मोपला में हिंदू नरसंहार के 100 वर्ष : ये हत्यारे हैं, ‘स्वतंत्रता सेनानी’ नहीं
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मोपला में हिंदू नरसंहार के 100 वर्ष : ये हत्यारे हैं, ‘स्वतंत्रता सेनानी’ नहीं

by WEB DESK
Sep 2, 2021, 11:49 am IST
in भारत, दिल्ली
मोपला में एक शरणार्थी शिविर में रह रहे हिंदू (फाइल चित्र)

मोपला में एक शरणार्थी शिविर में रह रहे हिंदू (फाइल चित्र)

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डॉ. सुरेंद्र कुमार जैन


20 अगस्त, 1921 को केरल के मोपला में जिहादी तत्वों ने ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे के साथ हजारों हिंदुओं को मार डाला था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग के कारण इन हत्यारों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा मिला। अब केंद्र सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी की सूची से ऐसे 387 हत्यारों के नाम हटा दिए हैं


 

आज से ठीक 100 साल पहले केरल में मोपलाओं के द्वारा 20 अगस्त,1921 को हिंदुओं का भीषण नरसंहार किया गया था। कई दिन तक योजनाबद्ध रूप से चलने वाले इस नरसंहार के दोषियों को 1947 के बाद कैसे ‘स्वतंत्रता सेनानी’ घोषित किया गया, यह घोर आश्चर्य का विषय है। ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे लगाते हुए हिंदुओं का नरसंहार करने वाले स्वतंत्रता सेनानी कैसे हो सकते हैं? केंद्र सरकार ने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आईसीएचआर) की एक समिति की सिफारिश पर इनके नामों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से हटाकर इतिहास के साथ तो न्याय किया ही है, एक षड्यंत्र का भी पर्दाफाश किया है। समाज के सामने यह विषय अवश्य लाना चाहिए कि कैसे मुस्लिम वोट बैंक का निर्माण करने के लिए हिंदुओं के हत्यारों को महिमामंडित किया गया। भारत विभाजन की विभीषिका से सबक लेने की जगह नेहरू ने स्वयं एक और विभाजन के शिलान्यास की भूमिका तैयार की थी। यह स्वाभाविक है कि विभाजन के लिए उत्तरदायी और कांग्रेस की पुरानी साथी मुस्लिम लीग ने इस ऐतिहासिक निर्णय का विरोध करना शुरू कर दिया है।

आज एक अन्य  संदर्भ के कारण मोपला नरसंहार के शताब्दी वर्ष में उस विभीषिका की पीड़ा को स्मरण करना बहुत आवश्यक है। 15 अगस्त को संपूर्ण भारत स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा था। तभी अफगानिस्तान में तालिबान के अत्याचारों से वहां की जनता त्रस्त हो रही थी। चारों तरफ गोलियों की तड़तड़ाहट थी। गैर-मुस्लिम तो क्या मुस्लिम समाज का एक वर्ग भी यह अनुभव कर रहा था कि अब तालिबानियों के कारण अफगानिस्तान में कोई सभ्य समाज नहीं रह सकता। यह स्पष्ट हो गया था कि कभी सभ्यता का केंद्र रहे अफगानिस्तान में अब सभ्यता का नामोनिशान नहीं रहेगा। वास्तव में तालिबान किसी संगठन का नाम नहीं है, यह एक मानसिकता का नाम है जो गैर-मुस्लिमों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकती, उनकी बहन-बेटियों को अपनी वासना-पूर्ति का माध्यम समझती है और उनके मंदिरों तथा मूर्तियों को तोड़ना अपना कर्तव्य समझती है।

केरल में मोपलाओं के द्वारा हिंदुओं का भीषण नरसंहार इसी तालिबानी सोच के कारण हुआ था। एक अनुमान के अनुसार 25,000 से अधिक हिंदुओं की निर्मम हत्या की गई थी।  हजारों महिलाओं का शीलभंग हुआ था। गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़ दिए गए थे। सैकड़ों मंदिर तोड़ दिए गए थे। जान-माल के नुकसान का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। दुर्भाग्य से हिंदुओं के इस भीषण नरसंहार को ढकने के लिए कई प्रकार के नाम दिए गए। कुछ लोगों ने कहा कि यह खिलाफत की असफलता से मुस्लिम समाज में उपजा हुआ आक्रोश था। खिलाफत हटाई थी अंग्रेजों ने। उन्होंने ही इसको पुन: स्थापित नहीं किया। अगर दोषी थे तो अंग्रेज थे। फिर हिंदुओं के ऊपर ये अत्याचार क्यों किए गए? कुछ लोग इसको मोपला विद्रोह भी कहते हैं। उनका कहना है कि वहां जमींदार मुस्लिम मजदूरों का शोषण करते थे। इसलिए उनके विरोध में वहां के मुस्लिम समाज का यह आक्रोश था। यदि जमींदार जिम्मेदार थे तो आम हिंदुओं को क्यों मारा गया? सिर्फ इसलिए कि उन्होंने कन्वर्ट होने से मना कर दिया था।

