सरसंघचालक उद्बोधन
यह वर्ष हमारी स्वाधीनता का 75वां वर्ष है। 15 अगस्त, 1947 को हम स्वाधीन हुए। स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर हमारी यात्रा का वह प्रारंभ बिंदु था। हमें यह स्वाधीनता रातोरात नहीं मिली। स्वतंत्र भारत के चित्र की भारत की परंपरा के अनुसार समान कल्पनाएं मन में लेकर, देश के सभी क्षेत्रों से, सभी जाति वर्गों से निकले वीरों ने तपस्या, त्याग और बलिदान के हिमालय खडे किये; दासता के दंश को झेलता समाज भी उनके साथ खड़ा हुआ, तब शान्तिपूर्ण सत्याग्रह से लेकर सशस्त्र संघर्ष तक सारे पथ स्वाधीनता के पड़ाव तक पहुंच पाए। परन्तु हमारी भेदभावपूर्ण मानसिकता, स्वधर्म, स्वराष्ट्र और स्वतंत्रता की समझ का अज्ञान, अस्पष्टता, ढुलमुल नीति तथा उन पर खेलने वाली अंग्रेजों की कूटनीति के कारण विभाजन की कभी शमन न हो पाने वाली वेदना भी प्रत्येक भारतवासी के हृदय में बस गई। हमारे संपूर्ण समाज, विशेषकर नयी पीढ़ी को इस इतिहास को जानना, समझना तथा स्मरण रखना चाहिए। हमें आपस की शत्रुताओं को बढ़ाकर उस इतिहास की पुनरावृत्ति कराने के कुप्रयासों को पूर्ण विफल करते हुए, अपनी खोई एकात्मता व अखंडता को पुन: प्राप्त करना है।
सामाजिक समरसता
एकात्म व अखण्ड राष्ट्र की पूर्वशर्त समाज का समताधिष्ठित, भेदरहित होना है। इस कार्य में बाधक बनती जातिगत विषमता को दूर करने के लिए अनेक ओर से अनेक प्रकार के प्रयास हुए। फिर भी समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। देश के बौद्धिक वातावरण में इस खाई को पाटकर परस्पर आत्मीयता व संवाद को बनाने वाले स्वर कम हैं, बिगाड़ने वाले अधिक हैं। ध्यान रखना होगा कि यह संवाद सकारात्मक हो। सामाजिक तथा कुटुम्ब के स्तर पर मेलजोल बढ़ाना होगा। सामाजिक समरसता का वातावरण निर्माण करने का कार्य संघ के स्वयंसेवक सामाजिक समरसता गतिविधियों के माध्यम से कर रहे हैं।
कार्यक्रम में उपस्थित मुम्बई में इस्राइल के महावाणिज्य दूत कोब्बी शोशानी, केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस, राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख संचालिका शांताक्का जी, प्रमुख कार्यवाहिका सीता अन्नदानम एवं अन्य विशिष्ट अतिथि
स्वातंत्र्य तथा एकात्मता
भारत की अखण्डता-एकात्मता के प्रति श्रद्धा व मनुष्यमात्र की स्वतंत्रता की कल्पना तो शतकों से हमारे यहां चलती आई है। यह वर्ष श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज के प्रकाश का 400वां वर्ष है। उनका बलिदान भारत में पंथ-संप्रदाय की कट्टरता के कारण हुए अत्याचारों को समाप्त करने व अपने-अपने पंथ की उपासना करने का स्वातंत्र्य देते हुए सबकी उपासनाओं को सम्मान व स्वीकार्यता देने की इस देश की परंपरा को फिर से स्थापित करने के लिए ही हुआ था। वे हिन्द की चादर कहलाए। वे भारत की उदार, सर्वसमावेशक संस्कृति के प्रवाह को अखंड रखने के लिए प्राण देने वाले वीरों की आकाशगंगा के सूर्य थे। हमारे उन महान पूर्वजों का गौरव, मातृभूमि की अविचल भक्ति तथा उनके द्वारा संरक्षित व परिवर्धित हमारी उदार सर्व समावेशी संस्कृति हमारे राष्ट्र जीवन के अनिवार्य आधार हैं।
शतकों पहले संत ज्ञानेश्वर अपने पसायदान में कहते हैं-
जे खळांची व्यंकटी सांडों। तयां सत्कर्मीं रति वाढो।
भूतां परस्परें पडो, मैत्र जीवाचें।।
दुरितांचे तिमिर जावो। विश्व स्वधर्मसूर्यें पाहो।
जो जे वांच्छील तो ते लाहो। प्राणिजात ।।
अर्थात दुष्टों का टेढ़ापन जाए, उनकी प्रवृत्ति सदाचारी बने, जीवों में परस्पर मित्रभाव हो, संकटों का अंधेरा छंट जाए, सब में स्वधर्म का बोध जगे तथा सबकी सब मनोकामनाएं पूरी हों।
