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कैप्टन आलोक बंसल: ‘मध्ययुगीन सोच वाले तालिबान के पीछे पाकिस्तान’

by WEB DESK
Aug 22, 2021, 04:52 pm IST
in साक्षात्कार, दिल्ली
इंडिया फाउंडेशन के निदेशक कैप्टन आलोक बंसल

इंडिया फाउंडेशन के निदेशक कैप्टन आलोक बंसल

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अफगानिस्तान की धरती एक बार फिर दहल उठी है तालिबान उन्मादियों की गोलीबारी से। हिन्दुकुश की वादियां एक बार फिर गूंज उठी हैं दहशत के चीत्कार से। 1996 से 2001 तक इस देश को रौंदता रहा तालिबान एक बार फिर काबिज हुआ है काबुल में। अब, अफगानिस्तान का भविष्य क्या होगा? वहां के आम लोगों, बच्चों, महिलाओं का क्या होगा? दमन की हद क्या होगी? दुनिया के शांतिप्रिय देशों के साथ कैसा व्यवहार रहेगा इस्लामिक अमीरात की घोषणा करने वाले बंदूकधारियों का? पाकिस्तान के कथित इशारे और रणनीति पर कितना अत्याचार किया जाएगा? ऐसे कुछ सवालों पर वरिष्ठ रक्षा विशेषज्ञ और इंडिया फाउंडेशन के निदेशक कैप्टन आलोक बंसल से पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने विस्तृत बातचीत की, जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं

 

आज सभी के मन में सबसे पहले तो यही सवाल है कि क्या किसी ने कल्पना भी की होगी कि कुछ हफ्तों के अंदर ही अफगानिस्तान में ऐसी परिस्थितियां बन जाएंगी? अफगानिस्तान में आज हालात जिस तेजी से करवट लेकर रहे हैं, उस पर आपका क्या कहना है?

देखिए, अफगानिस्तान में जितनी तेजी से यह घटनाचक्र चला, इसकी अपेक्षा तो किसी ने नहीं की थी। लेकिन अभी जो अफगानिस्तान में हालात बने हैं ऐसे किसी सैन्य विजय के बाद नहीं बने, वे बने हैं महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सेनापतियों के पाला बदलने से। सेना की देश के प्रति जो वफादारी होनी चाहिए वह देखने को नहीं मिली। अफगानिस्तान में बने वातावरण में मनोवैज्ञानिक दबाव सबसे महत्वपूर्ण रहा है। जिस तरीके से राष्टÑपति बाइडन ने घोषणा की कि अमेरिका 11 सितम्बर, 2021 तक अपनी सेना हटा लेगा। इस घोषणा के बाद तालिबान के जो समर्थक थे, जैसे पाकिस्तान की आईएसआई, वे सब साथ जुट गए। हमले शुरू हो गए। ग्रामीण क्षेत्रों पर, जहां बहुत कम आबादी है, वहां उन्होंने पहले कब्जा किया। उसके बाद तालिबान ने राजधानियों पर हमला करना शुरू किया। शुरुआत में जो तीन बड़े शहर थे, दक्षिण और पश्चिम लश्कर, हैरात तथा कंधार— वहां पर भयंकर लड़ाई हुई, तालिबान को रोकने का काफी हद तक प्रयास किया गया। लेकिन उसके बाद तालिबान ने आगे बढ़कर उत्तर की तरफ सारी राजधानियों पर कब्जा कर लिया। उससे भी बड़ी बात यह हुई कि उन्होंने सभी सीमाओं के आवागमन मार्ग पर कब्जा कर लिया।
किस्तान सदा से तालिबान का समर्थन करता आया है। वह चाहता था कि काबुल में तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो। इसी कारण बड़ी तेजी से घटनाचक्र बदला और जिस तरह का हाहाकार मचा, उससे अफगान कमांडर या तो अफगानिस्तान से पलायन कर गये या तालिबान के समर्थन में आ गये। और हालात तेजी से बिगड़ते चले गए।

तालिबान 15 अगस्त के दिन काबुल में दाखिल हुआ। हमें याद है, पाकिस्तान ने पहले भी भारत के लिए महत्वपूर्ण इस तारीख पर किसी बड़ी घटना को अंजाम दिया है। क्या कहेंगे?
 
