रतन शारदा
संघ की स्थापना से पूर्व ही खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया था जिसके किसी सिरे के भारत से न जुड़ने के बावजूद महात्मा गांधी ने इसे समर्थन दे दिया। कमाल पाशा के तुर्की से खलीफा को हटाने के विरुद्ध भारत में मुसलमान जगह-जगह दंगे भड़काने लगे और हिंदुओं पर बर्बरता ढाने लगे। उधर, कांग्रेस निरंतर इस्लामी चरमपंथियों के सामने झुकती जा रही थी और हिंदुओं का मानसिक बल लगातार क्षीण पड़ता जा रहा था
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के दिल में बचपन से ही भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने की भावना कूट-कूट कर भरी थी और यही जीवन पर्यंत उनके कर्मपथ की मूल प्रेरणा बनी रही और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का लक्षित उद्देश्य भी। डॉ. हेडगेवार का पहला आंदोलन बोगस मेडिकल डिग्री बिल के विरुद्ध था। इस बिल में राष्ट्रवादी संगठन द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेजों को निशाना बनाया गया था। डॉक्टर जी ने इसका विरोध करने का फैसला किया। उनकी रणनीति से अंग्रेज सरकार ने इसे वापस ले लिया। उस दौर में सामाजिक और राजनीतिक वातावरण को जिन प्रमुख मुद्दे और घटनाओं ने परिभाषित किया, वे निम्नलिखित हैं :
1. स्वतंत्रता आंदोलनों की दो अलग-अलग धाराएं। एक थी क्रांतिकारी विचारधारा, तो दूसरी अहिंसा का पालन करने वाली।
2. सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पुनर्जागरण की धारा, जिसकी अलख स्वामी विवेकानंद और कई अन्य विभूतियों ने जगाई थी, लोकमान्य तिलक की मृत्यु और महात्मा गांधी के आगमन के साथ क्षीण पड़ गई थी।
3. कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन को उकसाया और गांधी जी हर कीमत पर हिंदू-मुस्लिम एकता की पुरजोर वकालत करते रहे जिसका मतलब हिंदुओं की कीमत पर था। इसी स्थिति ने पाकिस्तान को मूर्त रूप दिया।
4. शीर्ष नेता मुसलमानों की बढ़ती ज्यादतियों और हिंदुओं के खिलाफ हो रही हिंसा के प्रति जहां निस्पृह थे और वहीं मुसलमानों के सभी अपराधों पर लीपापोती कर रहे थे।
5. आत्मविश्वास की कमी, संगठन की कमी और सामाजिक जीवन के हर पहलू में गौरवशाली हिंदू परंपरा को लोग भूलते जा रहे थे। डॉक्टर जी अपने छात्र जीवन के दौरान कोलकाता में अनुशीलन समिति का हिस्सा रहे थे। 1916 में नागपुर वापस लौटने पर वे क्रांतिकारी दलों के लिए काम करने लगे। यह सिलसिला 1918 तक चला। वे संगठित तरीके से काम करने के लिए कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन क्रांतिकारी नेताओं के साथ संपर्क बनाए रखा। इस बीच रौलेक्ट एक्ट, जलियांवाला बाग नरसंहार जैसी घटनाएं हइं।
आंदोलन में रूढ़िवादी इस्लाम का प्रवेश
24 नवंबर, 1919 को अली बंधुओं के नेतृत्व में खिलाफत सम्मेलन हुआ, जिसमें अंग्रेजों से तुर्की में खिलाफत की बहाली की मांग की गई। गांधी जी ने इस पूर्णत: इस्लामी आंदोलन, जिसका कोई सिरा भारत से नहीं जुड़ता था, को मुसलमानों से नजदीकी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। नतीजा यह हुआ कि शिक्षित आधुनिक मुसलमान राजनीति की मुख्यधारा से अलग होते गए और मुस्लिम नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन पर अपना प्रभाव बना लिया।
गांधी जी ने असहयोग आंदोलन और खिलाफत को एक साथ जोड़ लिया था। दुर्भाग्य से लोकमान्य तिलक 1 अगस्त, 1920 को इस दुनिया से चले गए। सितंबर 1920 में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया, जहां तिलक के बाद गांधी जी को नए नेता के रूप में आधिकारिक रूप से चुना गया। तिलक के अनुयायी पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिए गए। इस दौरान, खिलाफत के नेताओं ने अंग्रेजों को तुर्की में खलीफा का शासन बहाल करने की घोषणा करने के लिए एक महीने का नोटिस दिया और ऐसा न होने पर हिजरत शुरू करने और ताकत इकट्ठी कर वापस आकर भारत को दार-उल-इस्लाम में (जहां इस्लाम के अनुयायी शासन करते हैं) बनाने के लिए लड़ाई लड़ने की धमकी दी। गांधी जी ने उन्हें सफल होने का आशीर्वाद दिया।
