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होम विश्व

बुर्केमें कैद नारीवादी आजादी

by WEB DESK
Sep 19, 2021, 09:32 pm IST
in विश्व, दिल्ली
अफगानिस्तान की पहली ‘स्ट्रीट आर्टिस्ट’ शमसिया हस्सानी का बनाया चित्र

अफगानिस्तान की पहली ‘स्ट्रीट आर्टिस्ट’ शमसिया हस्सानी का बनाया चित्र

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सोनाली मिश्र


एक तरफ जहां अफगानिस्तान में तालिबानी शासन आने के बाद औरतें दहशत में हैं और दिन-प्रतिदिन भयावह किस्से सामने आ रहे हैं, वहीं भारत में हिंदू परंपराओं को कोसने वाले वामी इस्लामी नारीवादी नए और बेहतर तालिबान का स्वागत करते दिख रहे हैं और कह रहे हैं कि कम से कम तालिबानियों ने पढ़ने की छूट तो दी


 

अफगानिस्तान में तालिबानी शासन अब एक सच्चाई है और वहां के नागरिकों को ही इसके साथ नहीं रहना है बल्कि भारत के हिन्दुओं को भी एक ऐसे बड़े वर्ग का सामना करना है, जिसके दिल में तालिबानियों के प्रति प्रेम है और वह उनके लिए केवल लड़ाके या भटके हुए लोग हैं। अफगानिस्तान में जैसे ही तालिबान का शासन आया, वैसे ही एक बड़ा वर्ग प्रसन्न हो उठा। वही वर्ग, जो भारत में औरतों की आजादी को लेकर आन्दोलन करता है और हिन्दुओं को हर समय कोसता रहता है, वह अचानक से उठकर उस तालिबान के पक्ष में आ गया, जो औरतों को हर तरह से परदे में कैद रखते हैं।
 

ऐसे में जो स्वतंत्र विचारों वाली औरतें थीं, उन्होंने अफगानिस्तान छोड़ना जरूरी समझा। भारत आई एक अफगानी महिला का वीडियो बहुत वायरल हुआ, जिसमें उसने यह कहा था कि औरतों की लाशों तक के साथ बलात्कार करते हैं ये लोग। धीरे-धीरे और कहानियां सामने आ रही हैं। 18 अगस्त को एक महिला नाजिया की केवल इसलिए पीट-पीट कर हत्या कर दी गई थी क्योंकि उसने तालिबानी आतंकियों के लिए खाना पकाने से इनकार कर दिया था। उत्तरी अफगानिस्तान में एक छोटे-से गांव में नाजिया अपने तीन छोटे बेटों और एक बेटी के साथ थी।उसे पंद्रह आतंकियों के लिए खाना पकाने के लिए कहा गया, जब नाजिया ने कहा कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं, तो उसे मारा-पीटा गया और नाजिया की मौत हो गई।
 

दशहत में औरतें और ‘बेहतर तालिबान’ का राग औरतें दहशत में थीं, एक ओर तस्वीरें आ रही थीं भागते आदमियों की, मगर औरतें? वे कहां थीं? क्या अफगानिस्तान में आदमी अपनी औरतों को छोड़कर भाग गए थे? या क्या कहानी थी, यह अभी तक सामने नहीं आ पाई है। सामने आती हैं तो औरतों के दमन की ढेरों कहानियां। और एक ओर पश्चिमी मीडिया ‘नए और बेहतर तालिबान’ का राग अलाप रहा था तो वहीं तालिबान बार-बार यही कह रहा है कि औरतों की जगह कहां पर है? मगर एक हिंदी दैनिक में एक तालिबानी लड़ाके के साक्षात्कार में यह कहा गया है कि ‘‘हमारी मांओं के दिल बहुत बड़े हैं, जब वह अपने बेटों को तालिबान के लिए, देश के लिए लड़ते हुए देखती हैं, तो उन्हें खुशी होती है, वह उनकी शहादत का जश्न मनाती हैं।’’
 

यह एक अजीब विरोधाभास है। एक ओर तालिबानी आतंकी हैं, जो औरतों के अधिकारों को केवल बच्चे पैदा करने से अधिक नहीं मानते हैं। अर्थात उनका मानना है कि औरतों का काम केवल बच्चे पैदा करना है, उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिलेगा।
 

यह बात मान ली जाए कि औरतें केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं, तो तालिबान ने तो एक गर्भवती पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी थी। क्या उसका बच्चा, बच्चा नहीं था? या फिर उन्हें केवल वही बच्चे चाहिए जो आगे जाकर उनके लिए लोगों को मार सकें।
 

एक और तस्वीर हाल ही में चर्चित हुई जिसमें औरतों के लिए पढ़ना तो तालिबान ने स्वीकार कर लिया है, परन्तु औरतों के लिए कई कट्टर नियम बना दिए हैं। तालिबान की अंतरिम सरकार के शिक्षा मंत्री ने कहा कि महिलाएं पढ़ सकती हैं मगर उनके लिए इस्लामी पोशाक पहनना अनिवार्य होगा, महिला विद्यार्थियों को हिजाब पहनना होगा और सह शिक्षा नहीं होगी।
 