यही बात आधुनिक काल में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित एक सुप्रसिद्ध कविता में दूसरे शब्दों में कही गई है-
चित्तो जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर
ज्ञान जेथा मुक्तो, जेथा गृहेर प्राचीर
आपोन प्रांगणतले दिबशो-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ खण्ड क्षुद्र करि।
जेथा वाक्य हृदयेर उत्समुख हते उच्छसिया ओठे जेथा निर्वारित स्रोते,
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रबिधो चरितार्थाय।
जेथा तुच्छो आचारेर मरु-वालू-राशि विचारेर स्रोतोपथ फेले नाइ ग्राशि
पौरुषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तुमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।
निजो हस्ते निर्दय आघात करि पिता भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृतो।।
श्री शिवमंगलसिंह सुमन ने इसे हिंदी में इस तरह अनूदित किया है-
जहां चित्त भय से शून्य हो, जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें, जहां ज्ञान मुक्त हो।
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों,
जहां हर वाक्य ह्रदय की गहराई से निकलता हो।
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्र नदी के स्रोत फूटते हों, और निरंतर अबाधित बहते हों।
हां, विचारों की सरिता तुच्छ आचारों की मरुभूमि में न खोती हो।
जहां पुरुषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो।
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियां तुम्हारे अनुगत हों। हे पिता, अपने हाथों से निर्दयतापूर्ण प्रहार कर
उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ।
शस्त्र पूजन करते हुए सरसंघचालक
देश के स्वातंत्र्योत्तर जीवन के इस कल्पना चित्र के संदर्भ में परिस्थितियों को देखें तो स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक हमारी यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है। दुनिया में कुछ तत्व हैं जिन्हें भारत की प्रगति तथा विश्व में उसका सम्मानित स्थान पर पहुंचना अपने निहित स्वार्थों के खिलाफ लगता है। कुछ देशों में उनका बल भी है। भारत में सनातन मानवता के मूल्यों के आधार पर विश्व की धारणा करने वाला धर्म प्रभावी होगा तो ऐसे स्वार्थी तत्वों के कुत्सित खेल बंद हो जाएंगे। विश्व को उसका खोया हुआ संतुलन व परस्पर मैत्री भावना देने वाला धर्म का प्रभाव ही भारत को प्रभावी करता है। यह ना हो पाए इसीलिए भारत की जनता, यहां की वर्तमान स्थिति, इतिहास, संस्कृति, राष्ट्रीय नवोदय का आधार बन सकने वाली शक्तियां, इन सबके विरुद्ध असत्य कुत्सित प्रचार करते हुए, विश्व तथा भारत के लोगों को भी भ्रमित करने का काम चल रहा है। अपनी पराजय तथा संपूर्ण विनाश का भय इन शक्तियों की आंखों के सामने होने के कारण अपनी शक्तियों को सम्मिलित करते हुए विभिन्न रूप में, प्रकट तथा प्रच्छन्न रूप से ध्यान में आने वाले स्थूल तथा ध्यान में ना आने वाले सूक्ष्म प्रयास चल रहे हैं। उन सबके द्वारा निर्मित छल-कपट तथा भ्रमजाल से समाज को बचाना होगा ।
दुष्टों की टेढ़ी बुद्धि विभिन्न साधनों के माध्यम से आगे बढ़ने के प्रयास मे लगी है। निहित स्वार्थों तथा अहंकारी कट्टरपंथियों के चलते कुछ समर्थन जुटा लेना, लोगों की अज्ञानता का लाभ उठाकर उन्हें भ्रमित करना, उनकी वर्तमान अथवा काल्पनिक समस्याओं के आधार पर उन्हें भड़काना, समाज में किसी प्रकार से, किसी भी कीमत पर असंतोष, परस्पर विरोध, कलह, आतंक और अराजकता उत्पन्न कर अपने खत्म होते प्रभाव को फिर समाज पर थोपने का उनका कुत्सित मन्तव्य उजागर हो चुका है।
