प्राचीन द्रोण नगरी आज का दनकौर

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प्रोफेसर भगवती प्रकाश


उत्तर प्रदेश में ग्रेटर नोएडा के पास दनकौर एक कस्बा है। दनकौर  द्रोण से बना है। मान्यता है कि यहां गुरु द्रोणाचार्य का गुरुकुल था। कौरवों और पांडवों ने इसी गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण की थी। यहां प्रतिवर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से 10 दिन तक मेला लगता है, जिसे दनकौर मेला कहा जाता है


दिल्ली से लगभग 70 किलोमीटर दूर द्रोणाचार्य मंदिर के निकट लगने वाला दस दिवसीय वार्षिक मेला, महाभारतकालीन पांडव एवं कौरव राजकुमारों की शस्त्रास्त्र स्पर्द्धाओं की स्मृतियों को ताजा कर देता है। ग्रेटर नोएडा के पास स्थित द्रोण नगरी अर्थात् दनकौर में आयोजित होने वाले इस मेले के अवसर पर जिले में एक दिन के अवकाश के साथ ही 500 रु. से 1,00,000 रु. तक के पुरस्कारों से युक्त अनेक स्पर्द्धाएं और रंगमचीय कार्यक्रम संपन्न होते हैं। प्राचीन हस्तिनापुर के पास स्थित आचार्य द्रोण का यह गुरुकुल ह्यद्रोणकोरह्ण नाम से भी प्रचलित रहा है। यहां द्रोणाचार्य द्वारा पूजित प्राचीन शिव विग्रह, एक स्टेडियम एवं अनेक प्राचीन पुरावशेष विद्यमान हैं। इसी क्रीड़ांगण में 5,000 वर्ष पूर्व महाभारत काल में पांडव और कौरव राजकुमारों का दीक्षांत प्रदर्शन हुआ था। यहां एकलव्य निर्मित गुरु द्रोण की प्राचीन प्रतिमा, द्रोणाचार्य की एक खडेÞ आकार की प्रतिमा, श्री बांके बिहारी की प्राचीन प्रतिमा सहित, श्रीराम दरबार, हनुमान जी, दुर्गा माता आदि विविध देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठापित हैं। इस परिसर का एक विशाल द्वार है। अंदर एक प्रवचन कक्ष, रंगशाला, द्रोणाचार्य का एक चित्र एवं एक प्राचीन प्रतिमा भी है।

 प्राचीन स्टेडियम एवं द्रोण अखाड़ा
    महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 124-27 में वर्णित पांडव एवं कौरव राजकुमारों के शस्त्रास्त्रों के प्रशिक्षण के दीक्षांत प्रदर्शन हेतु प्रयुक्त प्राचीन स्टेडियम के मध्य में स्पर्द्धाओं के लिए उस काल में बने मंचों का स्वरूप आज भी लगभग वैसे ही हैं। इस अखाड़ा-युक्त स्टेडियम के विगत 5,000 वर्ष में क्षतिग्रस्त हो जाने और मुगल काल में इस मेले को प्रतिबंधित कर यहां की कुछ प्रतिमाओं को तोड़े जाने के बाद 1883 में समाज ने अंग्रेज कैप्टन सर जेम्स साल्अ पीटर से आग्रह कर इसकी मरम्मत कराकर मेले को पुन: आरंभ किया। तब से यह मेला निरंतर लग रहा है। यहां स्थापित प्राचीन द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा  खंडित कर दी गई थी, जिसे बाद में पुन: स्थापित कर दिया गया।