बिल्कुल, तालिबान के काबुल में दाखिल होने की घटना 15 अगस्त, 2021 के दिन हुई। यह दिन भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। पाकिस्तान जब भी कोई बड़ी भारत विरोधी गतिविधि करता है तो उसे इसी तिथि पर करने की कोशिश करता है। इसी तरह से 15 अगस्त, 1975 को शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या की गई थी। और भी अनेक घटनाएं हैं जो पाकिस्तान की कुटिलता को दर्शाती हैं।

तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने के सारे अभियान के पीछे अमेरिकी राष्टÑपति जो बाइडन की नीति कहां तक जिम्मेदार है?
 
यह बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, हमें समझना चाहिए कि वहां तालिबान का प्रभुत्व कैसे स्थापित हुआ। इसके लिए राष्ट्रयति बाइडन की मंशा काफी हद तक जिम्मेदार है। मैं तो कहूंगा उससे भी ज्यादा जिम्मेदार है पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की पहल जिसके अंतर्र्गत अमेरिका ने दोहा में सीधे तालिबान से बातचीत शुरू की और अफगान हुकूमत को बाइपास कर दिया। हमें यह समझना चाहिए कि एक कबाइली समाज में लोगों का एक पदानुक्रम मायने रखता है। लोगों की छवि के अनुसार उनसे बराबरी वाले ही बात करते हैं। जब अमेरिकी राष्टÑपति के नुमाइंदे तालिबानी नेता अब्दुल्ला बंधुओं से बात करते हैं तो एक सामान्य कबाइली की नजर में अब्दुल्ला बंधुओं की छवि उनके बराबर हो जाती है। इस वार्ता में चूंकि अफगानी राष्टÑपति और उनकी सरकार की कोई भूमिका नहीं रखी गई तो इससे वे कबाइली लोगों की नजर में कमजोर दिखे। सामान्य अफगान नागरिकों की नजरों में गनी सरकार की वैधानिकता नहीं रही। उनकी नजरों में तालिबान की मान्यता बढ़ गयी। इसी का नतीजा इस घटनाचक्र में दिखा है।
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा जो हमें समझना चाहिए कि तालिबान ने पहले भी 1996 में अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। उस दौर और आज के समय में एक बड़ा परिवर्तन है। पिछली बार तालिबान ने काबुल पर हमला किया था तब तालिबान सिर्फ पूर्व और दक्षिण की तरफ से आगे बढ़ा था। बाद में उसने उत्तरी और पश्चिमी हिस्सा भी जीत लिया। दुर्भाग्य से इस बार तालिबान ने काबुल को चारों तरफ से घेर लिया था। इसके कारण सेना का मनोबल तेजी से गिरा और सैनिक छोटी-छोटी टुकड़ियों में अपनी आत्मरक्षा में लग गये। जान बचाने वाली स्थिति दिख रही थी। यह बात सच है कि अफगानिस्तान में घुसने से पहले तालिबान ने अमेरिका के साथ कई वार्ताएं कीं। पर नतीजा अंतत: वही निकला जिसकी आशंका थी।

तालिबान खुद को बदला हुआ दिखा रहे हैं। क्या आपको लगता है, उनकी बर्बरता में कोई कमी आई है?
 
उन्होंने जो कुछ कहा, वैसा किया कहां। अपने वादों पर कभी गंभीर नहीं रहे। लोगों को उसी बर्बरता के साथ मारा जा रहा है जैसी हमने 1996 में देखी थी। उस समय वहां के तत्कालीन राष्टÑपति और उनके भाई की हत्या कर दी गई थी। हमें यह समझना चाहिए कि उनकी बर्बरता, उनकी मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है। आगे आयेगा, इसकी मुझे कोई अपेक्षा नहीं है।

जब तालिबान आगे बढ़ रहे थे उन दिनों एक खबर बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी कि हजारों ग्रामीणों ने हथियार उठाकर तालिबान से लोहा लेने का संकल्प किया था। तब लगा था कि शायद तालिबान के सामने एक प्रतिरोध खड़ा होगा। परंतु बाद में वह अफगानी भावना कहां खो गई?
 

