प्रवीण सिन्हा
पिछले दिनों 2020 टोक्यो पैरालंपिक खेलों के महामंच पर थीम सॉन्ग – वी हैव दी विंग्स (हमारे पास उड़ान भरने के लिए पंख हैं) के साथ जब दिव्यांग खिलाड़ियों का स्वागत किया गया तो यह स्पष्ट संकेत था कि असली जिंदगी के महानायकों में भी ऊंची उड़ान भरने की वही क्षमता, वही जिजीविषा, वही आत्मविश्वास है जो शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम एथलीटों में है। दिव्यांगता के कारण जिंदगी की तमाम बाधाओं को एक-एक कर पार करते हुए लंबे समय तक संघर्ष कर हर पैरालंपियन टोक्यो के महामंच पर पहुंचने से पहले ही महानायक का दर्जा हासिल कर चुका था।इसके बाद उन खिलाड़ियों ने दुनिया भर में 15 प्रतिशत से अधिक दिव्यांग लोगों की आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए विश्व खेल जगत में अपनी दमदार उपस्थिति का उद्घोष किया.
टोक्यो पैरालंपिक का मंच महज खेलों का एक महाकुंभ भर नहीं था। वहां उन खिलाड़ियों के जीवन के संघर्षों के जीवंत उदाहरणों ने दुनिया को प्रेरित किया – हार के आगे जीत है। यही नहीं, उनके हर प्रदर्शन ने दिव्यांग लोगों को एक नया हौसला और किसी भी लक्ष्य को पाने का आत्मविश्वास दिया। किसी भी परिस्थिति में हार न मानने की जिद के लिए प्रेरित किया युवा दिव्यांग खिलाड़ियों को। इस क्रम में भारतीय दल ने टोक्यो में ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए सबका दिल जीत लिया। कोरोना महामारी के कारण ओलंपिक खेलों का आयोजन स्थगित होने के बाद पैरालंपियनों ने इस बार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के वादे किए थे और अब उन वादों को पूरा भी कर दिखाया।
निशानेबाजी से लेकर बैडमिंटन, एथलेटिक्स, टेबल टेनिस और तीरंदाजी स्पर्धाओं में धूम मचाते हुए भारतीय खिलाड़ियों ने पैरालंपिक खेलों में पांच स्वर्ण सहित कुल 19 पदक जीत अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। पैरालंपिक खेलों के इतिहास में भारत ने अब तक कुल 12 पदक जीते थे और इस बार एक ही पैरालंपिक में अब तक के कुल पदकों से 7 पदक अपनी झोली में डाल लिये। भारत ने इस बार सर्वाधिक 54 पैरालंपियनों का दल भेजा था जिन्होंने कुल 9 खेल स्पर्धाओं में भाग लिया। इस दल के 17 खिलाड़ियों ने शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक विजेता मंच पर भारतीय परचम फहराया जिनमें निशानेबाज अवनी लेखरा और सिंहराज अधाना ने दो-दो पदक अपने नाम किए। इस ऐतिहासिक प्रदर्शन के पहले हमारे खिलाड़ियों ने किन-किन बाधाओं से पार पाया और कितने संघर्ष के बाद अंतत: वे पैरालंपिक पदक जीतने में सफल रहे, आइए डालते हैं एक नजर-
क्या है गुलेन बेरी सिंड्रोम
इस घातक बीमारी में शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली स्वस्थ तंत्रिकाओं पर हमला करने लगती है। इससे शरीर में तेजी से कमजोरी फैलती है और हाथ-पैरों में झनझनाहट होने लगती है। धीरे-धीरे यह बीमारी पूरे शरीर में फैल जाती है और पूरा शरीर लकवाग्रस्त हो जाता है।
रजत जीत शीर्ष पर पहुंचे देवेंद्र