प्राचीन द्रोणाचार्य प्रतिमा
    प्राचीन स्टेडियम-युक्त इस द्रोण अखाडेÞ को इसके पुराने स्वरूप में लाने का पूरा प्रयास किया गया है। इसके मध्यवर्ती स्पर्द्धा मंच पर्याप्त रूप से बड़े एवं मल्ल विद्या, कुश्ती आदि के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं। इन्हीं में से एक मध्यवर्ती मंच पर भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध हुआ था। माना जाता है कि नकुल और सहदेव के खड्ग अर्थात् तलवार प्रदर्शन एवं अर्जुन का धनुष विद्या प्रदर्शन भी इन्हीं में से एक मंच पर हुआ था। स्टेडियम में चारों ओर कुल आठ-आठ सीढ़ी-युक्त व्यवस्था है। इस स्टेडियम में चार सीढ़ियों के बाद एक चौड़ी वीथि है जहां सुरक्षा और व्यवस्थाकर्ता अधिकारी घूम सकते थे। स्टेडियम की सीढ़ियों पर 1500-2000 तक लोग खडेÞ रह सकते हैं। संभवत: यहीं से हस्तिनापुर वासियों ने उस काल में वें स्पर्द्धाएं देखी होंगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से 10 दिन तक चलने वाले इस मेले की मुख्य स्पर्द्धाएं इस वर्ष 4 सितंबर को होने से उस दिन जिले में अवकाश रहा। पूर्व में यह मेला जन्माष्टमी से श्रीगणेश चतुर्थी तक चलता था।

    जनश्रुति में इसे महर्षि दुर्वासा का शापग्रस्त तालाब भी बताया जाता है। लेकिन यह स्टेडियम-युक्त अखाड़ा ही अधिक लगता है। आचार्य द्रोण द्वारा किए दिव्यास्त्रों के प्रयोग से यह अखाड़ा सदैव जल-प्लावन रहित रहता है। भारी वर्षा और पास में यमुना में बाढ़ से पूरे दनकौर में जल भर जाने पर भी इस स्टेडियम के रास्ते की सारी जलराशि दो-तीन घंटे में भूगर्भ में विलीन हो जाती है। ऐसा होने से यहां प्रत्येक मौसम में शस्त्र व मल्ल विद्याओं का अभ्यास अबाधित चल सकता था। पूरे क्षेत्र में अखाडेÞ का तल सामान्य भूतल से 20 फीट गहरा होने पर भी यहां जल एकत्र न होना अत्यंत विलक्षण है।

गुरुग्राम में स्थानांतरण
    माना जाता है कि पांडव एवं कौरव राजकुमारों के प्रशिक्षण और दीक्षांत प्रदर्शन के उपरांत गुरु द्रोणाचार्य को गुरुग्राम (आज हरियाणा का एक जिला) में स्थानांतरित कर दिया गया था। उसके बाद वे सपरिवार वहीं रहे। कुरु कुलगुरु कृपाचार्य की बहन कृपी उनकी धर्मपत्नी थीं। वहां उनका प्राचीन महल रहा है। द्रोणाचार्य का एक प्राचीन मंदिर भी है। आचार्य की पत्नी कृपी द्वारा अर्चित शीतला माता के मंदिर के प्रति आज भी देशभर में अगाध श्रद्धा होने से लोग यहां दर्शनार्थ आते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार कृपी ही शीतला माता के रूप में यहां अवस्थित हैं। लेकिन शीतला माता अत्यंत प्राचीन देवी हैं, जो महाभारत काल के पहले से संक्रामक रोगों के शमन हेतु अर्चित रही हैं। माता कृपी उन्हें अपना इष्ट देवता मानती रही हैं। यहां पर एक एकलव्य मंदिर भी है। एकलव्य का चेदिराज शिशुपाल के सेनानायकों में से एक का पुत्र होने से द्रोणाचार्य ने उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करने से मना कर दिया था। एकलव्य ने तब मन ही मन उन्हें गुरु मानकर शस्त्राभ्यास किया था। बालक एकलव्य द्वारा बनाई आचार्य द्रोण की प्रतिमा दनकौर में स्थापित है। द्रोण कुरु कुल से प्रतिबद्ध थे और चेदि वंश और कुरु कुल के राजनयिक संबंध मधुर नहीं थे।