अपने समाज में व्याप्त ‘स्व’ के बारे में अज्ञान, अस्पष्टता तथा अश्रद्धा के साथ ही आजकल विश्व में बहुत गति से प्रचारित होती जा रही कुछ नयी बातें भी इन स्वार्थी शक्तियों के कुत्सित खेलों के लिए सुविधाजनक बनी हैं। बिटक्वाइन जैसा अनियंत्रित चलन प्रच्छन्न आर्थिक स्वैराचार का माध्यम बन कर सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक चुनौती बन सकता है। ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म पर कुछ भी प्रदर्शित किया जा रहा है। अभी आनलाइन शिक्षा चलानी पड़ी। बालकों का मोबाइल देखना भी नियम सा बन गया। विवेक तथा उचित नियंत्रण का अभाव इन सभी नये वैध-अवैध साधनों के सम्पर्क में समाज को कहां ले जाएगा, यह कहना कठिन है, परन्तु देश के विरोधी तत्व इन साधनों का क्या उपयोग करना चाहते हैं, यह सब जानते हैं। शासन को ऐसी सभी बातों पर समय रहते उचित नियंत्रण करना चाहिए।
कुटुंब प्रबोधन
ऐसी बातों पर नियंत्रण के लिए हमें घर में ही उचित-अनुचित तथा करणीय-अकरणीय का विवेक देने वाले संस्कारों का वातावरण बनाना होगा। हम भी अपने कुटुम्ब में इस प्रकार की चर्चा कर सहमति बना सकते हैं। कुटुम्ब प्रबोधन गतिविधि के माध्यम से संघ के स्वयंसेवक यह कार्य कर रहे हैं। ‘मन का ब्रेक उत्तम ब्रेक’, ऐसा कथन आपने सुना-पढ़ा होगा। भारतीय संस्कार जगत पर सभी ओर से हमले के द्वारा हमारे जीवन में श्रद्धा पर चोट करके भ्रष्ट स्वैराचार के बीजारोपण का जो भितरघात चल रहा है, उसके सभी उपायों का आधार यही विवेकबुद्धि होगी।
कोरोना से संघर्ष
कोरोना विषाणु के आक्रमण की तीसरी लहर का सामना करने की पूरी तैयारी रखते हुए हम अपनी स्वतंत्रता का 75वां वर्ष मनाने की तैयारी कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर में समाज ने फिर एक बार अपने सामूहिक प्रयास के आधार पर इस महामारी के प्रतिकार का उदाहरण खड़ा किया। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए जिन बंधु-भगिनियों ने समाज की सेवा की, वे वास्तव में अभिनंदनीय हैं। संकटों के बादल भी पूरी तरह छंटे नहीं हैं। यद्यपि बड़ी मात्रा में टीकाकरण हो चुका है। समाज भी सावधान है। संघ के स्वयंसेवकों तथा समाज के अनेक संगठनों ने गांव स्तर तक कोरोना संकट से संघर्ष में समाज की सहायतार्थ सजग कार्यकर्ताओं के समूहों का प्रशिक्षण कर लिया है। इस संकट का संभवत: यह आखिरी चरण, आशा है, बहुत तीव्र नहीं होगा। परंतु किसी भी अनुमान पर निर्भर न रहते हुए हमें पूर्ण सजगता रखनी होगी।
कोरोना की गत दो लहरों में लॉकडाउन के कारण आर्थिक क्षेत्र की काफी हानि हुई है। अत: देश के अर्थतंत्र को पहले से अधिक गति से आगे बढ़ाने की चुनौती हमारे सामने है। कुछ क्षेत्रों से यह सुनने में आ रहा है कि व्यापार बहुत तेजी से और अच्छा हो रहा है। ऐसा लगता है, उपरोक्त संकट का सामना देश कर लेगा। समाज में भी स्व का जागरण व आत्मविश्वास बढ़ रहा है। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के लिए धन संग्रह अभियान में उत्साहपूर्ण तथा भक्तियुक्त प्रतिसाद इसी ‘स्व’ के जागरण का लक्षण है। हमारे खिलाड़ियों ने टोक्यो ओलंपिक में 1 स्वर्ण, 2 रजत व 4 कांस्य पदक तथा पैरालंपिक में 5 स्वर्ण, 8 रजत तथा 6 कांस्य पदक जीतकर अभिनंदनीय पुरुषार्थ का परिचय दिया है। देश में सर्वत्र हुए उनके अभिनन्दन में हम सभी सहभागी हैं।
स्वास्थ्य के प्रति हमारी दृष्टि