कुल मिलाकर स्वतंत्र विचारों वाली औरतों के लिए एक अफगानिस्तान में औरतों की अजीबोगरीब स्थिति है, परन्तु सबसे हैरान करने वाली तस्वीर भी अफगानिस्तान की औरतों की तरफ से आई है। इसमें उन्होंने तालिबानियों का समर्थन किया है और यह कहा है कि हिजाब न पहनने वाली औरतें अफगानी औरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं।
 

सिर से लेकर पैर तक शरीर का एक भी अंग न दिखने वाली पोशाक पहने लगभग 300 अफगानी औरतों ने तालिबानी शासन के पक्ष में जुलूस भी निकाला और कहा कि अब उनके लिए जीवन सहज हो जाएगा। उन्होंने कहा कि इस्लाम में बिहिजाबी नहीं हो सकती और ऐसा करने वाली औरतें उनकी आवाज नहीं हैं।
 

मगर जो औरतें सड़कों पर अधिकारों के लिए उतरी हैं, उनमें से किसी के सिर से भी हिजाब नहीं उतरा है, और सभी औरतें इस्लामी पोशाक में ही आन्दोलन करती हुई अपने लिए अधिकार मांग रही हैं, और उसके लिए पिट भी रही हैं।

कथित स्वतंत्रता के भारतीय पैरोकारों का रवैया ऐसे में भारत में कथित स्वतंत्रता के पैरोकारों का दृष्टिकोण उजागर करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यही वे लोग हैं, जो बार-बार हिंदुवादियों को तालिबानियों के समकक्ष रख देते हैं। जैसे स्वरा भास्कर ने कहा कि हिन्दू कट्टरपंथियों पर चुप क्यों रहा जाए? जावेद अख्तर ने भी आरएसएस और तालिबान की तुलना कर दी और इसके साथ ही अशरद मदनी ने तालिबान को दहशतगर्द मानने से इनकार कर दिया और कहा कि अगर आजादी के लिए लड़ना दहशतगर्दी है तो फिर नेहरू और गांधी भी दहशतगर्द थे।
 

यह संयोग मात्र नहीं हो सकता कि जिन लोगों को भारत में कट्टरवाद दिखता है, वही लोग अफगानिस्तान में तालिबान से खुश हैं। इतना ही नहीं, जब नसीरूद्दीन शाह जैसे लोग बस एक पंक्ति यह बोल देते हैं कि तालिबान का समर्थन करने वाले लोग आत्मविश्लेषण करें, तो अरफा खानम जैसी औरतें नसीरूद्दीन शाह को ही नसीहतें देने लगती हैं। परन्तु सबसे ज्यादा हैरानी भारत के नारीवादियों पर होती है। इस्लाम से डरने वाला या कहें, कट्टर इस्लाम को धारण कर चुका वामपंथी नारीवाद आज जहां पर आ चुका है, वहां से शायद नीचे नहीं जा सकता।
 

सीरिया के एक बच्चे एलन कुर्दी पर दहाड़ें मार-मार कर रोने वाले नारीवादियों तक उस लड़की की चीखें नहीं आ पातीं, जिसे निकटवर्ती अफगानिस्तान में जो एक समय भारत का ही हिस्सा था, जिसका साझा इतिहास है, जिसमें हमारी धरोहरें अभी तक जीवित हैं, सांसें ले रही हैं, एक लड़की को मात्र इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि उसने हिजाब नहीं पहना था।

हिन्दुओं को हर मूल्य पर बलात्कारी और पिछड़ा ठहराने वाली ये नारीवादी औरतें उस पिछड़ेपन पर नहीं बोल रहीं, जो उन्हीं की बहनों को सिर से लेकर पैर तक काले लबादे में कैद कर चुका है और सांस तक लेने की अनुमति नहीं दे रहा है, मगर भारत की वामपंथी नारीवादी ललनाएं चुप लगाए हैं।
 

वे क्यों नहीं बोल रहीं, ऐसा प्रश्न कई लोग कर रहे हैं। इसका उत्तर शायद वर्तमान में नहीं है। इसका उत्तर इतिहास में है, इसका उत्तर उस रिलीजियस टेक्स्ट में है, जिसमें पश्चिम में औरतों को आत्मा ही नहीं माना जाता था। और औरत के कारण ही चूंकि आदमी को स्वर्ग से बाहर आना पड़ा था तो औरत को दंड का अधिकारी बताया गया था। जब ऐसी मानसिकता वाले पश्चिम ने हरम के संसार को देखा, तो वह हरम की ओर आकर्षित हो गया। विक्टोरिया युग में तो हरम को लेकर एक अजीब सी रूमानियत ही फैली हुई थी। अत: उस मानसिकता से प्रेम करने वाले पश्चिम ने कभी सनातनी स्त्री की स्वतंत्रता को अनुभव ही नहीं किया, जो विमर्श उत्पन्न हुआ वह या तो इस विचार से उत्पन्न हुआ कि औरतों में आत्मा नहीं होती या फिर हरम में आजादी होती है।
 

