प्रशांत बाजपेई
तोपों के मुंह पर बंधे काली की आराधना करने वाले ये पिता-पुत्र भारत की जन चेतना के दिए हैं.सच्चे इतिहास पर जानबूझकर डाली गई गर्द झाड़ी जा रही है. छद्म बुद्धिजीविता और मतलबपरस्तों की तिलमिलाहट पर मुस्कुराता हुआ देश जिज्ञासा के साथ अतीत के पन्ने पलट रहा है.
वास्तविक इतिहास को उजागर करने का ऐतिहासिक कार्य गति पकड़ चुका है. सरदार पटेल के विराट कार्य को सम्मान देता स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी, स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर चल रहे कार्यक्रम, यूजीसी के इतिहास पाठ्यक्रम में राष्ट्रनायकों को उनका बहुप्रतीक्षित स्थान मिलना, नेताजी सुभाष के योगदान को देश के सामने लाने के लिए अब तक उपेक्षित किए गए तथ्यों को सामने लाने के प्रयास, अलीगढ़ में क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के नाम से विशाल विश्वविद्यालय का प्रधानमंत्री के हाथों शिलान्यास, प्राचीन नगरों को उनके वास्तविक नामों को लौटाया जाना सदियों से हुए अन्याय, अत्याचार और झूठ के परिमार्जन की शुरुआत है. जो नायक और बलिदानी लोगों के दिलों में धड़कते रहे, उन्हें इतिहास के अंधेरों में धकेलकर और जो संस्कृति देश की रगों में बहती रही, उसे झुठलाकर, धूल डाली जाती रही.इसी क्रम में 18 सितंबर को गृहमंत्री अमित शाह ने जबलपुर पहुंचकर 1857 स्वातंत्र्य समर के बलिदानी, राजा शंकरशाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथशाह को श्रद्धासुमन अर्पित किए.पाठ्यक्रमों और तथाकथित इतिहासकारों द्वारा जानते-बूझते भुला दिए गए हजारों बलिदानियों में ये वीर पिता-पुत्र भी शामिल हैं.गाथा लोमहर्षक है.
सिंह हृदय
जब देश में 1857 की क्रांति ज्वाला पूरी शक्ति के साथ धधक रही थी, और कमल तथा रोटी का संदेश गांव-गांव पहुंच रहा था, तब गढ़ा पुरवा (जबलपुर) के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह के ह्रदय में भी स्वतंत्रता की अग्नि सुलग रही थी। वे जबलपुर की अंग्रेज सैन्य छावनी पर आक्रमण कर वहां तैनात भारतीय सैनिकों की मदद से अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे थे। किसी तरह अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई।
बस फिर क्या था गुप्तचरों ने गढ़ा-पुरवा के अंदर-बाहर घेरा डाल दिया। सही मौके की प्रतीक्षा की जाने लगी। अंततः 14 सितम्बर, 1857 की मध्यरात्रि को डिप्टी कमिश्नर क्लार्क 20 घुड़सवार व 40 पैदल सिपाहियों के साथ राजा शंकरशाह की गढ़ी पर टूट पड़ा। राजा शंकरशाह उसके पुत्र रघुनाथशाह और 13 अन्य लोगों को गिरफ्तार कर बन्दी गृह में डाल दिया। पूरे घर की तलाशी ली गयी। संदिग्ध सामग्री की जप्ती की गयी। जिसमें राजा द्वारा अपने सरदारों को लिखा हुआ आज्ञा पत्र और मां काली को संबोधित करके अंग्रेजों के नाश की कामना करते हुए उनके द्वारा लिखी गई यह कविता उनके हाथ लगी:-
मूंद मुख दंडिन को चुगलों को चबाई खाइ,
खूंद दौड़ दुष्टन को, शत्रु संहारिका।
मार अंग्रेज, रेज, कर देई मात चण्डी,
बचै नहीं बैरि, बाल बच्चे संहारिका।
संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपालकर
दीन की सुन आय मात कालिका।
खायइ लेत मलेछन को, झेल नहीं करो अब
भच्छन कर तच्छन धौर मात कालिका।…
इस कविता को आधार बनाकर मुक़दमा चलाया गया। पिता-पुत्र को पीली कोठी में बंदी बनाकर रखा गया था। इमलाई राजवंश के वंशज बतलाते हैं कि उनके सामने तीन शर्तें रखी गयी थीं, जो इस प्रकार थीं- पहली, अंग्रेज़ों से संधि, दूसरी, अपने धर्म का त्याग कर ईसाइयत को अपनाना और तीसरी, पुरस्कार स्वरूप ब्रिटिश सत्ता से पेंशन प्राप्त करना। स्वाभिमानी राजा शंकरशाह ने साफ़ इंकार कर दिया।
तब अंग्रेज सत्ता ने डिप्टी कमिश्नर क्लार्क व दो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों का सैनिक आयोग बनाया। राजा व उनके अन्य साथियों पर अभियोग चलाने का प्रहसन कर निर्णय दिया गया कि शंकरशाह और रघुनाथशाह को 'बगावत' के अपराध में तोप के मुँह से बांधकर मृत्युदण्ड दे दिया जाए।
