हितेश शंकर
भारत में वैचारिक विमर्श की सबसे बड़ी उलटबांसी का नाम वामपंथ है। इस खेमे के लोग स्वयं पर प्रगतिशील होने का ठप्पा लगाते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि वे अपरिवर्तित होने की हद तक नितांत रूढ़िवादी हैं।
ये दिलचस्प नारों से, विमर्श और सेमिनार में सक्रिय भागीदारी से और एक प्रचार, प्रपंच तंत्र के इकोसिस्टम से खुद को बार-बार मुख्यधारा बताते हैं किन्तु ये लोग हाशिये पर पड़े हुए, वैमनस्य को पोसने वाले और इन सारी स्थितियों में जरा भी न बदलने वाले लोग हैं।
यह केवल आक्षेप नहीं है बल्कि जब यह बात कहीं जा रही है तो इसे वर्तमान परिदृश्य में तीन घटनाओं के संदर्भ में परखा भी जा सकता है।
’ इसका पहला सबसे बड़ा बिंदु काबुल पर तालिबान का कब्जा या अफगानिस्तान का ताजा घटनाक्रम है। इस घटनाक्रम ने उन्हें ऐसी चुप्पी की चादर में लपेट लिया कि पता ही नहीं चल रहा था कि प्रगतिशीलता का कोई स्वर इस देश में है भी या नहीं। इसके बाद वामखेमे में मंथन हुआ कि सामयिक विमर्श में हम नहीं दिखे तो अप्रासंगिक हो जाएंगे। इसलिए वामपंथियों ने दिल्ली में जंतर मंतर पर एक प्रदर्शन किया।
समझने वाली बात यह है कि तालिबान एक विचारधारा है जो अफगानिस्तान में तबाही मचा रही है, इसी तरह अमेरिका में अभी सत्तासीन विचारधारा की बात होनी चाहिए थी। अमेरिका में अभी वामपंथी शासन है। यहां वामपंथी अमेरिका (देश का) नाम तो ले रहे हैं परंतु विचारधारा (डेमोक्रेट्स या जो बाइडेन) का नाम लेने में इन्हें सांप सूंघ जाता है।
अमेरिकी चुनाव के पहले या अभी भी देखें तो चाहे ब्लैक लाइव्स मैटर का मामला हो, या अफगानिस्तान को गैरजिम्मेदार तरीके से अकल्पनीय हिंसा में झोंक देने का मामला, इसके लिए वामपंथ ही सीधे-सीधे जिम्मेदार है। कॉमरेडों ने कट्टरपंथियों के सामने घुटने ही नहीं टेके बल्कि दंडवत हो गए। लाखों लोगों की जिंदगियों को वामपंथ ने मौत के कुएं में धकेल दिया। परंतु इस संदर्भ में कोई नहीं बोल रहा है। अफगानिस्तान में महिलाओं की स्थिति पर कोई नहीं बोल रहा। भारत की स्थितियों का (जिसका अफगानिस्तान से कोई तालमेल नहीं बैठता) या कभी अमेरिका को पूंजीवादी रूपक के तौर पर इस्तेमाल कर (जबकि वहां पर भी वामपंथी शासन है) वामपंथी इस संकट काल में भी अपने राजनीतिक तंदूर को गरमा रहे हैं।
’ इन कथित प्रगतिशीलों का छलावा कैसे काम करता है, इसका दूसरा संदर्भ बिंदु है : मोपला नरसंहार। 1921 में जब यह नरसंहार हुआ तो उस समय भारतीय राजनीति एक अजीब विचलन से या कहें स्थितियों को नए सिरे से समझने के लिए जूझ रही थी। यह भारतीय राजनीति का वह मोड़ भी है जहां हमारे इतिहास पुरुष दो बिल्कुल अलग-अलग धाराओं में खड़े दिखाई देते हैं। महात्मा गांधी को लगता था कि खिलाफत आंदोलन मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने का एक अच्छा मौका हो सकता है। इसलिए खिलाफत का समर्थन करना चाहिए। अन्य लोग समझते थे कि यह वास्तव में मुसलमानों के भीतर अलगाव की भावना भड़काएगा और यह खिलाफत तुर्की की है, इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है। उस समय गांधी जी के इस आह्वान के कारण कई लोग राष्ट्रीय आंदोलन से छिटक भी गए। गांधी जी जो कहते थे, उसके बारे में उनकी अपनी समझ थी परंतु उपद्रवी लोगों के बारे में उनकी सोच कैसे गलत थी, वह मोपला नरसंहार से साबित हो गया।
मोपला नरसंहार पर डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान आॅर पार्टिशन आॅफ इंडिया’ में लिखा है, ‘हिंदुओं के विरुद्ध मालाबार में मोपलाओं द्वारा किए गए खून-खराबे के अत्याचार अवर्णनीय थे। दक्षिण भारत में हर जगह हिंदुओं के विरुद्ध लहर थी। इसे खिलाफत आंदोलन चलाने वाले नेताओं ने भड़काया था।’