मुस्लिमों को खुश रखने की कवायद में हिंदू एजेंडा को नजरअंदाज करने की कांग्रेस की नीति का एक और संकेत इस बात में भी झलका जब उसने गायों की सुरक्षा संबंधी प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया और जिसे उनके नेता, बढ़े जी ने पेश किया था। जब गांधी जी ने बढ़े जी से मंच छोड़ने के लिए कहा और उन्होंने मना कर दिया तो अधिवेशन में भारी बवाल हो गया। अंतत: गांधी जी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक को स्थगित कर दी।
इस अधिवेशन में गांधी जी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था जिसे खिलाफत आंदोलन के साथ मिला दिया गया। इस दौरान डॉक्टर जी गांधी जी से मुलाकात की और हिंदू-मुस्लिम एकता को लेकर अपनी शंकाएं व्यक्त कीं। गांधी जी ने उन्हें समझाने की कोशिश करते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता के लाभ के बारे में बताने की कोशिश की। डॉक्टर जी ने कहा कि कांग्रेस में बैरिस्टर जिन्ना, डॉ अंसारी और हकीम अजमल खान जैसे अन्य मुस्लिम नेता तो पहले से ही काम कर रहे हैं। गांधी जी ने इस तर्क का कोई उत्तर नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार ने आखिरकार डॉ. हेडगेवार के भाषणों को विषाक्त बताते हुए उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। 19 अगस्त, 1921 को वे जेल गए। जब डॉक्टर जी जेल से बाहर आए तो उन्होंने अपने आस-पास के परिदृश्य पर विचार किया। उस समय तक खिलाफत आंदोलन और उसके समर्थक कांग्रेस और देश के लिए स्थायी सिरदर्द बन गए थे।
इसी दौरान मोपला दंगा भड़क उठा। यह हिंदुओं पर ढहाई गई सबसे बर्बर हिंसा थी। भारत सेवक समाज की टीम ने रिपोर्ट दी कि 1,500 हिंदुओं की हत्या हुई है। लेकिन, दंगों के बारे में पारित कांग्रेस के प्रस्ताव ने उन लोगों पर दोष मढ़ने की कोशिश की, जो खिलाफत के खिलाफ थे और दावा किया कि केवल तीन परिवारों पर हमला किया गया था। हैरानी की बात है कि गांधी जी के वक्तव्य ने खूनी हिंसा को लगभग सही ठहरा दिया। 1924 में कमाल पाशा ने तुर्की में मजबूती हासिल की और खलीफा को तुर्की से भगा दिया। उसने राज्य की नीति के रूप में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त पेश किया, इस्लाम नहीं। मुसलमानों ने चिढ़कर 1923 से ही देश के विभिन्न हिस्सों में दंगे शुरू कर दिए थे। स्पष्ट था कि दंगों का नेतृत्व खिलाफत नेताओं ने किया था।
नागपुर- चरमपंथी इस्लाम की प्रयोगशाला
इस दौरान नागपुर बेहद तनावपूर्ण महीनों का साक्षी रहा। लंबे समय तक चलने वाले इस प्रकरण को डिंडी सत्याग्रह कहा गया। नागपुर के हिंदू हर साल गणेश जी (डिंडी) की मूर्ति के साथ जुलूस निकालते थे। परंतु, उस वर्ष, मुसलमानों ने मांग की कि मस्जिद के मार्ग के सामने कोई ढोल या नगाड़ा नहीं बजाया जाए। फिर कहा, कि कोई वाद्य यंत्र भी न बजाया जाए। दो दिनों के बाद मुसलमान मस्जिद के सामने वाली सड़क के लिए टोल टैक्स की मांग करने लगे। अंत में, हिंदू अधिकारों की रक्षा के लिए एक समिति का गठन किया गया। डॉक्टर जी को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद हिंदुओं के विरोध और दबाव के बाद मुसलमानों ने जुलूस की अनुमति दी। डाक्टर जी ने महसूस किया कि साहसी और शारीरिक रूप से स्वस्थ युवाओं को राष्ट्र की सेवा के मार्ग के लिए तैयार करना होगा जिन्हें समाज और राष्ट्र पर गर्व हो। वीर सावरकर के बड़े भाई तात्याराव