दूनागिरि में तप
    उत्तराखंड प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट क्षेत्र से 15 कि.मी. दूर दूनागिरि माता का मंदिर है। यहां पर द्रोणाचार्य ने कठोर तप किया था। कत्यूरी वंश के राजा सुधार देव ने यहां 1318 में दूनगिरि माता के मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। ह्यहिमालयन गजेटीयरह्ण के लेखक ई़ टी़ एडिक्शन के अनुसार 1181 के शिलालेखों में भी दूनगिरि मंदिर का उल्लेख है। मंदिर तक पहुंचने के लिए 500 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।

प्रमुख आकर्षण
    द्रोणकोर के इस परिसर में प्रवेश करते ही एक गोशाला दिखती है, जिसमें 900 गायें हैं। मंदिर परिसर के मध्य में द्रोणाचार्य पूजित शिवलिंग है। प्रवेश द्वार की बार्इं ओर एकलव्य निर्मित मूर्ति भी यहीं एक कक्ष में स्थापित है। अन्य कई विग्रह भी यहां पर हैं। इनमें एक 15वीं सदी की बांकेबिहारी की प्रतिमा है। इसे वृंदावन स्थित बांकेबिहारी की प्रतिमा जितना ही प्राचीन बताते हैं। वृंदावन के मूल बांके बिहारी की प्रतिमा वही विग्रह है जिसके दर्शन 1462 में स्वामी हरिदास को हुए थे। स्वामी हरिदास, बैजू बावरा और तानसेन के गुरु थे। परब्रह्म की आद्याशक्ति कहलाने वाली राधाजी की प्रतिमा यहां उनके उस पौराणिक स्वरूप में स्थापित है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि ह्यह्यश्रीराधा सर्वदा द्वादश वर्षीयाह्णह्ण। पौराणिक वर्णन के अनुसार श्रीकृष्ण जन्म के पूर्व भी राधा जी बारह वर्ष की थीं एवं आज भी राधा जी का विग्रह सदैव द्वादश वर्ष तुल्य ही रहता है। वे प्रकृति,  सृष्टि, संधारण एवं संहार की प्राकृत शक्ति मानी गई हैं।

गुरुकुल परंपरा
    गुरु द्रोणाचार्य के द्रोणकोर और गुरुग्राम के गुरुकुलों से कई हजार वर्ष प्राचीन गुरुकुलों में यदुवंशियों के कुलगुरु गर्गाचार्य का गुरुकुल उज्जैन स्थित सान्दीपन आश्रम, जहां कंस वध के उपरांत श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा ने विद्याध्ययन किया था, आता है। तक्षशिला एवं पुष्कलवती के गुरुकुल आदि देश में कई सहस्र गुरुकुल अवस्थित थे। तक्षशिला और पुष्कलवती आज पाकिस्तान में हैं। इन्हें भरत के पुत्र ह्यतक्षह्ण और पुष्कल ने रामायण काल में बसाया था। पुष्कलवती में ही पाणिनि ने विश्व के प्राचीनतम व्याकरणशास्त्र ह्यअष्टाध्यायीह्ण की रचना की थी। काशी में अनेक आचार्य, उपाध्याय व शास्त्री उपाधि से युक्त गुरुओं के गुरुकुल बड़ी मात्रा में आज भी हैं। ये सभी उस काल के विशाल विश्वविद्यालय रहे हैं। विश्वामित्र और परशुराम आदि आचार्यों के गुरुकुल भी उस कालखंड में रहे हैं। प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा के लिए ह्यब्रह्मवादिनीह्ण, ह्यबहुवचीह्ण, ह्यसद्योद्वाहाह्ण एवं ह्यब्रह्मचारिणीह्ण शिक्षिकाओं द्वारा संचालित गुरुकुल भी रहे हैं। शस्त्रविद्या के द्रोणाचार्य के इस गुरुकुल से लेकर सभी प्रकार के प्राचीन गुरुकुलों पर एक वृहद् अध्ययन परम आवश्यक है।

    (लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं )

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