अगर इतिहास को देखें तो इस तरह की गतिविधियां पहले भी देखने में आई थीं। जब नजीबुल्ला की सरकार लड़ रही थी तब भी हजारों लोगों ने कहा था कि हम अपनी स्वतंत्रता नहीं खोयेंगे। उस समय महिलायें नजीबुल्ला के साथ ज्यादा संख्या में थीं। तब काबुल में महिलाओं का काफी वर्चस्व था। बेशक, अफगान बड़े अच्छे लड़ाके हैं, लेकिन पाला बदलने में भी शुरू से माहिर रहे हैं। अगर एक बार लग जाये कि फलां जीतने वाला है तो वे स्वाभाविक रूप से उस तरफ चले जाते हैं। दूसरे, कई लोगों को पैसे का प्रलोभन देकर भी खरीदा गया है।

राष्टपति बाइडन की सेना वापसी की तय तिथि घोषित करने के फैसले को लेकर सवाल उठे हैं। जर्मनी और ब्रिटेन ने कहा कि अमेरिका का यह फैसला गलत था। आप इसको कैसे देखेंगे?
 
देखिए, अमेरिका का वहां से बाहर निकलना गलत फैसला नहीं था। वह सारी उम्र तो वहां पर नहीं रह सकता था। लेकिन इसमें एक चीज समझनी चाहिए कि अमेरिका अपनी सेना की संख्या कम कर सकता था। बाहर निकलना गलत नहीं था, परंतु बाहर निकलने की घोषणा करना गलत था। जिस तरीके से वह घोषणा की गयी और उससे जो अफगान सेना का मनोबल गिरा, वह खतरनाक साबित हुआ। अमेरिका ने अफगानिस्तानी सेना की जो संरचना की थी, उसमें भी एक दोष था। वह यह कि पाकिस्तान के दबाव में अमेरिका ने अफगान वायुसेना को सुदृढ़ नहीं किया। उसके तोपखाने को सुदृढ़ नहीं किया। उनके जाने के बाद देखरेख का जिम्मा अमेरिकी ठेकेदारों के हाथ में था। जब ठेकेदार चले गये तो अफगान वायुसेना काफी हद तक बेकार हो गई। उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ने लगा। यदि बाइडन जाने की घोषणा नहीं करते तो अफगानिस्तान सरकार एवं सेना अच्छी तरह से तालिबान का मुकाबला करती। उससे पहले सेना अच्छे से लड़ रही थी, वह सुदृढ़ थी।

अमेरिका की घोषणा के बाद, पाकिस्तान, तुर्की, चीन और रूस ने दोहा में कई दौर की बैठकें कीं। ‘शांति का प्रयास’ किया। उसका कोई नतीजा निकलने की पहले भी उम्मीद नहीं थी। क्या वह अमेरिका और शेष दुनिया को किसी और में उलझाए रखने वाली प्रक्रिया थी?
 
कोशिश मुख्यत: रूस और तुर्की की तरफ से हुई थी। पाकिस्तान तो पूरी तरह से जानता ही था कि क्या होना है। कुछ राष्टÑों को लग रहा था कि ऐसे में कुछ करें। यहां एक चीज समझनी चाहिए कि रूस, ईरान, तुर्की और कुछ हद तक चीन, इनकी भी दिलचस्पी नहीं है कि तालिबान का अफगानिस्तान में प्रभुत्व हो, लेकिन उनको उस वक्त यही लग रहा था कि अमेरिका का यहां से जाना और जरूरी है। लेकिन जब अब तालिबान का वहां पर प्रभुत्व हो जायेगा तो कई देशों पर इसका असर पड़ेगा। ईरान पर इसका सीधा असर पड़ेगा। उनकी विचारधारा तो आपस में मिलती ही नहीं है। मध्य एशियाई राष्टÑों के साथ भी समस्या आएगी, क्योंकि तालिबान की कट्टरपंथी विचारधारा पूरे मध्य एशिया तक जाएगी। चीन में उइगर मुस्लिम हैं, इसलिए वहां पर इस तरह के कट्टरपंथी पनपेंगे। इन सभी राष्ट्र समस्या हो सकती है। लेकिन तात्कालिक तौर पर ये सभी चाहते थे कि अमेरिका वहां से जाए। सबने एकजुट होकर इसकेलिए प्रयास किये। जबकि पाकिस्तान दोहरी नीति पर काम कर रहा था।

पाकिस्तान के पूर्व सीनेटर अफरिसियाब खट्टक ने हाल में कहा है कि तालिबान के हाथ में जो हथियार हंै, उन पर ‘मेड इन पाकिस्तान’ छपा हुआ है। इस पूरे प्रकरण में आईएसआई का कितना हाथ मानते हैं?
 