एनी बेसेंट ने अपनी पुस्तक ‘द फ्यूचर आॅफ इंडियन पॉलिटिक्स’ में घटनाओं का वर्णन इस तरह किया है: ‘उन्होंने हत्या की, बुरी तरह लूटा और उन सभी हिंदुओं को मार डाला या निकाल दिया, जिन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा। लगभग एक लाख लोगों के सिर्फ घर नहीं, बल्कि उनके पास से जो कपड़े थे, वे तक, यानी सब कुछ छीन लिया गया। मालाबार ने हमें सिखाया है कि इस्लामिक शासन का क्या मतलब है, और हम भारत में खिलाफत राज का एक और नमूना नहीं देखना चाहते हैं।’
आज वामपंथी पक्षकार इस आख्यान को उठाने की कोशिश कर रहे हैं तो उस नरसंहार को याद करने के बजाय वे उस नरसंहार के हत्यारों को महिमामंडित करने की कोशिश कर रहे हैं। वामपंथी आज भी यह स्थापित करने की कोशिश में जुटे हैं कि वास्तव में वह जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष था और मुसलमानों ने जिन्हें मारा, वे संपन्न लोग थे। यानी वे संपन्नता के आधार पर हत्याओं को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं और मुस्लिम उन्माद को ढकने की कोशिश कर रहे हैं। प्रकारांतर से कहा जाए तो हमारे यहां वामपंथी यह तालिबानी काम भी कर रहे हैं।
’ वामपंथी तंत्र की पकड़ अकादमिक जगत और मीडिया यानी क्लासरूम और न्यूजरूम में दिखाई देती है। इन दो जगहों पर ये खासे प्रभावी दिखाई देते हैं।
कैसे ये उन्माद को पोसने की कोशिश करते हैं जिसमें प्रगतिशीलता का कोई मतलब नहीं है, यहां तीसरा संदर्भ बिंदु आता है : रटगज विश्वविद्यालय (…) का सम्मेलन। यहां एक प्रस्तावित सम्मेलन की तिथि इस तरह से रखी गई कि कैसे भी हिंदुत्व को निशाना बनाया जाए और दुनिया में शांति एवं सुसंगता लाने वाले विचार दर्शन को अप्रासंगिक बनाया जाए। क्योंकि हिंदुत्व के विचार के रहते क्रांति नहीं हो पाएगी, खून नहीं बहेगा। इसलिए हिंदुत्व के लेबल को बदनाम करने के लिए वे अकादमिक तंत्र का भी उपयोग करते हैं और पत्रकारिता के उपकरणों का भी उपयोग करते हैं। गौर कीजिए, हाल ही में एक वामपोसी पत्रकारिता संस्थान का विज्ञापन था कि उसे पत्रकारिता के लिए एक ऐसे पत्रकार की तलाश है जो नरेंद्र्र मोदी से घृणा करता हो। यानी पत्रकार नहीं, मनोरोगी को पत्रकार के रूप में आगे बढ़ाना ताकि वामपंथ की दुकान चलती रहे।
रटगज विश्वविद्यालय के सम्मेलन की तिथि 11 सितंबर है जिसका ऐतिहासिक महत्व है। शिकागो में 11 सितंबर, 1893 को विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने दुनिया को एक करने वाला, भाईचारे वाला, विश्व बंधुत्व को पुष्ट करने वाला ऐतिहासिक भाषण दिया था। इस दिन का उपयोग ये हिंदू समुदाय को, उसकी समझ को दूषित करने, हिंदुत्व को एक ऐसे आतंक के तौर पर स्थापित करने के लिए कर रहे हैं जो पश्चिम के लिए या शेष दुनिया के लिए खतरा है। वे हिंदुत्व को एक गुंडा तत्व के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। यह अलग बात है कि 11 सितंबर के साथ एक सांस्कृतिक आह्वान की यादें हैं तो दुनिया की कुछ कष्टकारी यादें भी हैं। ऐसे समय ये पश्चिम में हिंदुत्व को एक भय के रूप में स्थापित करने का काम ये कर रहे हैं। हिंदू को अतिवादी बताने और नक्सलवादी, माओवादी, हिंसा के पैरोकारों को बौद्धिक योद्धा, शांति के मसीहा के तौर पर सामने खड़ा करने का इनका इतिहास रहा है। तो चाहे तालिबान की बात हो, चाहे मोपला के हत्यारों के महिमामंडन की बात हो, ये विश्व को शांति का उपदेश देने वालों के विरुद्ध षड्यंत्र कर अर्बन नक्सल के जरिए उनकी घेराबंदी का काम कर रहे हैं। इनके इस पूरे क्रियाकलाप को यदि आप टुकड़ों में देखेंगे तो वामपंथ समझ में नहीं आएगा परंतु जब अनेक घटनाओं/अलग-अलग परिदृश्य को एकसाथ जोड़कर देखेंगे तो समझ आएगा कि जो स्वयं पर सिविल सोसाइटी का लबादा ओढ़े है उस लबादे के पीछे कबीलाई या कहिए, वहशी जानवर छिपे हैं।
यह सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। वामपंथी कार्ययोजनाओं में आपको एक ऐसी कबीलाई मानसिकता दिखेगी जो हमेशा वार और शिकार की मनस्थिति में रहती है। भेड़िया खून का प्यासा होता है। इस ‘भेड़िया मानसिकता’ से यदि समाज छुटकारा नहीं पाएगा तो वह शांति की नींद भी नहीं सो पाएगा।
@hiteshshankara
Leave a Comment