18 सितम्बर, 1857 को एजेंसी के सामने फांसी परेड हुई और एक अहाते में आमंत्रित जन-समुदाय के बीच पैदल व घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों के साथ शंकरशाह एवं रघुनाथ शाह को लाकर हथकड़ियां, बेड़ियां खोलकर तोप के मुंह पर बांध दिया गया।
तोप के मुहाने खड़े होकर राजा शंकरशाह ने अपनी कविता की उपरोक्त पंक्तियों का पाठ किया.आगे की पंक्तियां बेटे रघुनाथशाह ने गायीं–
कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर ले।
सत्य के प्रकासन औ असुर बिनासन कौ
भारत समर माँहि चण्डिके संवर ले।
झुण्ड-झुण्ड बैरिन के रुण्ड मुण्ड झारि-झारि
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर ले।
कहै रघुनाथ माँ फिरंगिन को काटि-काटि
किलिक-किलिक माँ कलेऊ खूब कर ले।।…
फिर तोपें दागी गईं, और धमाके के साथ राजा व राजकुमार का रक्त व मांस मैदान में बिखर गया. तारीख थी 18 सितंबर 1858. अपने राजा के पदचिन्हों पर चलकर बलिदान होने वाले नागरिकों में समाज के सभी वर्गों के नागरिक और राजकर्मचारी शामिल थे।
आग भड़क उठी
राजा शंकर देव की पत्नी फूलकुंवर ने अपने पति के बलिदान होने के बाद स्वतंत्रता की अग्नि को प्रज्ज्वलित रखा। विधवा रानी फूलकुंवरबाई ने शवों के अवशेष एकत्र कर उनका अन्तिम क्रिया कर्म करवाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेरी सांसें रहेगी यह युद्ध जारी रहेगा। फिरंगियों से बदला लेने के संकल्प के साथ वे मण्डला आ गयीं। उन्होंने सेना को संगठित कर फिरंगियों के खिलाफ छापामार युद्ध छेड़ दिया और अंततः आत्मोत्सर्ग किया। इस बलिदान श्रृंखला ने जबलपुर छावनी में तैनात अंग्रेजी सेना की 52वीं रेजीमेंट के भारतीय सैनिकों के ह्रदय में क्रांति की ज्वाला जगा दी। उन्होंने राजा शंकर शाह को अपना राजा घोषित कर दिया और अंग्रेजी राज के विरुद्ध शस्त्र उठा लिए। 52वीं रेजीमेंट ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उठ खड़ी हुई और हथियार, गोलाबारूद लेकर पाटन की ओर चल पड़ी। पाटन और स्लीमनाबाद स्थित सैनिक दस्ते भी 52वीं रेजीमेंट के विद्रोही सैनिकों के साथ चल पड़े। राजा के बलिदान से महाकौशल क्षेत्र के अन्य राजाओं में अंग्रेजी राज के विरुद्ध रोष भड़क उठा। सागर, दमोह, सिहोरा, सिवनी, छिंदवाड़ा, मंडला, बालाघाट, नरसिंहपुर आदि स्थानों पर क्रांति की चिंगारियां फूटने लगीं।
इस बलिदान के नौ दशक बाद जब लालकिले में आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों पर अंग्रेज सरकार मुक़दमा चला रही थी और इन सेनानियों के समर्थन में नौसेना के भारतीय सैनिकों ने बगावत कर दी तब भी जबलपुर की छावनी ने देश के लिए त्याग और बलिदान की परंपरा कायम रखी. 26 फरवरी, 1946 को जबलपुर की ब्रिटिश सैन्य छावनी में सिग्नल ट्रेनिंग सेंटर की 'जे' कंपनी के 120 सैनिकों ने अंग्रेज सत्ता के विरुद्ध बगावत की तब भी उन्होंने बलिदानी शंकरशाह और रघुनाथ शाह को अपना नायक घोषित किया था। अंग्रेज सरकार सकते में आ गई और उसे 1857 की पुनरावृत्ति के दुःस्वप्न आने लगे। इन सबका तत्काल कोर्टमार्शल हुआ और सेना से निकालकर इस घटना संबंधी दस्तावेज जला दिए गए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन्हें पुनः सेना में बहाल किया गया।
स्वतंत्रता पश्चात दो तरह के षड्यंत्र
अंग्रेजों ने इस इतिहास को दबाकर रखने का प्रयास किया, ये तो समझ आता है, लेकिन स्वतंत्रता पश्चात भी यही क्रम जारी रहा, क्योंकि जिनके हाथों सत्ता आई, उन्हें स्वतंत्रता संग्राम को अपने राजनैतिक स्वार्थों की दृष्टि से चित्रित करना था. घरानों को श्रेय देना था, ताकि सत्ता स्थिर रहे. असहज करने वाले सवाल न पूछे जाएं. इसलिए राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह उपेक्षित रहे. ये पहला षड्यंत्र था. पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय संगठनों ने इस कथा को लोगों के बीच ले जाना प्रारंभ किया. उनके बलिदान दिवस 18 सितंबर को कार्यक्रम आयोजित होने प्रारंभ हुए. धीरे-धीरे लोगों में जागरूकता आने लगी.