हमें परंपरा से मिली हमारे ‘स्व’ की दृष्टि व ज्ञान आज भी उपयोगी है, यह कोरोना की परिस्थिति ने दिखा दिया। हमारी परंपरागत जीवनशैली की रोगों के निदान तथा आयुर्वेदिक औषधियों की कोरोना के प्रतिकार व उपचार में प्रभावी भूमिका को हमने अनुभव किया। हमारे विशाल देश में प्रत्येक व्यक्ति को चिकित्सा व्यवस्था सुलभ तथा सस्ते दामों में उपलब्ध होनी चाहिए। हमें आयुर्वेद के स्वास्थ्यवृत्त का भी विचार करना पड़ेगा ।
आहार, विहार, व्यायाम तथा चिंतन के हमारे परंपरागत विधि निषेध के आधार पर हमारी जीवनशैली पर्यावरण से पूर्ण सुसंगत तथा दैवीय गुणसंपदा प्रदान करने वाली है। कोरोना बीमारी के दौर में सार्वजनिक कार्यक्रम, विवाहादि कार्यक्रम सब प्रतिबंधित थे। ऐसे में हम धन, ऊर्जा तथा अन्य संसाधनों की फिजूलखर्ची से बचे और पर्यावरण पर उसका अनुकूल परिणाम भी हमने अनुभव किया। अब हमें फिजूलखर्ची व तामझामों से बचते हुए पर्यावरण-सुसंगत जीवनशैली में ही कायम होना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक भी पर्यावरण संरक्षण गतिविधि द्वारा पानी बचाने, प्लास्टिक के निषेध तथा पेड़ लगाने जैसी आदतों के प्रसार का प्रयास कर रहे हैं।
हमारी आर्थिक दृष्टि
प्रचलित अर्थचिंतन आज नई समस्याओं का सामना कर रहा है। यांत्रिकीकरण से बढ़ती बेरोजगारी, नीतिरहित तकनीकी के कारण घटती मानवीयता व उत्तरदायित्व के बिना प्राप्त सामर्थ्य आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। संपूर्ण विश्व को भारत से अर्थव्यवस्था तथा विकास के नए मानक की अपेक्षा व प्रतीक्षा है। हमारी विशिष्ट आर्थिक दृष्टि हमारे राष्ट्र के प्रदीर्घ जीवनानुभव तथा देश-विदेश में सम्पन्न हुए आर्थिक पुरुषार्थ से बनी है। उसमें सुख का उद्गम मनुष्य के अंदर माना गया है। सुख केवल शरीर का नहीं होता। शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा, इन चारों को एक साथ सुख देने वाली; मनुष्य, सृष्टि, समष्टि का एक साथ विकास करते हुए उसको परमेष्टी की ओर बढ़ाने वाली; अर्थ-काम को धर्म के अनुशासन में चलाकर मनुष्य मात्र की सच्ची स्वतंत्रता को बढ़ावा देने वाली अर्थव्यवस्था हमारे यहां अच्छी मानी गई है। हमारी आर्थिक दृष्टि में उपभोग नहीं, संयम का महत्व है। मनुष्य भौतिक साधन संपत्ति का विश्वस्त है, स्वामी नहीं। हमारी मान्यता है कि उसका संरक्षण-संवर्धन भी मनुष्य का कर्तव्य है। वह दृष्टि एकांतिक नहीं है। केवल पूंजीपति, व्यापारी, उत्पादक अथवा श्रमिक के एकतरफा हित की नहीं है। इन सब को ग्राहक सहित एक परिवार जैसा देखते हुए सब के सुखों की, संतुलित, परस्पर संबंधों पर आधारित वह दृष्टि है। समय की आवश्यकता है कि हम उस दृष्टि के आधार पर विचार करते हुए, विश्व के आज तक के अनुभव से जो नया-अच्छा सीखा, हमारी देशकाल परिस्थिति से सुसंगत है, उसको साथ जोड़ते हुए अपने देश में एक नई आर्थिक रचना खड़ी करके दिखाएं। समग्र व एकात्म विकास के नये धारणाक्षम प्रतिमान का प्रकटीकरण स्वाधीनता का स्वाभाविक परिणाम है, ‘स्व’ की दृष्टि का चिरप्रतीक्षित आविष्कार है।
जनसंख्या असंतुलन
आज की स्थिति में असंतुलित जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में स्थानीय हिन्दू समाज पर पलायन का दबाव बनने की, अपराध बढ़ने की घटनाएं सामने आयी हैं। प. बंगाल में विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा में हिन्दू समाज की दुरावस्था का, शासन- प्रशासन द्वारा हिंसक तत्वों को शह के साथ ही वहां जनसंख्या असंतुलन भी एक कारण था। इसलिए आवश्यक है कि सब पर समान रूप से लागू हो सकने वाली नीति बने।
पश्चिमी सीमा के उस पार