इसमें आईएसआई का पूरा हाथ है। अमेरिका की सेना वापसी की घोषणा के बाद जिस गति से तालिबान ने काबुल पर हमला बोला, वह दर्शाता है कि इसमें पाकिस्तान की आईएसआई का पूरा हाथ था। पाकिस्तान की शुरू से ही मंशा रही है कि अफगानिस्तान में एक ऐसी हुकूमत बैठे जो उसकी बात माने। उनको यह भी मालूम था कि अफगानिस्तान के रंगमंच पर कुछ ही लोग हैं जो पाकिस्तान की बात मानेंगे। यहां हम जान लें कि आईएसआई ने भले ही तालिबान को पाला-पोसा हो, लेकिन जरूरी नहीं कि तालिबान उसकी हर बात मानेंगे। ऐसा नहीं होगा। पाकिस्तान की सोच है कि उसे भारत को लेकर जो भी चिंताएं हैं, उन्हें दूर करने के लिए अफगानिस्तान में तालिबान का होना बहुत जरूरी है।

काबुल में तालिबान के कदम रखने के बाद से वहां जिस तरह की भगदड़ देखने में आई, लोगों में बदहवासी, चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखीं। इससे क्या यह साफ नहीं होता कि तालिबान की 1996 वाली बर्बरता पुन: लौटी है?
 
अनेक हृदयविदारक दृश्य देखने को मिले हैं पिछले कुछ दिनों में। हवाई अड्डे के अंदर गोलीबारी हुई है। वहां पर लाशें देखने को मिलीं। इसमें यह झलकता है कि लोगों में खौफ है, क्योंकि वे जानते हैं कि तालिबान की विचारधारा क्या है। संकट खासकर ऐसे लोगों के लिए है जो सरकार के समर्थक रहे या तालिबान विरोधी रहे या जिन्होंने अमेरिका या अन्य राष्टÑों का समर्थन किया है। जब नाटो सेना वहां पर थी तब बड़ी संख्या में अफगान लोग उनको सहयोग देते थे। वे सरकार के अंदर कार्य करते थे। ये सभी लोग आज भय के माहौल में जी रहे हैं। उनको मालूम है कि दर्दनाक मौत मिलेगी। इसलिए उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। अमेरिका की निर्भरता, उसकी विश्वसनीयता को एक बहुत बड़ा आघात लगा है।

खबर है कि चीन, ईरान, तुर्की, पाकिस्तान और रूस ने तालिबान को राजनीतिक मान्यता दे दी है। चीन ने कह दिया है कि उनका दूतावास काम करता रहेगा। कूटनीतिक तौर पर बाकी देशों की क्या स्थिति है?
 

देखिए, चीन और रूस के दूतावास पहले जैसे ही काम कर रहे हैं और पाकिस्तान को तो किसी भी प्रकार डरने की जरूरत नहीं है। अफगानिस्तान का नाम ‘इस्लामिक अमीरात’ होगा जो कि उनका पहले से ही उद्देश्य था, उसे उन्होंने पूरा कर दिया। अब आगे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्राथमिकता यही होगी कि वह अपने नागरिकों को वहां से निकाले और जो अफगान वहां से निकलना चाहते हों, उनकी मदद करे। इसलिए तालिबान के खिलाफ इस समय अंतरराष्टÑीय समुदाय कोई कठोर कदम नहीं उठाना चाहेगा। इसलिए मुझे लगता है, उसकी ओर से कुछ समय बाद ही कोई महत्वपूर्ण गतिविधि होगी। अभी तो महिलाओं और बच्चियों पर खतरा मंडरा रहा है। तालिबान लाख कहें, महिलाओं के अधिकारों का सम्मान होगा, पर असलियत कुछ और ही सामने आ रही है।
 
क्या संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद की आपात बैठक से कोई ठोस परिणाम निकलने की उम्मीद है?
 