पति के अतिरिक्त किसी पुरुष को हाथ लगाने से बेहतर प्राणों को त्याग देना है, इस सनातनी हिन्दू दर्शन को उस मानसिकता ने समझा ही नहीं, जिसके लिए जीवन केवल यौन कुंठा से अधिक कुछ था ही नहीं। जो नारीवादी हैं, वह भी इसलिए नहीं बोल पा रही हैं क्योंकि उनके आदर्श प्रभु श्रीराम, पत्नी के लिए रोने वाले शिव नहीं हैं, बल्कि 5000 से लेकर 7000 औरतों को हरम में रखने वाले अकबर और जहांगीर हैं, उनके दिमाग में औरंगजेब को लेकर कल्पनाएं हैं। उनके दिमाग में हरम को लेकर यह रूमानियत पनपी हुई है कि वहां पर औरतों का एक आजाद संसार होता था और वे कुछ भी कर सकती थीं।
 

निजी तौर पर पर्दा ही तो रखना है, जो उनका स्पेस है, उसमें वह आजाद हैं! एक नारीवादी के लिए आजादी की परिभाषा यह है, जबकि सनातनी हिन्दू में स्वतंत्रता तो स्वभाव में है, आचरण में है। स्वतंत्रता सुलभा सन्यासिनी में, जो अपने मन से विवाह न कर पूरी धरती पर स्वतंत्र विचरण करती हैं। और विवाह उन्होंने इसलिए नहीं किया क्योंकि कोई विवशता है, बल्कि इसलिए नहीं किया क्योंकि उन्हें स्वयं के योग्य कोई नहीं मिला। स्वतंत्रता सावित्री में हैं जिनके पिता ने ही उनसे कहा कि हे पुत्री! अपने लिए अपने योग्य वर का चुनाव तुम स्वयं करो!
 

यह सनातनी स्त्री का बौद्धिक सौन्दर्य है। परन्तु नारीवादियों और बौद्धिकता का आपस में कोई संबंध नहीं है। उनके लिए बौद्धिकता का अर्थ है उनकी यौन इच्छाओं की संतुष्टि होना, और जब तक वह हो रहा है, तब तक कोई उन्हें परदे में रखे, मारपीट कर रखे या फिर ताले में योनि को बंद कर दे, ये औरतें नहीं बोलेंगी।
 

यह औरतें परदे में लिपटी हुई उन औरतों के लिए यह नहीं बोलेंगी कि ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे!’

आजाद लबों पर वह औरंगजेब को आदर्श प्रेमी साबित करती हैं, आजाद लबों पर वे शाहजहां की रूमानियत में खो जाती हैं, जिसने अपनी ही बेटी को अपनी हवस का निशाना बनाया था और फिर पूरी जिन्दगी हिन्दुओं को कोसते-कोसते एक दिन स्वयं को उसी काले बुर्के को ओढ़ लेती हैं, जिसका कभी उन्होंने विरोध नहीं किया होता है। यह हमने कमला दास के मामले में देखा था कि कैसे वह पूरा जीवन हिन्दू विरोधी नारीवाद को जीती रहीं और अंत में काला बुर्का डालकर इस्लाम को अपना लिया। और उसी अंधेरे में कैद हो गईं, जिस अँधेरे की कल्पना वह हिन्दू धर्म में करती थीं, पर हिन्दू धर्म ने उन्हें कुछ नहीं कहा।
 

दरहकीकत जो फेमिनिज्म काले बुर्के के प्रति आकर्षण से भरा होगा, वह कभी भी अफगानिस्तान में उन औरतों के पक्ष में खड़ा नहीं होगा, जो अपने अधिकारों के लिए, अपनी आजादी के लिए लड़ रही हैं, बल्कि वह स्वयं ही काला बुर्का ओढ़कर उन औरतों को अंधेरे में धकेलेगा। ये हम भारत में देख रहे हैं कि कैसे हिन्दू प्रगतिशील (इस्लाम से डरने वाली वामपंथी नारीवादी) अपनी कहानियों और कविताओं के माध्यम से हिन्दू लड़कियों का सॉफ्ट मतांतरण कर रही हैं। औरंगजेब को ऐसा प्रेमी घोषित कर रही हैं, जिसकी प्रेमिका हिन्दू थी और ऐसा करके हिन्दू स्त्रियों को जौहर पर विवश करने वाले पापियों को नायक बनाकर प्रस्तुत कर रही हैं।

वही औरतें तालियां बजाकर यह कह रही हैं

‘कम से कम वह पढ़ने तो दे रहे हैं।’

‘कम से कम वह प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं।’

 

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