अकादमिक काउंसिल की बनाई समिति ने वामपंथी रुझान वाले पर्चों की जगह पाठ्यक्रम में उचित बदलाव करने के सुझाव क्या दिए, परिसर में मंडराने वाली ‘प्रगतिशील लॉबी’ ने अपने राजनीतिक हथकंडे अपनाने शुरू कर दिया
आलोक गोस्वामी
देश में कांग्रेस के करीब 60 साल के राज में कम्युनिस्ट सोच के बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों आदि का बौद्धिक और अकादमिक संस्थानों पर किस हद तक कब्जा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे तत्वों का एकमात्र एजेंडा यही रहा कि कला, साहित्य, शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, सिनेमा, मीडिया आदि तमाम क्षेत्रों में भारत और भारतीयता, हिन्दू धर्म तथा देश के वास्तविक इतिहास को लांछित करके साम्यवादी सोच का अधिकाधिक प्रचार—प्रसार किया जाए। यही वजह है कि अकबर को ‘महान’ बना दिया गया और गुरु गोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान सरीखे भारतीय वीरों, शासकों और साम्राज्यों को गहरे दफन कर दिया गया। ‘ग’ से गणेश की बजाय ‘ग’ से गधा पढ़ाया जाने लगा।
स्कूलों और कालेजों के पाठ्यक्रमों में वाम विचार वाले लेखकों और इतिहासकारों का लिखा ही पढ़ाने की एक लंबी परंपरा चली, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हमारी आज की युवा पीढ़ी के स्वनामधन्य प्रतिनिधि खुद को ‘सेकुलर’ किंवा हिन्दू विरोधी कहलाने में गर्व महसूस करने लगे। वे ईद की मुबारकबाद देने में होड़ करने लगे, किन्तु दीपावली, राखी और होली को ‘पेटा’ भक्त बनकर गरियाने लगे।
बदलाव की ओर
लेकिन अब फिजा बदलने लगी है। सुधार होने लगा है, हालांकि रफ्तार अभी कम है। परन्तु कुछ नहीं से, कुछ होना अच्छा ही होता है। हमारे विश्वविद्यालयों में क्या—क्या गलत पढ़ाया जाता रहा है, इसे लेकर अनेक बार आवाजें उठी हैं। कहीं कुछ मात्रा में थोड़ा—बहुत बदलाव करने की कोशिश हुई तो जेएनयू से निकली इसी सेकुलर जमात ने ऐसा तमाशा खड़ा किया जैसे ‘शिक्षा पर संकट’ आन खड़ा हुआ हो।
पिछले करीब दो साल से कई महत्वपूर्ण कदम उठाये गए हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में। यहां अकादमिक परिषद ने स्नातक के अंग्रेजी विशेष के पाठ्यक्रम में कुछ चिरप्रतीक्षित संशोधन किए हैं। उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद ने 2019 में एक सक्षम निगरानी समिति या ‘ओवरसाइट कमेटी’ गठित की थी। इस समिति ने अंग्रेजी विशेष के पाठ्यक्रम में थोड़े, किंतु सार्थक संशोधन के सुझाव किए। इस संबंध में समिति ने अकादमिक क्षेत्र के विभिन्न हितधारकों से सलाह की थी। उसके बाद ही ये सुझाव प्रस्तुत किए गए थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि समिति के इन्हीं सुझावों को विश्वविद्यालय की अकादमिक काउंसिल ने बहुमत से अपनी स्वीकृति प्रदान की। बैठक में काउंसिल के कुल 125 सदस्यों में से 87 उपस्थित थे। इनमें से भी कुल 15 सदस्यों ने अपना मत इन संशोधनों के विरोध में दिया। ये वही सदस्य हैं जो नहीं चाहते कि भारत या हिन्दू धर्म से जुड़ा कुछ भी कालेजों में पढ़ाया जाए। यही वे दशकों से करते आ रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
एक उदाहरण देखें। ‘द्रौपदी’ कथा की लेखिका हैं बंगाल की महाश्वेता देवी। यह मूलत: बांग्ला कहानी है जिसे अंग्रेजी में अनूदित किया है गायत्री स्पिवाक ने। हैरानी की बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में अनेक वर्ष से अंग्रेजी में अनुदित यह कहानी पढ़ाई जा रही है। कहानी के शीर्षक से लेकर, आमुख, कथानक और कथा विस्तार तक को इस तरह से ढाला गया है, पात्रों का ऐसा अशिष्ट चित्रण किया गया है कि ‘द्रौपदी’ के माध्यम से पूरी कोशिश भारतीय मूल्यों के प्रति विद्रोह पैदा करने की दिखती है।
उघड़ा वामपंथ का झूठ
