आराधना शरण
नृत्य, चेतना के उच्च स्तर पर पहुंचने का साधन है। वैदिक या पौराणिक साहित्य, सभी में नृत्य और गायन को उपासना के रूप में स्वीकार किया गया है। अपनी नई पुस्तक ‘शास्त्रीय नृत्यकारों से अंतरंग संवाद’ में लेखिका ने विभिन्न नृत्य शैलियों की पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की शोधपरक जानकारी दी है। साथ ही प्रतिष्ठित कलाकारों के संवाद के जरिए समाज में नैतिक मूल्यों के पोषण की बात उठाई है
शशिप्रभा तिवारी की पुस्तक ‘शास्त्रीय नृत्यकारों से अंतरंग संवाद’ जैसे ही हाथों में आती है, इसका बेहद खूबसूरत आवरण मन मोह लेता है और अपना परिचय खुद ही पेश करने लगता है। छाया से प्रकाश में आते घुंघरुओं की जीवंत तस्वीर खुद ब खुद बांचने लगती है शास्त्रीय नृत्य की उत्पत्ति से लेकर उसके दर्शन और व्यावहारिक जगत से जुड़े उसके सरोकारों की विस्तृत कथा। किताब की पृष्ठ दर पृष्ठ यात्रा के हर पड़ाव पर लेखिका का विभिन्न नृत्य शैलियों की महान विभूतियों के साथ किया गया संवाद हमारे शास्त्रीय नृत्यों के इतिहास की पौराणिक काल से वर्तमान तक की यात्रा-कथा थमा जाता है। लेखिका ने भूमिका में कहा है कि नृत्य एक पूर्ण कला है जो हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है। वे भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाट्य जिसका अर्थ भरत काल में नर्तन था, की परिभाषा को उद्धृत करती हैं कि नाट्य के संसार में न ऐसा कोई ज्ञान है, न ऐसा कोई शिल्प, न कोई ऐसी विद्या है, न कोई ऐसी कला, न कोई ऐसा कर्म और न ही कोई ऐसा योग जो इसमें शामिल न हो। नृत्य इनसानी काया के अंगों से अभिव्यक्त होने वाली मुद्र्राएं और ताल-लयबद्ध क्रियाएं हैं जो नृत्य सम्राज्ञी और राज्यसभा सांसद सोनल मानसिंह के अनुसार ‘अपने अंदर के ईश्वर को प्रदर्शित करने का माध्यम है’।
किताब में बताया गया है कि प्रचलित धारणा से इतर शास्त्रीय नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं पनपा, बल्कि नृत्य के देवता स्वयंभू नटराज की तरह स्वयंमेव ही जन्मा—प्रकृति की एक सहज नैसर्गिक क्रिया के रूप में सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न सामाजिक स्थितियों से सामंजस्य स्थापित करते हुए मूल स्वरूप में नए आयाम जोड़ता भारतीय संस्कृति के अहम तत्व के रूप में एक सतत चलायमान परंपरा के रूप में प्रवाहमान रहा है। शास्त्रीय नृत्य को लेखिका ने एक ऐसी कला के तौर पर दर्शाया है जो मनोरंजन के उद्देश्य से नहीं, बल्कि चेतना के उच्च स्तर पर पहुंचने का साधन है। वैदिक या पौराणिक साहित्य, सभी में नृत्य और गायन को उपासना के रूप में ही स्वीकार किया गया है। शास्त्रीय नृत्य को जीवन की तपस्या मानने वाली अनीता सरमा वेद सूक्त ‘गीतायसूतं, नृत्याय शैलूषं’ को उद्धृत करते हुए भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से नृत्य की परिभाषा पेश करती है कि नाट्य यश देने वाला, दीर्घायु देने वाला, समाज का हित करने वाला और बुद्धि बढ़ाने वाला ऐसा साधन होगा जो समस्त लोक को उपदेश का अमृत भी पिलाता रहेगा। ‘नृत्य और संगीत में कलाकार मन की समाधि लगाता है जो आनंद के रूप में सार्वजनिक होकर कलाकार और दर्शक दोनों तक पहुंचती है। साथ ही नृत्य जनजीवन से संबंधित रहे हैं, वे कृषि बोध के साथ परिष्कृत हो स्थिर जीवन की आवश्यकता पर बदले हैं या परिष्कृत रूप से चल रहे हैं।