दूसरे तरह का षड्यंत्र छद्म बुद्धिजीविता, वामपंथी-माओवादी गिरोह और जनजातीय वोटों का सौदा करने के लिए बने दलों ने किया. जनजातियों की सनातन पहचान को मिटाकर हिंदू समाज को तोड़ने का कुचक्र चलाया गया. वेदों के गुणवाचक “आर्य” संबोधन को जातिवादी/ नस्लवादी बताकर अंग्रेजों द्वारा गढ़े काल्पनिक इतिहास को घोंटा और घुटाया गया. “आर्यों के आक्रमण” की काल्पनिक कहानी को तथ्य बताकर पेश किया गया. इस आर्यों के इस तथाकथित आक्रमण के विरोध में स्वामी विवेकानंद और डॉ आम्बेडकर के बयानों को छिपा लिया गया. वामपंथी गिरोह भारत के अनुसूचित जाति व जनजाति समाज को असुरों का वंशज बतलाने लगा, जिनके खिलाफ आर्यों के देवताओं व देवियों ने युद्ध छेड़ा था. महिषासुर बलिदान दिवस, होलिका शहादत दिवस मनाए जाने लगे. उनके सिखाए-पढ़ाए कुछ जनजातीय नेताओं ने इस दुष्प्रचार को हवा देने की कोशिशें शुरू कर दीं. कन्वर्जन के धंधे में लगे लोग भी अपनी रोटियाँ सेंकने इस छद्म युद्ध में कूद पड़े. “जनजातीय लोग हिंदू नहीं हैं” ऐसा अनर्गल प्रचार शुरू हो गया.
इसी क्रम में मुगलों से लोहा लेने वाली बलिदानी गोंड साम्राज्य की महारानी, रानी दुर्गावती और इसलिए राजा शंकरशाह तथा कुँवर रघुनाथशाह को सिर्फ जनजातीय लोगों की प्रेरणा बतलाना, उन्हें अहिंदू बतलाने का खेल शुरू हुआ. क्या रानी दुर्गावती के नाम में आया “दुर्गा” शब्द झुठलाया जा सकता है ? राजा शंकरशाह तथा कुँवर रघुनाथ शाह के नाम में आए शिव और श्रीराम के नाम क्या अहिंदू पहचान बतलाते हैं ? राजा शंकरशाह तथा कुँवर रघुनाथशाह ने अंतिम क्षणों में माँ काली- भवानी आदि नाम लेना, सत्य के प्रकाश और असुरों के विनाश की प्रार्थना, भारत के स्वतंत्रता समर के लिए चंडी से सुसज्जित होने की जो विनती की, क्या कोई गैर हिंदू ऐसा करेगा ? मंडला जिले स्थित गोंड राजवंश के दुर्ग में उनकी कुलदेवी 18 भुजाओं वाली राजराजेश्वरी का मंदिर है. प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है. गर्भगृह की दीवारों पर राम दरबार, हनुमान, दुर्गा, विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य, नर्मदा आदि की प्राचीन प्रतिमाएँ हैं. बुर्ज के पास पंचमुखी महादेव, शीतला माता का मंदिर, व्यास नारायण मंदिर हैं. ऐसे अकाट्य तथ्यों को किनारे कर जनजातीय युवाओं की आँखों में धूल झोंककर हिंदू समाज को खंडित करने की साजिशें चल रही हैं. ऐसे में समाज में बढ़ती इतिहास चेतना और देश के शासकों द्वारा इतिहास का परिमार्जन के, वास्तविक इतिहास को सामने लाने के प्रयास सुखद अनुभूति दे रहे हैं. तोपों के मुँह पर बंधे काली की आराधना करने वाले ये पिता-पुत्र भारत की जन चेतना के दिए हैं. सच्चे इतिहास पर जानबूझकर डाली गई गर्द झाड़ी जा रही है. छद्म बुद्धिजीविता और मतलबपरस्तों की तिलमिलाहट पर मुस्कुराता हुआ देश जिज्ञासा के साथ अतीत के पन्ने पलट रहा है.षड्यंत्र चटखने लगे हैं.
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