राजस्थान के चूरू जिले के देवेंद्र झांझरिया को भारत का अब तक का महानतम पैरालंपिक खिलाड़ी माना जा सकता है। वह इसलिए कि देवेंद्र ने पिछले 17 वर्ष में तीन पैरालंपिक खेलों में भाग लेते हुए तीनों ही मौकों पर पदक जीते हैं। 40 वर्षीय देवेंद्र ने 2004 एथेंस और 2016 रियो पैरालंपिक की पुरुषों की एफ-46 भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण और 2020 टोक्यो पैरालंपिक में रजत पदक जीता है। देवेंद्र कुल तीन व्यक्तिगत पैरालंपिक पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय खिलाड़ी हैं। बिजली का करंट लगने के बाद कटे हुए बाएं हाथ और तमाम विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए देवेंद्र ने एथेंस में 62.15 मीटर की दूरी तक भाला फेंकते हुए विश्व रिकॉर्ड सहित स्वर्ण जीता। इसके बाद अपने ही विश्व रिकॉर्ड को बेहतर करते हुए (63.97 मीटर) रियो में स्वर्ण जीता। टोक्यो में वे स्वर्ण से चूक गए, लेकिन अपने पिछले विश्व रिकॉर्ड से बेहतर प्रदर्शन (64.35 मीटर) करने में फिर भी कामयाब रहे।
नित नई बुलंदियों को छूने वाले देवेंद्र महज 8 वर्ष की आयु में गांव में आम के एक पेड़ पर चढ़ते हुए बिजली के तार की चपेट में आ गए थे। बुरी तरह से करंट लगने के कारण देवेंद्र का बायां हाथ लगभग नाकाम हो गया और डॉक्टरों ने उनकी जान बचाने के लिए हाथ काटने की सलाह दी। देवेंद्र का बायां हाथ कोहनी से ऊपर तक कट गया। इस असहनीय पीड़ा से पार पाने के लिए उन्होंने खेलों पर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। लेकिन देवेंद्र ने कभी हार नहीं मानी और भाला फेंक स्पर्धा में नित नई ऊंचाइयां लांघते हुए देश के महान पैरालंपिक एथलीट के रूप में खुद को स्थापित किया।
मौत को मात दे मरियप्पन ने लांघी ऊंचाई
तमिलनाडु के सालेम जिले में एक बेहद गरीब और अन्य परेशानियों से त्रस्त परिवार के बच्चे मरियप्पन थांगवेलू ने मौत को मात देते हुए देश का नाम रोशन करने का जिम्मा उठा रखा है। छोटे कद के 26 वर्षीय मरियप्पन ने नित नई ऊंचाइयां लांघते हुए पैरालंपिक खेलों में एक स्वर्ण (2016 रियो) और एक रजत पदक (2020 टोक्यो – 1.86 मीटर) जीत इतिहास रचा है। महज 5 साल की उम्र में तमिलनाडु के एक छोटे-से गांव में पढ़ाई के लिए स्कूल जा रहे मरियप्पन को नशे में धुत एक बस ड्राइवर ने एक तरह से कुचल दिया था जिससे उनके घुटने से नीचे का दायां पांव हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गया। पिता ने छह बच्चों सहित उनकी माता को छोड़ दिया था।
माता ने शुरू में ईंटें ढोने का काम किया। फिर परिवार को चलाने के लिए सड़क किनारे सब्जी बेचने लगीं। उस पर से मरियप्पन का एक पांव उनसे छिन चुका था। जीवनयापन के लिए पैसे बहुत कम पड़ते थे क्योंकि उनकी माता के अलावा कमाई करने वाला घर का कोई सदस्य नहीं था। ऐसी परिस्थिति में कई बार दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं होती थी। लेकिन मरियप्पन ने हार नहीं मानी। उन्होंने आगे न केवल पढ़ाई-लिखाई की, बल्कि एक टांग पर खड़े होकर ऐसी ऊंचाई लांघी कि देश का नाम चारों ओर रोशन हो गया। यही नहीं, मरियप्पन टोक्यो पैरालंपिक शुरू होने से पहले तक कोरोना वायरस से पीड़ित थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना अभ्यास जारी रखा। कोरोना को मात देने के बाद वे अमेरिका के सैम ग्रीयू (1.88 मीटर) को भी मात दे चुके थे, लेकिन महज दो सेंटीमीटर के फासले से उन्हें रजत पदक पर संतोष करना पड़ा।