अकादमिक क्षेत्र में पढ़ने—पढ़ाने वालों के बीच राष्ट्रीय विचार के साथ काम करते आ रहे नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट ने जहां समिति द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का स्वागत किया, वहीं इसने वामपंथ के इस झूठ पर आपत्ति दर्ज कराई है कि ‘पाठ्यक्रम से दलित साहित्य को हटा दिया गया है’। जबकि सचाई यह है कि पाठ्यक्रम में वे सभी लेखक शामिल हैं जो मूल पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं, उस पाठ्यक्रम का जिसे अकादमिक परिषद की बैठक में अनुमोदित किया गया था। अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष की संस्तुति और सहमति से ‘द्रौपदी’ कहानी की जगह रुकैया सखावत हुसैन की ‘सुल्ताना ड्रीम्स’ को रखा गया है। रमाबाई रानाडे के लेखन का कथित निम्न जाति से न जुड़ा होना भी वामपंथियों को हजम नहीं हो रहा। इससे उनकी असली मानसिकता झलकती है।
अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के पक्षधर, नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट का मानना है कि लेखक और शिक्षाविद् यथोचित रूप से लिखने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अराजकता में फर्क होना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अकादमिक पाठ्यक्रमों में वामपंथी विचारधारा के वर्चस्व की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। वामपंथियों ने कई ऐसे लेखकों का हमेशा विरोध किया है जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। तुलसीदास की रामचरितमानस, प्रेमचंद की कहानी ‘जिहाद’ वामपंथ को स्वीकार्य नहीं रही। वामपंथियों का उद्देश्य समाजिक और सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ाना ही रहा है।
एकपक्षीय वामी दृष्टि
दिल्ली विश्वविद्यालय में हावी वामपंथी लॉबी कुछ दलित साहित्यकारों को ‘पाठ्यक्रम से बाहर’ करने को लेकर भी बेवजह तिल का ताड़ बना रही है और उनके पीछे बैठी सेकुलर जमात उन्हें खूब प्रचारित कर रही है। जरा पढ़ देखिए, अंग्रेजी पाठ्यक्रम में किए गए इन संशोधनों पर द हिन्दू, द इंडियन एक्सप्रेस, द प्रिंट, द वायर, द टेलीग्राफ की खबरें। ये वही वामपंथी हैं जो ‘साहित्य’ के नाम पर जातीयता को, समलैंगिकता को उकसाने वाले पर्चे पाठ्यक्रमों में शामिल कराते रहे हैं, उन्हें पढ़ाते आ रहे हैं। ये वही वामपंथी हैं जो ‘इंडियन क्लासिकल लिटरेचर’ वर्ग के अंतर्गत ‘महाभारत’ को शामिल तो करते हैं, लेकिन उसमें सिर्फ और सिर्फ ‘द्यूत क्रीड़ा’, ‘कर्ण के साथ अन्याय’ ही दिखता है उन्हें, वे गीता के उपदेश से बड़ी सफाई से कन्नी काट जाते हैं। ये वही वामपंथी हैं जो यूरोपीय साहित्य के पर्चे में बाइबिल का आधुनिक संस्करण पढ़ाते हैं, लेकिन भारतीय ग्रंथों के असली मूल्यों का तिरस्कार करते हैं। इसी वामपंथी लॉबी की हिमाकत से दस साल तक ‘गुजरात दंगों’ से जुड़े पर्चे में किसी अनजान लेखक का हिन्दुत्व और हिन्दू संगठनों को जमकर कोसता पर्चा पढ़ाया जाता रहा, पीड़ित सिर्फ और सिर्फ ‘मुस्लिम’ दिखाए जाते रहे। इसी सेकुलर जमात की बदौलत मृणाल पांडे की कहानी ‘गर्ल’ पाठ्यक्रम में शामिल की गई, क्योंकि उसमें ‘बेटे की चाहत’ वाले समाज में ‘देवी दुर्गा की कंजक रूप में पूजा’ करने का मखौल उड़ाया गया है।
कुल मिलाकर यह इतना बड़ा मुद्दा था कि अकादमिक काउंसिल द्वारा पाठ्यक्रमों में आवश्यक सुधारों को परखने के लिए 2019 में बनाई गई ‘ओवरसाइट कमेटी’ ने अंग्रेजी, इतिहास, राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र विषयों के लिए जो अनुशंसाएं कीं, वे बहुमत से पारित हुर्इं, पर एक साथ नहीं, हिस्सों में लागू हो पार्इं। और पिछले दो साल से ही वामपंथी लॉबी के शिक्षकों ने इन बदलावों को राजनीतिक रंग देकर बेवजह हल्ला मचाया हुआ है। ये वही लोग हैं जिन्होंने मिलकर 2017 में पाठ्यक्रम में किए गए 65 सुधारों में से एक पर शोर मचाया था, जो थी चेतन भगत की कहानी ‘फाइव प्वाइंट समवन’। इसे ‘लोकप्रिय साहित्य’ वर्ग में रखा गया था, लेकिन चूंकि सेकुलर जमात को विरोध का कोई और मुद्दा नहीं मिला तो यही शोर मचाने लगे कि ‘इस लेखक को क्यों चुना?’
