सात अक्तूबर की रात करीब 1 बज रहा था। हमारी गाड़ी उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के खुटार को पार कर चुकी थी। हमें आगे लखीमपुर शहर तक जाना था। हमने एक तिराहे पर एक व्यक्ति से रास्ता पूछा तो उसने घबराते हुए कहा- हम नहीं जानत। तिराहे के पास कुछ पुलिसकर्मी बैठे थे। उनमें से एक ने आगे का रास्ता बताया। देर रात करीब दो बजे हम लखीमपुर खीरी शहर पहुंचे। एक होटल में रुके। लखीमपुर खीरी के तिकुनिया में जिनकी मौत हुई, हमें सुबह उनके परिजनों से मिलना था। होटल का एक कर्मचारी जो कुछ देर पहले तक बेहिचक बातचीत कर रहा था, उससे तिकुनिया हादसे के बारे में जैसे ही बात शुरू की उसने चुप्पी साध ली। हमें साफ संकेत मिल गया था कि कोई इस मामले में कुछ बोलेगा नहीं।
भाजपा कार्यकर्ता होगा तो क्या उसे मार डालोगे ?
शहर के करीब तीन किलोमीटर अंदर शिवपुरी मुहल्ले में शुभम मिश्र का घर है। वही शुभम जिसकी तिकुनिया हादसे में हत्या हुई। मुहल्ले में जाकर घर के बारे में एक महिला से पूछा तो उसने कहा – वह लरिका जो खतम होईगा। उन्होंने इशारे से शुभम के घर के बारे में जानकारी दी। घर के बाहर तीन से चार कुर्सियां रखी थीं। गेट खुला था। अंदर प्रवेश किया तो शुभम के पिता, बाबा, चाचा और मामा मिले। हमने कहा कि हम दिल्ली से आए हैं। शुभम के पिता ने कहा- बताइए, क्या जानना चाहते हैं। मीडिया से लोग आते हैं और पूछकर चले जाते हैं। हमारी बात मीडिया में नहीं आती है। कुछ देर बात करने के बाद वे फफक-फफक कर रोने लगते हैं। बुजुर्ग बाबा से कुछ पूछता उससे पहले ही उनकी आंखें भर आर्इं। रोते हुए कहा- हमसे कुछ न पूछो बच्चा हम बोलि न पइबे।
अगला सवाल करता कि उससे पहले शुभम के मामा ने चुप्पी तोड़ी। वह कहते हैं – किसान इस तरह से नहीं मारता है। किसान के वेश में वहां आतंकी रहे होंगे। भाजपा का कार्यकर्ता होना क्या गुनाह है? भाजपा का कार्यकर्ता होगा तो क्या उसे मार डालोगे?
न प्रियंका ने संपर्क किया और न अखिलेश ने
शुभम के घर पर कुछ देर रुकने के बाद हम लखीमपुर हिंसा में मारे गए ड्राइवर हरिओम मिश्र के गांव परसेहरा बुजुर्ग के लिए निकले। घर तक संकरा गलियारा जाता है। पता पूछने पर रास्ते में एक बच्चे ने कहा कि वह हरिओम का रिश्तेदार है। वह अपनी साइकिल से हमें रास्ता बताता हुआ आगे चलता रहा। गांव का माहौल कुछ अलग था। घर पर हरिओम के चाचा, भाई और मां मिली। पिता न तो चलने में और न ही कुछ बोलने में सक्षम थे। चाचा ने बताया, ‘हरिओम के शव पर तलवार के घाव थे। सिर बुरी तरह से टूटा हुआ था। न तो प्रियंका गांधी और न ही अखिलेश यादव हमें सांत्वना देने आए। यह बात भी निराधार है कि हमने उनसे मिलने से मना कर दिया। हमारी उनसे कोई बात ही नहीं हुई। उत्तर प्रदेश सरकार से मदद मिली है। अन्य राज्यों के नेताओं ने तो सांत्वना भी नहीं दी।’ हरिओम की मां लगातार रोए जा रही थीं। उन्होंने कहा कि जब बाहर होता तो फोन कर हाल-चाल जरूर लेता। उसका स्वभाव बहुत अच्छा था। किसी पर गुस्सा तक नहीं करता था। गांव में भी सभी के साथ मिल-जुलकर रहता था।
सेलेक्टिव सोच क्यों ?
हाल ही में असम के दरांग में हुई घटना भी दुखद थी। उससे भी दुखद था शव पर फोटोग्राफर का कूदना। इस पर मीडिया में काफी चर्चा हुई। लखीमपुर खीरी में ड्राइवर हरिओम की हत्या के जो वीडियो सोशल मीडिया पर आए वह भी कम दुखद नहीं हैं। हरिओम की बर्बरतापूर्वक हत्या पर राष्ट्रीय मीडिया और नेताओं की चुप्पी घटना को उनके द्वारा अलग-अलग चश्मे से देखने की बात को सही ठहराती दिख रही है। किसी को पीट-पीटकर मार डालना कहां तक उचित है। मानवाधिकार की दुहाई देने वाले इस मसले पर सेलेक्टिव क्यों हैं? यह बड़ा सवाल है।
दो दिन तक गांव के लोग बाहर नहीं निकले
तिकुनिया में हालात सामान्य थे। पुलिस की चहलकदमी थी। चाय की दुकानों पर बैठकी होने लगी है। हादसे की चर्चा तभी हो रही थी, जब उनसे इस बारे में कुछ पूछा जाए। एक दुकान पर ’84 के सिख विरोधी दंगे की भी बात हो रही थी। लोगों से बात की तो उन्होंने यही बताया कि प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर किसान बाहर के थे। घटनास्थल पर एक व्यक्ति ने बताया कि करीब एक किलोमीटर की दूरी तक किसानों की भीड़ थी। पहचान नहीं उजागर करने की शर्त पर उसने बताया कि दो दिन तक गांव के लोग गांव में ही रहे। गांव के अंदर गाड़ियों की आवाजाही नहीं थी। पैदल आने और जाने की अनुमति थी, वह भी सिर नीचा करके। हमें माइक के साथ खड़े देखकर एक व्यक्ति ने अपनी मोटरसाइकिल हमारे पास रोक दी। उसके अपने तर्क थे। उसका कहना था कि तीन अक्तूबर को किसान आंदोलन में गांव के लोग भी शामिल थे। मैंने पूछा कि कृषि कानूनों पर सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल रोक लगा रखी है तो फिर किसान आंदोलन क्यों। उसने जवाब दिया, ‘रोक लगाई है, कैंसिल तो नहीं किया।’
जो किसान सूखे खेतों को देखकर द्रवित हो जाता है वह किसी की हत्या कैसे कर सकता है, वह भी इतनी निर्दयता से। पिछले एक साल में किसान आंदोलन के दौरान जो भी हिंसक घटनाएं हुर्इं, उनमें खालिस्तानी आतंकी जरनैल सिंह भिंडरावाला की तस्वीरें दिखीं। चाहे वह गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली की घटना हो या करनाल या फिर लखीमपुर खीरी की। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय इस साल मार्च में कह चुका है
कि किसानों का अहित नहीं होने दिया जाएगा तो फिर आंदोलन क्यों जारी है? तिकुनिया में हुई मौतों की जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा?
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