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संस्कृति संवाद : प्राचीन ग्रंथों में है राजकोष, करारोपण पर व्यापक विमर्श

by WEB DESK
Aug 26, 2021, 12:00 am IST
in धर्म-संस्कृति, दिल्ली
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प्रो. भगवती प्रकाश


प्राचीन ग्रंथों में राजकोष, करारोपण और सार्वजनिक वित्त पर व्यापक विमर्श मिलता है। कर को ‘बलि’ कहा जाता था। यह बलि कौन लेगा, किससे लेना, कब लेगा, कितना लेगा, कब और कैसे बढ़ा सकता है, इसके स्पष्ट नियम प्राचीन वाङ्मय में हैं
 


 
राज्य के सात अंगों अर्थात् राजा, मन्त्री, सेना, दुर्ग आदि में राजकोष को सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शेष छह अंगों का आधार कहा गया है। गौतम धर्मसूत्र, महाभारत (शान्तिपर्व 119-16) कौटिल्य, सरस्वती विलास (पृ़ 46), बुधभूषण (पृ़36) एवं विष्णु धर्मोत्तर सूत्र (2-61-17) के अनुसार कोष राज्य रूपी वृक्ष की जड़ है और राज्य के दो प्रमुख स्तम्भ राजस्व एवं सैन्यबल हैं। आज भी संसद या विधान मण्डलों में बजट की प्रस्तुति महत्वपूर्ण है। शिक्षा, चिकित्सा, आधारिक संरचनाएँ, अनुसन्धान, उद्योग व रक्षा आदि पर व्यय राजस्व पर निर्भर है। कोष व उसके संग्रह पर कई सहस्राब्दी प्राचीन भारतीय विमर्श लोक वित्त पर आज उपलब्ध आधुनिक साहित्य से भी विस्तृत व सटीक है।
 
कोष का महत्व कोशमूला: कोशपूर्वा: सर्वारम्भा:। तस्मात्पूर्व कोशमवेक्षेत। कौटिल्य अर्थशास्त्र 2-2 य कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभि:। कोशमूला हि राजान: कोशो वृद्घिकरो भवेत॥ महाभारत-शान्ति पर्व (119-16) य कोशमूलो हि राजेति प्रवाद: सार्वलौकिक:। कामन्दकीय नीतिसार (13-33), एवं बुधभूषण (पृ 36)। कोशस्तु सर्वथा अभिसंरक्ष्य इत्याह गौतम:) तन्मूलत्वात्प्रतीनामिति। सरस्वतीविलास (पृष्ठ 46)।
 

राजकोष सम्बन्धी वर्तमान चुनौती

हमारा लक्ष्य शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपी का 6 प्रतिशत, चिकित्सा पर 5 प्रतिशत, अनुसंधान पर 2 प्रतिशत, रक्षा पर 4 प्रतिशत व्यय का होने पर भी इन हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पा रहे। हमारा कर राजस्व अत्यन्त कम होने से सकल घरेलू उत्पाद में केन्द्र सरकार का करानुपात 10 प्रतिशत एवं केन्द्र व राज्यों का संयुक्त अनुपात 17 प्रतिशत ही है। इसमें 8-9 प्रतिशत के केन्द्र व राज्यों में वेतन भुगतान में चुक जाने से शेष 8-9 प्रतिशत में से ही शिक्षा, स्वास्थ्य या चिकित्सा, रक्षा, अनुसन्धान आदि पर आवंटन सम्भव है।
 

न्यायपूर्ण प्राचीन कर व्यवस्था

ऊंची कर दरों से आर्थिक प्रगति बाधित न हो, इस पर करारोपण के प्राचीन सिद्घान्तों में सर्वाधिक बल दिया गया है। नेहरू-इन्दिरा युग में 1985 तक साम्यवादी दुराग्रहवश भारत में आयकर की अधिकतम दर 85 प्रतिशत व 10 प्रतिशत के अधिभार से प्रभावी दर 93़5 प्रतिशत हो जाती थी। संपत्ति कर आदि से अधिकतम कर भार 97 प्रतिशत तक पहुंच जाता था। इससे काला धन बढ़ा और आन्तरिक पूंजी निर्माण बाधित हुआ। कालेधन से जमाखोरी व कालाबाजारी तब चरम पर रही। आज आयकर की उच्चतम दर 30 प्रतिशत ही है। इससे कर पालना (टैक्स कम्पलायेन्स) सुधर गई है।
 