राजनीतिक रंग देने की कोशिश
वामपंथी इस बात को लेकर भी शोर मचा रहे हैं कि दो तमिल दलित लेखकों—बामा और सुकृतरानी—के पर्चे पाठ्यक्रम से हटा दिए गए। असल में ये उनके दलित होने की वजह से नहीं, वामपंथी झुकाव के कारण शामिल किए गए थे। सेकुलरों को इससे ऐसी तिलमिलाहट हुई कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन तक को प्रभाव में लेकर उनसे इसकी भर्त्सना करवाई, ट्वीट करवाया। तमिलनाडु में इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने की गरज से वहां के कुछ सांसदों से इस पर विरोध दर्ज करवाया गया।
इन दोनों की जगह नए बदलाव में रमाबाई रानाडे को ‘महिला लेखिका’ वर्ग में रखा गया है। इस पर भी सेकुलर लॉबी को आपत्ति है कि रमाबाई ने जाति को आधार बनाकर नहीं लिखा। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद में अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर डॉ. प्रेरणा मल्होत्रा का कहना है, ‘‘अगर किसी को महिला लेखक के आधार पर चुना गया है, जाति पर लेखन के लिए नहीं, तो उसके लिखे में ऐसी अपेक्षा करना ही बेमानी है।’’
इससे दिक्कत किसे है? दिक्कत है दिल्ली विश्वविद्यालय में सक्रिय उसी वामपंथी शिक्षक गुट को जो पढ़ाने के अलावा परिसर में कामरेडी राजनीति चलाने के हर पैंतरे में खुद को व्यस्त रखता है। सचिन नारायण और रुद्रशीष चक्रवर्ती सरीखे लोग, जो शहरी नक्सलियों के कथित पैरोकार और समर्थक हैं। एआईएसए और दूसरे वामपंथी छात्र संगठनों के अलावा कुकुरमुत्तों की तरह उग आए कुछ तथाकथित ‘दलित फोरम’ अपने मंचों पर इन तत्वों को बुलाकर भाषण करवाते हैं, हिन्दुत्व पर अपशब्द बोलने का मौका देते हैं और विश्वविद्यालय को राजनीति का अखाड़ा बनाने की ‘प्रैक्टिस’ कराते हैं।
अंग्रेजी तथा इतिहास विभाग के ऐसे ही कुछ सदस्यों ने अकादमिक स्वायत्तता का गलत प्रयोग करते हुए हिंदुत्व को लांछित करने का हर तरह का प्रयास किया है। हिन्दुत्व को अपमानित करना और उसे खलनायक की तरह पेश करना ही इनका एकमात्र मकसद रहा है। अपने इस एजेंडे की पूर्ति के लिए इस जमात को समाज के विभिन्न वर्गों में भेद करने, उन्हें एक—दूसरे से दूर करने तक से गुरेज नहीं है। जनजातीय समाज के मन में हिन्दुत्व विरोधी भावनाएं भड़काने में ये आगे रहते हैं। यलगार परिषद जैसी संस्थाएं इसी काम में दिलचस्पी लेती रही हैं। जनजातीय समाज को नक्सलवाद और माओवाद की तरफ झुकाने में इन्हें कभी शर्म नहीं आई। इसके लिए इन्होंने स्टेन स्वामी, गदर, कोबाड गांधी, जी.एन. साईबाबा सरीखों को मोर्चे पर उतारा। शहरी नक्सली ही हैं ये, जो शहर में संभ्रांत लोगों के बीच रहकर भीतर ही भीतर नक्सली एजेंडा बढ़ाते रहते हैं।
बहरहाल, अकादमिक क्षेत्र में नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट जैसे संगठन भी हैं जो पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच भारत को सर्वोपरि रखकर देश और समाज को आहत करने वाली हरकतों के प्रति सचेत रहते हुए उनका प्रतिकार करते हैं।
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