एक परिस्थिति, जो अप्रत्याशित तो नहीं थी, वह है अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनना। उनका अपना पूर्वचरित्र सबको तालिबान के बारे में आशंकित करने के लिए पर्याप्त है। अब तो उनके साथ चीन, पाकिस्तान तथा तुर्की के भी जुड़ने से एक अपवित्र गठबंधन बन गया है। हमारी पश्चिमी सीमा गंभीर चिंता का विषय बन रही है। हम आश्वस्त नहीं रह सकते। हमें अपनी सामरिक तैयारी चुस्त तथा सजग रखनी है। ऐसी स्थिति में देश के अंदर की सुरक्षा, व्यवस्था तथा शान्ति की ओर भी शासन, प्रशासन तथा समाज को पूर्ण सजगता व सिद्धता रखनी होगी। सुरक्षा के विषय में हमें शीघ्रातिशीघ्र स्वनिर्भर होना होगा। बातचीत का रास्ता खुला रखते हुए, सब संभावनाओं के लिए तैयार रहना होगा । राष्ट्रीय भाव के नागरिकों का मनोबल तोड़ने तथा आतंक के साम्राज्य को पुनर्स्थापित करने के लिए जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों ने उन नागरिकों-विशेषकर हिंदुओं-की लक्षित हिंसा का मार्ग फिर अपनाया है। अत: आतंकवादी गतिविधियों की समाप्ति के प्रयासों में अधिक गति लाने की आवश्यकता है ।
हिंदू मंदिरों का प्रश्न
राष्ट्र की एकात्मता, अखण्डता, सुरक्षा, सुव्यवस्था, समृद्धि तथा शान्ति के लिए चुनौती बनकर आने वाली अथवा लायी गयी आंतरिक अथवा बाह्य समस्याओं के प्रतिकार की तैयारी रखने के साथ ही हिन्दू समाज के कुछ प्रश्न भी हैं, जिन्हें सुलझाने की आवश्यकता है। दक्षिण भारत के मन्दिर पूर्णत: वहां की सरकारों के अधीन हैं। शेष भारत में कुछ सरकार के पास, कुछ पारिवारिक निजी स्वामित्व में, कुछ समाज के द्वारा विधिवत् स्थापित विश्वस्त न्यासों की व्यवस्था में हैं। प्रत्येक मन्दिर तथा उसमें प्रतिष्ठित देवता के लिए पूजा इत्यादि विधान की परंपराएं तथा शास्त्र अलग-अलग हैं, पर उसमें भी दखल देने के मामले सामने आते हैं। भगवान के दर्शन-पूजन जाति-पाति-पंथ को न देखते हुए सभी श्रद्धालुओं के लिए सुलभ हों, ऐसा सभी मन्दिरों में होना चाहिये। ‘सेक्युलर’ होकर भी केवल हिन्दू धर्मस्थलों को व्यवस्था के नाम पर दशकों, शतकों तक हड़पे रखना, अभक्त/अधर्मी/विधर्मी के हाथों उनका संचालन करवाना आदि अन्याय दूर हों, हिन्दू मन्दिरों का संचालन हिन्दू भक्तों के हाथों में रहे तथा हिन्दू मन्दिरों की सम्पत्ति का विनियोग भगवान की पूजा तथा हिन्दू समाज की सेवा तथा कल्याण के लिए ही हो, यह भी उचित व आवश्यक है।
जनसंख्या नीति में सुधार आवश्यक
जनसंख्या वृद्धि दर में असंतुलन
देश में जनसंख्या नियंत्रण हेतु किये विविध उपायों से पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में पर्याप्त कमी आयी है। लेकिन, इस सम्बन्ध में अ.भा. कार्यकारी मंडल का मानना है कि 2011 की जनगणना के पांथिक आधार पर किये गये विश्लेषण से विविध संप्रदायों की जनसंख्या के अनुपात में जो परिवर्तन सामने आया है, उसे देखते हुए जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। विविध सम्प्रदायों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व कन्वर्जन के कारण देश की समग्र जनसंख्या, विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है।
विश्व में भारत उन अग्रणी देशों में से था जिसने 1952 में ही जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी, परन्तु 2000 में ही वह एक समग्र जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन कर सका। इस नीति का उद्देश्य 2.1 की ‘सकल प्रजनन-दर’ की आदर्श स्थिति को 2045 तक प्राप्त कर स्थिर व स्वस्थ जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना था। परन्तु 2005-06 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के 0-6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आंकड़ों से ‘असमान’ सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का संकेत मिलता है। यह इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर के कारण देश की जनसंख्या में जहां भारत में उत्पन्न मत-पंथों के अनुयायियों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 से बढ़ कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।
इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बांग्लादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हाजरिका आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आये न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है। यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठिये राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे हैं तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तनावों का कारण बन रहे हैं।
पूर्वोत्तर के राज्यों में पांथिक आधार पर हो रहा जनसांख्यिक असंतुलन और गंभीर रूप ले चुका है। अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहां 1951 में 99.21 प्रतिशत थे, वे 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत ही रह गये। केवल एक दशक में ही अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहां 80 प्रतिशत से अधिक था वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है। उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में ईसाइयों की अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्षित मतांतरण की गतिविधि का ही संकेत देती है। अ.भा. कार्यकारी मंडल इन सभी जनसांख्यिक असंतुलनों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से आग्रह करता है कि:
- देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए।
- सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए। राष्ट्रीय नागरिक पंजिका का निर्माण कर घुसपैठियों को नागरिकता व भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए।
हमारी एकात्मता के सूत्र
शासन-प्रशासन के व्यक्ति अपना कार्य करेंगे तो सभी राष्ट्रीय क्रियाकलापों में समाज की मन, वचन तथा कर्म से सहभागिता महत्वपूर्ण होती है। कई समस्याओं का निदान तो केवल समाज की पहल से ही हो सकता है। इसलिए उपरोक्त समस्याओं के संदर्भ में समाज के प्रबोधन के साथ ही समाज के मन, वचन व आचरण में परिवर्तन की आवश्यकता है। अतएव इस अपने प्राचीन काल से चलते आये सनातन राष्ट्र के अमर स्वत्व की जानकारी, समझदारी पूरे समाज में ठीक से बननी चाहिए। हमारी संस्कृति भारत की सभी भाषिक, पांथिक, प्रांतीय विविधताओं को पूर्ण स्वीकृति, सम्मान तथा विकास के सम्पूर्ण अवसर सहित एक राष्ट्रीयता के सनातन सूत्र में गूंथकर जोड़ने वाली है। अपने मत, पंथ, जाति, भाषा, प्रान्त आदि छोटी पहचानों के संकुचित अहंकार को हमें भूलना होगा। बाहर से आये सभी सम्प्रदायों के मानने वाले भारतीयों सहित सभी को यह मानना-समझना होगा कि हमारी आध्यात्मिक मान्यता व पूजा पद्धति की विशिष्टता के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार से हम एक सनातन राष्ट्र, एक समाज, एक संस्कृति में पले-बढ़े समान पूर्वजों के वंशज हैं। उस संस्कृति के कारण ही हम सब अपनी अपनी उपासना करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह इतिहास का तथ्य है कि परकीय आक्रमणकारियों के साथ कुछ उपासना पद्धतियां भारत में आयीं। परंतु यह सत्य है कि आज भारत में उन उपासनाओं को मानने वालों का रिश्ता आक्रामकों से नहीं, देश की रक्षा के लिए उनसे संघर्ष करने वाले हिन्दू पूर्वजों से है। अपने समान पूर्वजों में हमारे सबके आदर्श हैं। इस बात की समझ रखने के कारण ही इस देश