प्राचीन ग्रन्थकारों की न्यायसंगत कर व्यवस्था के निर्देश
राजा को करातिरेक एवं अत्यधिक कराधान रूपी अत्याचारों से विरत रहना चाहिए। कौटिल्य (7-5 पृ 276-277) के अनुसार करों की अधिकता से प्रजा में दरिद्रता, लोभ, असन्तोष, विराग आदि उपजते हैं।

अप्रदानैश्च देयानामदेयानां च साधनै:। अदण्डनैश्च दण्ड्यानां दण्ड्यानां चण्डदण्डनै:॥
   

अरक्षणैश्च चोरेभ्य: स्वानां च परिमोषणै:। .राज्ञ: प्रमादालस्थाभ्यां योगक्षेमविधावपि॥

प्रती नांक्षयो लोभो वैराग्यं चोपजायते। क्षीणा: प्रतयो लोभं लुब्धा यान्ति विरागताम्। विरक्त यान्त्यमित्रं वा भर्तारं घ्नन्ति वा स्वयम्॥ कौटिल्य (7-5)।
 

कर ग्रहण के प्राचीन सिद्धान्त

प्रथम सिद्घांत: राजा स्मृतियों द्वारा निर्धारित कर के अतिरिक्त अन्य कर नहीं लगा सकता था। कर की मात्रा वस्तुओं के मूल्य एवं समय पर निर्भर होती थी। गौतम धर्मसूत्र (10-24), मनुस्मृति (7ध्130), विष्णुधर्मसूत्र (3ध्22-23) के अनुसार राजा साधारणतया उपज का छठा भाग ले सकता था। कौटिल्य (5ध्2), मनुस्मृति (10ध्118), महाभारत शान्ति पर्व (अध्याय 87), शुक्रनीति (4ध्2ध्9-10) ने आपत्ति के समय अतिरिक्त  कर लगाने की छूट दी है। लेकिन, एक से अधिक बार नहीं। इसके लिए प्रजा से स्नेहपूर्ण याचना करनी चाहिए। तथापि, अनुर्वर भूमि पर भारी कर नहीं लगाना चाहिए।
 
श्लोक:कोशमकोश: प्रत्युत्पन्नार्थंच्छ्र: संगृह्णीयात्। जनपदं महान्तमल्पप्रमाणं वा देवमातृकं प्रभूतधान्यं घान्यस्यांशं तृतीयं चतुर्थ वा याचेत। .इति कर्षकेषु प्रणय:। इति व्यवहारिषु प्रणय:। सदेव न द्वि: प्रयोज्य:। अर्थशास्त्र (5-2)।
 
दूसरा सिद्घांत: महाभारत-शान्तिपर्व 87-26-33 के अनुसार राजा कभी भी अधिक कर लगाने के पूर्व प्रजाजनों से विशेष आग्रह करे। दूसरा, कर सदैव करदाता को हल्का लगे, जिसे वह बिना किसी कठिनाई व कर चोरी के चुका सके। महाभारत-उद्योगपर्व (34-17-18) के अनुसार, ‘‘जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्पों से बिना कष्ट दिए मधु लेती है, उसी प्रकार राजा को प्रजा से बिना कष्ट दिए कर लेना चाहिए।
 
तीसरा सिद्धान्त: कर वृद्घि क्रमश: शनै:शनै: और क्रमिक होनी चाहिए। महाभारत शान्तिपर्व 88-7-8 के अनुसार करों को उचित समय एवं उचित स्थल पर उगाहना चाहिए। महाभारत-शान्तिपर्व 88-12 एवं काम 5-83-84 के अनुसार व्यापारियों पर कर लगाते समय देखना चाहिए कि वस्तुओं के क्रय में कितना धन लगा है, राज्य में वस्तुओं की बिक्री कैसी होगी, कितनी दूरी से सामान लाया गया, मार्ग में खाने-पीने सुरक्षा आदि पर कितना धन लगा है (मनुस्मृति 7-127 एवं महाभारत-शान्तिपर्व 87-13-14)। शिल्पियों पर कर लगाने के पूर्व उनके परिश्रम एवं कुशलता आदि पर ध्यान देना चाहिए (महाभारत-शान्ति पर्व 88-15)।
 