पुस्तक में दर्शाया गया है कि नृत्य शैलियों में कथक पौराणिक काल के मूल कलेवर में जहां कथावाचन के तौर पर आजीविका निर्वाह का एक आयाम पेश करता है और कथक कलाकार मंदिरों में भावविभोर हो अपना नृत्य प्रदर्शन करके भगवान को रिझाने का प्रयास करते दिखते हैं, वहीं मोहिनीअट्टम में केरल के प्राकृतिक सौंदर्य और भौगोलिक प्रतीकों की ज्यामितीय गति और तकनीकी पक्ष सिमट आता है। लेखिका नृत्य की भाव-भंगिमाओं और मुद्र्राओं के खास वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी सामने रखने का प्रयास करती हैं जिसके जरिए इनसानी नवरस भावों की अभिव्यक्ति साकार होती है। यह पुस्तक विभिन्न नृत्य शैलियों का उनकी उत्पत्ति और इनसानी जीवन के साथ जुड़े अंतर्निहित सरोकारों का परिचय देती है। यह हमारी आधुनिक पीढ़ी को कला की समृद्ध विरासत का ज्ञानकोश सौंपती है। नृत्यों के प्रसिद्ध कलाकारों की अभिव्यक्ति और उनके संस्मरणों की दिलचस्प झांकियों को देखने के लिए पाठकों में अगले पृष्ठ को लेकर उत्सुकता बरकरार रहती है। चाहे कथक सम्राज्ञी एवं विदुषी सितारा देवी की सरल, आत्मीय बातचीत हो या कथक को जीवन मानने वाले कथक सम्राट बिरजू महाराज की पुरानी यादों की मंजूषा या फिर जीवन में शुभता और शुभ्रता को अहम मानने वाली सुप्रसिद्ध नृत्यांगना शोवना नारायण की जीवन की घटनाओं से स्पंदित हो रहे मन की अभिव्यक्ति या ‘गुरु बिना ज्ञान नहीं’ का पाठ दे रही उमा डोगरा का गुरु के प्रति समर्पित भाव हो जो जीवन में मार्गदर्शन के लिए गुरु चरणों में नतमस्तक हो ऐसे ही अनेक प्रकरण।
पुस्तक में विभिन्न प्रतिष्ठित कलाकारों की नृत्य अभिव्यक्तियों में आधुनिक समाज में धूमिल होते रहे नैतिक मूल्यों, तनाव और क्रोध की तपिश और आत्मीयता एवं संवेदनशीलता के अभाव को लेकर व्यथा झलकती है। उनमें से कई का मानना है कि जिस तरह नृत्य साधना अनुशासन सिखलाती है और व्यक्तित्व में संयम और धैर्य का पोषण करती है, वैसे ही युवा पीढ़ी को अनुशासित होकर संस्कारों का पालन करना चाहिए जिससे एक सुदृढ़ समाज तैयार हो सके। भरतनाट्यम नृत्यांगना प्रतिभा प्रह्लाद कर्मयोग और सामाजिक जुड़ाव का संदेश देती हैं। तो छोटी-छोटी धाराओं से जुड़कर बनी नदी के पानी का संदेश समाज को सौंपती हैं कि निरंतर काम करो। किंवदंती बन चुकी सितारा देवी के शब्दों में नृत्य कला एक ऐसी विद्या है जो जीवन भी है, संस्कार भी और संस्कृति भी, इसलिए अमर है। भरतनाट्यम नृत्यांगना गीता चंद्र्रन भी नृत्य को अमरता का परिचायक मानती हैं।
लेखिका ने विभिन्न नृत्य शैलियों की पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की शोधपरक जानकारी पेश की है। साथ ही प्रतिष्ठित कलाकारों से संवाद के जरिए समाज में नैतिक मूल्यों के पोषण की बात उठाई गई है। कई कलाकारों ने त्योहारों को पुराने तरीके से मनाने की अहमियत पर ध्यान आकर्षित किया है जिसमें आपसी मेलजोल और आत्मीयता के इंद्रधनुषी रंगों में सब सराबोर हो जाते थे।
देश के नामचीन नृत्य कलाकारों के जीवन के रोचक प्रसंगों, उनकी संघर्ष यात्रा और उससे उबरने की कहानी और नृत्य साधना के जरिए चैतन्य अवस्था की प्राप्ति के आयामों को प्रस्तुत करने वाली यह किताब एक ज्ञानवर्धक कोश है जिसमें सुप्रसिद्ध नृत्यकारों ने जहां एक तरफ कर्मयोग, ईश्वर भक्ति, संस्कारों के पोषण के पाठ के साथ नृत्य को जीवन की तपस्या के तौर पर पेश किया है, वहीं शिव के सर्वभाव के बारे में बताते हुए नृत्य देवता नटराज को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की प्रेरणा देने वाला कहा है जो जीवन में आनंद का संचार करते हैं और यही है जीवन का मूल उद्देश्य जिसे लेखिका ने बखूबी अभिव्यक्त किया है।
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