ने कभी हसनखां मेवाती, हाकिमखान सूरी, खुदाबख्श तथा गौसखां जैसे वीर, अशफाक उल्ला खान जैसे क्रांतिकारी देखे। अलगाव की मानसिकता, संप्रदायों की आक्रामकता, दूसरों पर वर्चस्व स्थापित करने की आकांक्षा तथा छोटे स्वार्थों की संकुचित सोच से बाहर आकर देखेंगे तो ध्यान में आयेगा कि दुनिया पर हावी कट्टरता, असहिष्णुता, आतंकवाद, द्वेष, दुश्मनी तथा शोषण के प्रलय से बचाने वाला कोई है तो वह है केवल भारत, उसमें उपजी, फली-फूली सनातन हिन्दू संस्कृति तथा सबका स्वीकार कर सकने वाला हिन्दू समाज।
उद्बोधन से पूर्व घोष प्रदर्शन का एक दृश्य
संगठित हिंदू समाज
हमारे देश के इतिहास में यदि कुछ अन्याय, हिंसा की घटनाएं घटी हैं, लम्बे समय से कोई अविश्वास, विषमता अथवा विद्वेष पनपता आया हो, तो उसके कारणों को समझकर उनका निवारण करते हुए परस्पर विद्वेष, अलगाव दूर हों। हमें ध्यान रखना है कि हमारे भेदों तथा कलहों का उपयोग कर हमें विभाजित कर रखने वाले, परस्पर प्रामाणिकता पर अविश्वास उत्पन्न करने वाले, हमारी श्रद्धा को नष्टभ्रष्ट करना चाहने वाले तत्व घात लगाकर हमारी भूल होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भारत की मूल मुख्य राष्ट्रीयधारा के नाते हिन्दू समाज यह तब कर सकेगा जब उसमें अपने संगठित सामाजिक सामर्थ्य की अनुभूति, आत्मविश्वास व निर्भय वृत्ति होगी। इसलिए आज जो अपने को हिंदू मानते हैं उनका यह कर्तव्य होगा कि वे अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक जीवन तथा आजीविका के क्षेत्र में आचरण से हिन्दू समाज जीवन का उत्तम रूप खड़ा करें । सब प्रकार के भय से मुक्त होना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर हमें शारीरिक, बौद्धिक तथा मानसिक बल, साहस, ओज, धैर्य तथा तितिक्षा की साधना करनी ही होगी। समाज का बल उसकी एकता में होता है, समाज के सामूहिक हित की समझदारी तथा उसके प्रति सबकी जागरूकता में होता है। यह बलोपासना किसी के विरोध या प्रतिक्रिया में नहीं, समाज की स्वाभाविक अपेक्षित अवस्था है। बल, शील, ज्ञान तथा संगठित समाज को ही दुनिया सुनती है। सत्य तथा शान्ति भी शक्ति के ही आधार पर चलती है। बल-शील संपन्न तथा निर्भय बनाकर, ‘ना भय देत काहू को, ना भय जानत आप’ जैसे हिन्दू समाज को खड़ा करना पडेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यही कार्य निरंतर गत 96 वर्षों से कर रहा है। आज के इस शुभ पर्व का भी यही संदेश है। नौ दिन देवों ने व्रतस्थ होकर, शक्ति की आराधना करते हुए, सभी की शक्तियों का संगठन बनाया। तभी विभिन्न रूपों में मानवता की हानि करने वाला संकट संपूर्ण विदीर्ण हुआ। आज वैश्विक परिस्थिति की भारत से अनेक अपेक्षाएं हैं, भारत को उसके लिए सिद्ध होना है। हमारे समाज की एकता का सूत्र अपनी संस्कृति, समान पूर्वजों के गौरव की मन में उठने वाली समान तरंग तथा अपनी इस परम पवित्र मातृभूमि के प्रति विशुद्ध भक्तिभाव यही है। हिंदू शब्द से वही अर्थ अभिव्यक्त होता है। हम सब इन तीन तत्वों से तन्मय होकर, अपनी अपनी विशिष्टता को हमारी इस अन्तर्निहित सनातन एकता का शृंगार बनाकर संपूर्ण देश को खड़ा कर सकते हैं। यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है। उस तपस्या में आप सबके योगदान की समिधा भी अर्पण करें, ऐसा मेरा निवेदन है।
भ्रांति जनमन की मिटाते क्रांति का संगीत गाते
एक के दशलक्ष होकर कोटियों को हैं बुलाते
तुष्ट मां होगी तभी तो विश्व में सम्मान पाकर।
बढ़ रहे हैं चरण अगणित बस इसी धुन में निरन्तर
चल रहे हैं चरण अगणित ध्येय के पथ पर निरन्तर।
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