मोपला नरसंहार खिलाफत आंदोलन के गर्भ से जन्म लेता है। इस आंदोलन का प्रारंभ 1919 में होता है जब कुख्यात अली बंधुओं ने खिलाफत कमेटी का गठन किया था। प्रारंभ में इन्हें मुस्लिम समाज का कोई समर्थन नहीं था। लेकिन 24 नवंबर, 1919 एक परिवर्तनकारी तिथि बन गई जब महात्मा गांधी ने दिल्ली में आयोजित खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उस सम्मेलन में उपस्थित मुस्लिम समाज केवल एक नारा लगा रहा था- ‘इस्लाम खतरे में है।’ भारत की आजादी या अंग्रेजों का बहिष्कार वहां कोई मुद्दा नहीं था। वहीं पर महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बना दिया। जिन्ना जैसे कट्टर नेता भी खिलाफत आंदोलन का समर्थन नहीं कर रहे थे। उनका कहना था कि खिलाफत पुराने जमाने की बात हो गई है। वहीं दूसरी ओर तुर्की के कमाल पाशा अंग्रेजों का धन्यवाद कर रहे थे कि उन्होंने खिलाफत की लाश का बोझ मुसलमानों के कंधे से उतार कर फेंक दिया। भारत में भी मुस्लिम समाज से कोई बहुत बड़ा समर्थन नहीं मिल रहा था। लेकिन इस आंदोलन ने मुस्लिम समाज के एक वर्ग के अंदर तालिबानी सोच पैदा कर दी।   प्रारंभ में हिंदू समाज खिलाफत आंदोलन के साथ नहीं था। इसलिए हिंदुओं को जोड़ने के लिए स्वराज का प्रश्न भी जोड़ दिया गया। इसके साथ ही स्पष्ट विभाजन दिखाई देने लगा था। अधिकांश हिंदू वक्ता स्वराज की बात करते थे, तो मुस्लिम नेता खिलाफत की बात करते थे। मुस्लिम समाज के नेताओं को लगा कि कांग्रेस के हिंदू नेताओं ने उनके साथ गद्दारी की है और इसी तालिबानी सोच ने उनके मन में हिंदुओं के प्रति नफरत बढ़ा दी। परिणामस्वरूप देशभर में हिंदुओं पर हमले किए गए लेकिन सबसे बड़ा नरसंहार केरल में हुआ।

आज मुस्लिम समाज का एक वर्ग मोपला नरसंहार की शताब्दी मना रहा है। उन वस्त्रों को पहनकर कई लोग इनके प्रदर्शन में शामिल होते हैं, जो वस्त्र हत्यारे मोपला पहना करते थे। आज मोपला नरसंहार का शताब्दी वर्ष कई प्रश्न खड़े कर देता है। जब मोपला में हिंदुओं के नरसंहार का प्रश्न गांधी जी के सामने रखा गया तो उन्होंने  इस नरसंहार के लिए हिंदुओं को ही जिम्मेदार बताया, क्योंकि वे अपनी बहन-बेटी की रक्षा नहीं कर सके। अपनी जान-माल को नहीं बचा सके। क्या ऐसे दंगों में उन नेताओं की कोई जिम्मेदारी नहीं थी जिनके कारण इस तालिबानी सोच को बढ़ावा मिलता है? क्या प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी, जो इस तालिबानी सोच को बढ़ने से पहले ही दबा सकते थे? खिलाफत आंदोलन ने तुष्टीकरण की नीति के कारण जन्म लिया था जिसके परिणामस्वरूप मोपला नरसंहार हुआ।

बाद में भारत के विभाजन के रूप में इसकी परिणति हुई।   क्या तुष्टीकरण की इस राष्ट्रघाती नीति को अब त्याग नहीं देना चाहिए? तालिबानी सोच भारत में अब भी पनप रही है। सीएए के विरोध में शाहीन बाग रचा गया। शिव विहार, सीलमपुर जैसे पचासियों स्थानों पर हिंदुओं के नरसंहार का फिर प्रयास किया गया। अब भी कुछ ऐसे लोग हैं जो तालिबानियों के अमानवीय अत्याचारों का समर्थन कर रहे हैं या उनकी तरफ से आंखें फेर कर तालिबानियों को प्रशस्ति पत्र दे रहे हैं। मोपला नरसंहार के शताब्दी वर्ष में इन सब लोगों को पुनर्विचार करना चाहिए। यह शताब्दी वर्ष आत्मचिंतन का वर्ष है। संपूर्ण मानवता को तालिबानी सोच से कैसे मुक्ति दिलाई जा सके, ऐसी परिस्थितियां कैसे निर्माण की जाए जिससे मोपला नरसंहार की पुनरावृत्ति न हो सके, इस पर मंथन होना चाहिए। केंद्र सरकार ने हत्यारे मोपलाओं को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से हटाकर एक महत्वपूर्ण पहल की है। इसे आगे ले जाना बहुत ही आवश्यक है।

 (लेखक विश्व हिंदू परिषद् के संयुक्त महामंत्री हैं)

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