मरियप्पन के साथ ही पुरुषों की टी-63 स्पर्धा में पटना के शरद कुमार ने कांस्य पदक (1.83 मीटर) जीता। पोलियो उन्मूलन अभियान के तहत एक नीम हकीम ने 2 वर्षीय शरद को गलत दवा पिला दी थी जिसके कारण उनका बायां पांव हमेशा के लिए लकवाग्रस्त हो गया।
शटल ने भरी ऊंची उड़ान
चीन, जापान, कोरिया और इंडोनेशिया को कड़ी टक्कर देते हुए भारत विश्व बैडमिंटन जगत की महाशक्ति बनने की दिशा में निरंतर अग्रसर है। टोक्यो पैरालंपिक खेलों में भारत ने दो स्वर्ण सहित कुल चार पदक जीत इतिहास रच दिया। भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ियों ने महज ढाई से तीन इंच की शटल से कैसे ऊंची उड़ान भरी जा सकती है, इसका शानदार उदाहरण पेश किया। इस क्रम में कृष्णा नागर और प्रमोद भगत ने स्वर्ण जीता, जबकि गौतम बुद्ध नगर के डीएम सुहास यतिराज ने रजत और मनोज सरकार ने कांस्य पदक अपने नाम किया।
4.6 फुट से भी कम कद के कृष्णा नागर को बचपन से उनके बौनेपन के लिए लोगों के ताने सुनने पड़ते थे जिससे वे काफी आहत होते थे। कृष्णा के माता-पिता को उनकी इस दिव्यांगता की जानकारी जब वह मात्र डेढ़ वर्ष के थे, तभी लग गई थी। माता-पिता शिशु कृष्णा का आॅपरेशन कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाए जिससे उनका कद 4 फुट 5 इंच तक ही बढ़ पाया। उस पर से लोगों के ताने कि तुम्हारी हाईट नहीं है, कुछ नहीं कर पाएगा – जयपुर के 22 वर्षीय कृष्णा को अंदर से कुछ विशेष करने के लिए उद्वेलित करते रहते थे।
अंतत: कृष्णा ने एक बैडमिंटन खिलाड़ी के तौर पर पैरालंपिक (एसएच-6 वर्ग) के शीर्ष पर पहुंचकर उन सभी लोगों को करारा जवाब दिया है जो किसी की दिव्यांगता पर सवाल खड़े करते हैं। इसी तरह सुहास बचपन से ही बाएं पैर की एड़ी से दिव्यांग हैं, लेकिन अपनी शारीरिक परेशानी से पार पाते हुए देश के पहले ऐसे आईएएस आॅफिसर बने जिसने पैरालंपिक के लिए क्वालीफाई किया और देश के लिए पदक जीता।
दूसरी ओर, विश्व के नंबर एक पैरा बैडमिंटन खिलाड़ी प्रमोद भगत एसएल-3 वर्ग का स्वर्ण पदक जीत भारत की ओर से यह उपलब्धि हासिल करने वाले पहले खिलाड़ी बने। ओडिशा के अट्टाबीरा गांव के 33 वर्षीय प्रमोद 5 वर्ष की ही उम्र में ही पोलियोग्रस्त हो गए थे। हालांकि उन्होंने शारीरिक रूप से स्वस्थ युवा के साथ बैडमिंटन खेलने का प्रयास किया, लेकिन पोलियो उनकी राह का रोड़ा साबित हुआ। अंतत: प्रमोद ने दिव्यांग वर्ग में खेलते हुए विश्व स्तर पर खुद को नंबर एक खिलाड़ी साबित कर दिखाया। प्रमोद ने स्वर्ण पदक जीतने के बाद कहा कि यह स्वर्ण मेरे लिए किसी और के 100 पदकों के बराबर है।
अवनी ने दोहरे पदक पर साधे निशाने