श्लोक:-

1़ यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पद:। तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया॥ पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्। मालाकार इवारामे न यथाङ्गारकारक:॥ महाभारत उद्योग पर्व (34-17-28) एवं पराशर स्मृति (1-62) धम्मपद (49) ‘यथापि भ्रमरो पुष्फं वण्णगंधं अहेठयं। पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे॥ 2़ यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ। संवेक्ष्य तु तथा राज्ञा प्रणेया: सततं करा:॥ नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं तु परेषां चापि तृष्णया। ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा संप्रीतदर्शन:॥ महाभारत शान्तिपर्व (87-17-18)य मनुस्मृति (8-139):  ‘‘नोच्छिन्द्यात़.़.़.़.आदि’’। 3़ मालाकारोपमो राजन्भव मांगारिकोपम:। महाभारत शान्ति पर्व (71-20), और शुक्रनीतिसार (4-2-113)।4़ आददीत घनं काले त्रिवर्गपरिवृद्घये। यथा गौ: पाल्यते काले दुह्यते च तथा प्रजा॥ कामन्दकीय (5-83-84) ।
 

करारोपण की प्राचीन शब्दावली
करों के लिए एक शब्द ‘बलि’ है। ऋग्वेद (7-6-5 एवं 10-173-6) में साधारण लोगों के लिए ‘बलिहूत्’ शब्द राजा के लिएय ‘बलि’ शुल्क या कर लाने वाले के लिए प्रयोग हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (2-7-18-3) के अनुसार- ‘‘हरन्त्यस्मै विशो बलिम्’’ अर्थात् लोग राजा के लिए बलि लाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (35-3) में वैश्य को बलित्’’अर्थात कर देने वाला बताया है। मनुस्मृति (7-80), मत्स्यपुराण (215-57), वाल्मिकी रामायण (3-6-11), विष्णुधर्मसूत्र (22) में ‘बलि’ शब्द प्रयोग राजा द्वारा लगाये कर के लिए उपयोग किया गया है।
श्लोक:- स निरुध्या नहुषो यह्वो अग्निर्विशश्चक्रे बलिहृत: सहोभि:॥ (7-6-5)

अथो ‘त इन्द्र: केवलीर्विशो बलिहृतस्करत्॥ (10-17-56)य हरन्त्यस्म विशो बलिम् । तैत्तिरीय ब्राह्मण (2-7-18-3)।
 
शुल्क का अर्थ चुंगी भी है, जो क्रेताओं एवं विक्रेताओं द्वारा राज्य के बाहर या भीतर ले जाने या लाने वाले सामानों पर लगती थी (शुक्रनीति 4-2-108)। पाणिनि 4-3-75) के ‘आयस्थानेभ्यष्ठकू’ सूत्र की व्याख्या में महाभाष्य में चुंगी को चौकियों पर लिया जाने वाला शुल्क बताया जो राजा की आय का साधन था।
 
राजकोष के साधन तीन थे- उपज पर राजा का भाग, चुंगी एवं दण्ड। महाभारत-शान्तिपर्व (71-10 ) एवं शुक्रनीति (3-2-13)। राज्य के प्रमुख करदाता कुषक, वैश्य व्यापारी, उत्पादक शूद्र एवं शिल्पकार थे- मनुस्मृति 10-119-120। वर्धमान के दण्डविवेक (पृ 5) पर उद्घृत मनुस्मृति (8-307) के अनुसार जो राजा प्रजा की रक्षा किए बिना बलि, कर, शुल्क, प्रतिभोग एवं अर्थ दण्ड लेता है, वह नरक में जाता है। कुल्लूक के मत से ग्रामवासियों एवं नगरवासियों से प्रत्येक मास में, या वर्ष में दो बार, भाद्रपद या पौष में कर लिया जाए। इस प्रकार राजकोष पर प्राचीन ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तृत व व्यावहारिक विमर्श पाया जाता है।
 

(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)

 

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