपण पर खासा विवाद हुआ. लेकिन वामपंथ की चाशनी में डूबे साहित्य और बुद्धिजीवी जगत की सोच तब भी वही थी. उस समय के एक बड़े मुस्लिम साहित्यकार ने कहा था कि इस्मत मुस्लिम महिला होते हुए कैसे ये सब लिख सकती है. यह इस्लामिक मामला हो गया. दो महिलाओं के बीच का नितांत निजी मामला मजहबी हो गया.
दूसरी घटना डाबर इंडिया के करवाचौथ विज्ञापन की है. डाबर ने इसे समलैंगिकता की पैरवी और इसे उत्सव का अवसर बना डाला. सनातन त्योहार, जो महिलाएं अपने पति की लंबी आयु की कामना के साथ रखती हैं. निर्जल व्रत रखती हैं. चाहे किसी परिवेश की हों. चाहे वह शहर हो या गांव. बिना किसी वर्गभेद. यही सनातन की ताकत है और यही कारपोरेट में बड़े पदों पर बैठे वामपंथियों और एड एजेंसियों का रूप धरे हिंदू विरोधियों की आंख में खटकता है. घर-घर में त्योहार कैसे मनता है यह विज्ञापन का विषय नहीं है. विज्ञापन में एक महिला दूसरी महिला को क्रीम लगाते हुए कहती है, “ये लग गया तेरा फेम क्रीम गोल्ड ब्लीच”. दूसरी महिला जवाब देती है, “धन्यवाद! तुम सबसे अच्छी हो”. वह पूछती है, करवा चौथ का इतना ‘कठिन व्रत’ क्यों रख रही हो? इस पर महिला जवाब देती है कि उनकी ख़ुशी के लिए. इसी सवाल पर दूसरी महिला कहती है कि उनकी लंबी उम्र के लिए. इस कपल को पहली करवाचौथ के तोहफे के रूप में साड़ियां मिलती हैं. और फिर वे रात में चांद को व एक दूसरे को देखते हुए दर्शाई जाती हैं.
विज्ञापन दर्शाता है कि ये समलैंगिक जोड़ा पहली करवाचौथ मना रहा है. और जिस तरह से उन्हें तोहफा मिलता है, वह दर्शाने की कोशिश है कि हिंदू समाज में इस जोड़े को मान्यता है, स्वीकारा गया है. भला ये कौन से गली-मोहल्ले में हो रहा होगा. लेकिन डाबर इंडिया की दुनिया में हो रहा है. यह महिलाओं की इस समलैंगिकता को त्योहार से जोड़ने के साथ ही फैमिनिज्म का भी प्रतीक बना देने का बीमार और बेहद ओछा प्रयास है.
फिर सवाल वहीं आता है. आखिर किसी कंपनी के विज्ञापन का उद्देश्य क्या होता है. जाहिर है, अपने उत्पाद का प्रचार. कुछ इस तरह से प्रचार की यह जन-जन तक पहुंचे. समलैंगिकता का सहारा लेकर यह कितना जन-जन तक पहुंचा होगा. जाहिर है, इस विज्ञापन का उद्देश्य जन-जन तक अपने उत्पाद का प्रचार नहीं है. इसके पीछे उद्देश्य कुछ और है. उद्देश्य वही है, जो फैब इंडिया का था. कपड़े बेचने वाला ये ब्रांड दीवाली के कुछ नए उर्दूनुमा ब्रांड गढ़ने का दुःसाहस करता है. वही, जो सिएट टायर कंपनी की हिमाकत है. सड़कें वाहन चलाने के लिए हैं, पटाखे चलाने के लिए नहीं. भाजपा के सांसद अनंत हेगड़े ने सिएट के सीएमडी को पत्र लिखकर पूछा है कि सड़कें नमाज पढ़ने के लिए भी नहीं है, इस विषय पर उनका विज्ञापन कब आ रहा है. जाहिर है, न तो इस पत्र का जवाब मिलेगा, और न ही कभी ऐसा विज्ञापन आएगा. एक कार्टून पर कत्लो-गारत मचा देने वाली कौम को न तो छेड़ने का किसी में साहस है और न ही उन्हें कोई बकरे की कुर्बानी पर जीव प्रेम या पर्यावरण का लेक्चर देने का साहस जुटा सकता है.