निशानेबाजी में भारत का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। इस परंपरा को जयपुर की 19 वर्षीया अवनी लेखरा और सिंहराज अधाना ने बनाए रखा। 2012 में एक कार दुर्घटना में अवनी की रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई थी। लेकिन अवनी ने अपने दर्द को कभी भी अपने सपने पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने कड़ी मेहनत करते हुए महिलाओं की 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में गत रियो पैरालंपिक की विजेता चीन की कुईपिंग झेंग को हराकर स्वर्ण पदक जीता। अवनी ने 249.6 अंक बनाते हुए नया पैरालंपिक रिकॉर्ड भी बनाया। अवनी भारत की पहली महिला निशानेबाज हैं जिन्होंने पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीता है। इसके बाद वे 50 मीटर राइफल थ्री पोजिशन स्पर्धा में भी कांस्य पदक जीत देश की पहली महिला एथलीट बनीं जिनके नाम दो पैरालंपिक पदक दर्ज हैं।
दूसरी ओर, मनीष नरवाल ने पी4 मिश्रित 50 मीटर पिस्टल स्पर्धा के एसएच 1 वर्ग में पैरालंपिक रिकॉर्ड बनाते हुए स्वर्ण पदक जीता। बल्लभगढ़ के 19 वर्षीय मनीष के दाएं हाथ में जन्मजात दिव्यांगता है। लेकिन मनीष ने अपनी शारीरिक कमी को कभी भी अपने दिमाग पर हावी नहीं होने दिया और टोक्यो में पहली बार पैरालंपिक में भाग लेने से पहले वे पैरा शूटिंग विश्व कप मुकाबलों में भी स्वर्ण पदक जीत चुके हैं।
मनीष के ठीक बाद हरियाणा (बहादुरगढ़) के ही 39 वर्षीय निशानेबाज राजसिंह अधाना ने रजत पदक जीत अद्भुत संघर्षक्षमता का परिचय दिया। टोक्यो पैरालंपिक शुरू होने से कोई तीन महीने पहले राजसिंह कोविड से ग्रस्त हो गए और अस्पताल में तीन सप्ताह तक मौत से जूझते रहे। कोविड से उबरने के एक माह बाद उन्होंने तैयारी शुरू की और टोक्यो में दो पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय पुरुष पैरालंपियन बने। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले राजसिंह के सामने एक बार शूटिंग छोड़ देने तक की स्थिति आ गई थी, लेकिन अधाना की पत्नी ने अपने सारे गहने बेचकर उनके सपने को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जानलेवा बीमारी को योगेश के चक्र ने दी मात
योगेश कथुनिया ने वर्षों तक अथक मेहनत और संघर्ष किये जिसका फल अंतत: उन्हें टोक्यो में पुरुषों की चक्का फेंक स्पर्धा (एफ 56) में रजत पदक के रूप में मिला। योगेश महज 9 वर्ष की आयु में गुलेन बेरी सिंड्रोम बीमारी से ग्रस्त हो गए थे। उन्हें तीन वर्ष तक व्हील चेयर पर गुजारने पड़े। उनकी माता मीना ने इस बीमारी को दूर करने के लिए किए जाने वाले शारीरिक अभ्यास का अध्ययन किया और निरंतर अपने बेटे की फिजियोथेरैपी कराती रहीं। इस दौरान योगेश की माता ने उनका दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कई जगह इलाज कराया। उन्होंने बताया कि कई डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए और चंडीगढ़ में इलाज के दौरान एक डॉक्टर ने तो यहां तक कह दिया कि अब वह अपने पैरों पर फिर कभी खड़ा नहीं हो पाएगा। लेकिन मुझे अपनी मेहनत और भगवान पर पूरा भरोसा था। आशा की एक किरण हमेशा जिंदा थी और हमने योगेश को ठीक करने के हरसंभव प्रयास जारी रखे। ईश्वर की कृपा से हम सबके अथक प्रयास के बाद योगेश न केवल चलने-फिरने लगा, बल्कि देश का नाम भी रोशन करने में सफल रहा। हालांकि उन्होंने माना कि वहां (गंभीर बीमारी) से यहां तक (पैरालंपिक का पदक) का सफर काफी मुश्किल भरा था। 24 वर्षीय योगेश बहादुरगढ़ (हरियाणा) में पैदा हुए और दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से बीकॉम स्नातक की डिग्री हासिल की।
टिप्पणियाँ