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपातकालीन बैठकें हुई हैं। भारत उसका अध्यक्ष है। इस वक्त संयुक्त राष्ट्र क्या कर सकता है, इस पर मुझे थोड़ा संदेह है, क्योंकि तालिबान को काबुल से निकालना अब उतना आसान नहीं है। इस विषय को हमें अच्छी तरह से देखना होगा। लेकिन यह तो तय है कि तालिबान पर दबाव डालने की चेष्टा होगी। तालिबान भी यह चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट से उन्हें आदर मिले। लेकिन उनकी कथनी और करनी में बहुत फर्क है। तालिबान के अंतरराष्टय नेता तो समझते हैं कि क्या-क्या रुकावटें हैं, लेकिन उसके जमीनी लड़ाके तो कट्टर सोच से जुड़े हैं। उनकी मध्ययुगीन विचारधारा है। वही सामने आ रही है।
अंतरराष्टय समुदाय को सबसे पहले मानवाधिकारों की चिंता करनी है। यदि एक बार नागरिक सुरक्षित हो जाएं तो अगले कदम की तरफ बढ़ा जाए। यह ‘इस्लामिक अमीरात’ की सोच अफगानिस्तान के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ा खतरा हो सकती है।

कुछ विशेषज्ञों को डर है कि कहीं अफगानिस्तान की धरती इस्लामिक उन्माद की नर्सरी न बन जाए। इसे आप कितना बड़ा खतरा मानते हैं?
 

देखिए, अल कायदा के वैश्विक जिहाद के लिए उसे तालिबान चाहिए। उसके लिए जरूरी है तालिबान के प्रभुत्व में एक अमीरात का होना। अब जब अफगानिस्तान में इस्लामिक अमीरात शुरू हो रहा है तो जिहाद के लिए नये तरीके से आने वाले रंगरूटों की संख्या में तुरंत वृद्धि होगी। मोसुल के गिरने के बाद दुनिया भर के लोग इस्लामिक समर्थन में उतरे थे, उसी तरह का घटनाचक्र आगे दिख सकता है। यह भी हो सकता है कि दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जो छोटे-छोटे इस्लामिक संगठन लड़ रहे हैं, उनमें से बहुतों ने पहले ‘दाइश’ को अपना समर्थन दिया था, अब हो सकता है कि इस्लामिक अमीरात या अलकायदा को वे अपना समर्थन देने लगें। खतरा इस बात का भी है कि भारत के कुछ मजहबी उन्मादी युवा उसकी तरफ जा सकते हैं।
 

भारत ने अफगानिस्तान में विकास कार्यों में काफी पैसा खर्च किया है। अब भारत की वहां क्या भूमिका देखते हैं?
 
भारत ने वहां विकास में जो योगदान दिया है, उससे अफगान जनता काफी खुश है। भारत की छवि अफगानिस्तान में बहुत अच्छी रही है। अब वहां तालिबान का शासन है तो बेशक, उसको तय करना है कि आगे भारत के किए काम को कैसे देखना है। जहां तक भारत के निवेश का सवाल है तो हमने निवेश बदले में कुछ पाने के नजरिए से तो नहीं किया।

क्या तालिबान के अफगानिस्तान में दुबारा प्रभुत्व में आ जाने से, जम्मू-कश्मीर पर कोई आंच आ सकती है?
 

तालिबान के जो लड़ाके हैं, जिन्होंने सारी जिंदगी सिर्फ बंदूक चलाई हो, वे खेत में हल तो नहीं जोतेंगे। हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। जिन्होंने 20 साल से ज्यादा समय गोलीबारी में ही बिताया हो, अब वे एक नये युद्धक्षेत्र की तलाश में निकल जाएंगे। इनमें से कई युद्धक्षेत्र हमारे यहां भी हो सकते हैं। जब अफगानिस्तान में 20 साल पहले तालिबान का प्रभुत्व था तब हमारे यहां कश्मीर को जिहाद का एक बहुत बड़ा अड्डा बना दिया गया था।
 
चेचन्या से लेकर सूडान तक के आतंकवादी दिखते थे यहां। हो सकता है, वैसी स्थितियां दोबारा बन जाएं। इसके लिए हमें तैयार रहना होगा। और ऐसा, इस क्षेत्र के जितने भी राष्ट हैं, सबमें हो सकता है। पर हमारे यहां ज्यादा प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस सोच का अंतिम उद्देश्य तो वैश्विक इस्लामिक अमीरात की स्थापना करना है। दाइश का मानना है कि पूरा भारत ही खुरासान है। तालिबान की मानसिकता मध्ययुगीन है।

अफगानिस्तान ने जितना विकास किया पिछले दो दशकों में वह सारा मटियामेट हो गया है। अगर तालिबान अफगानिस्तान में टिक गया तो वही हाल होगा जो उसके पिछले शासन के दौरान हुआ था। 

 

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