एक मजहब है, जिसके पास हमेशा से बस एक जुबान रही है. तलवार. दूसरी तरफ एक धर्म है, जिसके हिस्से में सहिष्णुता है, जिसकी परंपराएं रूढ़ियां, बेड़ियां हैं. जिसके जीने का तरीका दकियानूस है. जिसके हर पर्व में खामियां हैं. शिवरात्रि पर दूध बचाने वाले निकल पड़ते हैं. होली पर पानी की प्यास जाग जाती है. क्रिसमस और पाकिस्तान की जीत पर बजने वाले पटाखे उत्सव होते हैं, लेकिन दिवाली पर दमा हो जाता है. हर हिंदू परंपरा और पर्व असल में इन वामपंथियों, जिहादियों, मिशनरियों के लिए एक बाधा है. सनातन परंपरा से ही भारत है. और भारत के होने से इन्हें दिक्कत है.
अच्छा बताइये कभी आपने ईद पर सुनी है बिग बिलयन सेल. लेकिन दीवाली पर फ्लिपकार्ट चंद घंटों में छह सौ करोड़ रुपये का सामान बेच डालता है. दिक्कत यह है कि हिंदू अपनी ताकत को नहीं जानता. हिंदू उत्सव, पर्व भारत की अर्थव्यवस्था का ईंधन हैं. अपनी ताकत को पहचानने के लिए जरा मौजूदा आर्थिक आंकड़ों पर गौर कीजिए. भारत में त्योहारों, आयोजनों का मौसम शुरू होते ही आर्थिक सुस्ती गायब हो गई, सितंबर के आंकड़े तो दुनिया भर के लिए चौंकाने वाले हैं. ये किसी क्रिसमस या रमजान से नहीं हुआ है. जीएसटी से लेकर पीएमआई, सब रिकॉर्ड स्तर पर है और दीवाली के बाद के अनुमान तो भारत की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले हैं. कार बाजार में बूम है. रियलिटी में रौनक वापस आ गई है. एफएमसीजी में मांग रिकार्ड तोड़ रही है. इलेक्ट्रॉनिक बाजार कोविड के झटके को धो डालने के लिए तैयार है. फेस्टिवल ऑफर, दीवाली ऑफर सब तरफ छाए हुए हैं. लेकिन ये बाजार है. आप अगर हिंदू, हिंदू पर्व की बात करेंगे, तो सांप्रदायिक होंगे. बाजार अगर दीवाली सेल के बैनरों से सज जाएगा, तो कोई बात नहीं. मिठाई और गिफ्ट पैक से पटा ये बाजार क्रिसमस या ईद के लिए नहीं है. गारमेंट्स की सजी दुकानें न्यू ईयर का इंतजार नहीं कर रही हैं.
हिंदू परिवार की ताकत उसकी बचत की ताकत है. उससे भी बड़ी ताकत उसकी क्रय शक्ति है. इसी परचेंजिंग पॉवर का पीक यानी शीर्ष पर्व होते हैं. और त्योहारों में भी सबसे ज्यादा हिंदुओं का गाढ़ी कमाई का पैसा दीवाली पर बाजार में जाता है. तो क्या बाजार को हिंदू पर्व, प्रतीकों, आस्था चिह्नों, परंपराओं का सम्मान नहीं करना चाहिए. डाबर, सिएट, फैब इंडिया, सर्फ एक्सल जैसे तमाम ब्रांड कैसे ये सोच सकते हैं कि वे हमारे धर्म, परंपरा, रीति-रिवाज, त्योहार का मजाक बनाकर हमें ही सामान बेच लेंगे. जैसे एक मजहब अपनी तलवार की ताकत को जनता है, वैसे ही धर्म को भी अपनी जेब की ताकत को पहचानना होगा. बताना होगा कि अगर हमें सामान बेचना है, तो हमारा सम्मान करो.
मिस्टर बर्मन, विदेश में जमा काली कमाई पर भी कुछ कह.
समलैंगिकता का पाठ पढ़ाने वाला डाबर इंडिया दूध का धुला नहीं है. इसके प्रोडक्ट तो सवालों के दायरे में रहे ही हैं, इसके प्रमोटर भी कानून के शिकंजे में हैं. डाबर इंडिया के प्रमोटर प्रदीप बर्मन का नाम उस लिस्ट में शामिल है, जो भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है. इसमें ऐसे लोगों के नाम हैं, जिनकी काली कमाई विदेशी बैंकों में जमा है. प्रदीप बर्मन पर आरोप है कि उन्होंने अपनी टैक्स रिटर्न में जान-बूझकर विदेशी खाते का खुलासा नहीं किया. यह साफ-साफ करचोरी का भी मामला है.
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