सावरकर को काला पानी से रिहा करने की मांग एक करने वाली बैठक में अक्तूबर 1923 की बैठक में डॉक्टर जी ने हिंदू शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया और हिंदू राष्ट्र का मंत्र दिया। इस दौरान यूपी, कर्नाटक, पंजाब में मुसलमानों ने दंगे फैलाए। कोहाट की स्थिति सबसे खराब थी, जहां 155 हिंदुओं की हत्या कर दी गई थी। इसी बीच, स्वामी श्रद्धानंद ने अपना शुद्धि आंदोलन और घर वापसी शुरू कर दिया था। इतने सारे मुसलमानों की हिंदू धर्म में वापसी हुई कि 1926 में चांदनी चौक में दिनदहाड़े उनकी हत्या कर गई। उनका हत्यारा था अब्दुल रशीद, गांधी जी ने उसे आड़े हाथों लेना तो दूर, बल्कि उसे अपना भाई कह कर बुलाया। इस दौरान मौलाना हजरत मोहम्मद ने अलग स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की मांग रखी जिसमें उत्तर-पश्चिम प्रांत, पंजाब और सिंध शामिल थे। हैं। यह पाकिस्तान की पहली स्पष्ट मांग थी।
रा.स्व.संघ का जन्म
डॉक्टर जी ने अपने करीबी दोस्तों अप्पा जी जोशी, भाऊराव के साथ हिंदुओं को संगठित करने के संबंध में चर्चा की। उन्होंने रत्नागिरी में वीर सावरकर और उनके भाई तात्याराव से मुलाकात की और अपने विचार साझा किए। उन्होंने गौर किया कि दंगों की प्रतिक्रिया के रूप में हिंदुओं का उदय पर्याप्त नहीं, जरूरत थी एक हमेशा तैयार संगठन (नित्य सिद्ध शक्ति) की। उन्होंने हिंदुत्व ही राष्ट्रवाद है और हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व का
मंत्र दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन करने से पहले डॉक्टर जी तीन चरणों से गुजरे –
1. क्रांतिकारी आंदोलन में भागीदारी, उसके बाद कांग्रेस पार्टी और उसके आंदोलन में प्रतिबद्ध भागीदारी।
2. खिलाफत और असहयोग आंदोलन का दौर, कांग्रेस को सिर्फ मुसलमानों की चिंता थी, किसी अन्य समुदाय की नहीं, क्योंकि इसी के भरोसे वह अपनी सफल पारी खेल रही थी।
3. हिंदुओं की कमजोरी और खिलाफत समर्थकों द्वारा भड़काई गई हिंसा में मुसलमानों का सामना करते समय संगठन की कमी।
अंतत: 1925 की विजयादशमी के दिन डॉक्टर जी के लगभग 15-20 साथी उनके घर पर मिले और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की घोषणा हुई।
(लेखक फरर360 पुस्तक के लेखक हैं)
स्वतंत्रता का संकल्प: आंचलिक मोर्चे
उत्तर प्रदेश का किसान आंदोलन
1921-22 में उत्तर प्रदेश में भी किसान आंदोलन हुआ। उस समय देशभर में आजादी की लड़ाई चरम पर थी। गांधी जी के असहयोग आंदोलन से उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं था। अकाल, महामारी के कारण किसानों की हालत दयनीय थी। निश्चित लगान, जमीन से बेदखली आदि खत्म करने को लेकर किसानों का आंदोलन भी तेज हो रहा था। यह आंदोलन जमींदारों और उनकी पोषक ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध था। फैजाबाद में जनवरी 1921 में यह आंदोलन उग्र हो गया। रायबरेली जिले में भी किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ। 1922 की शुरुआत में यह आंदोलन बरेली, गोरखपुर, बाराबंकी, हरदोई आदि कई स्थानों पर फैल गया। किसान गांवों में जमींदारों एवं उनकी मदद के लिए आई अंग्रेजी पुलिस व सेना से लड़ रहे थे। साथ ही, ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में भी शामिल थे। 4 फरवरी, 1922 को गोरखपुर के पास चौरीचौरा में हुए संघर्ष में भी किसान शामिल थे। लेकिन अंग्रेजों ने बल प्रयोग कर इसे कुचल दिया।
अलवतिया देवी
पिता, पुत्री और दामाद की तिकड़ी
बोकारो जिले की एकमात्र महिला स्वतंत्रता सेनानी अलवतिया देवी और उनके परिवार की स्वतंत्रता आंदोलन में बहुत बड़ी भूमिका है। उनके पिता शिवदयाल, पति जटाशंकर और खुद अलवतिया ने अंग्रेजों का मुकाबला किया। अलवतिया को पिता से ही देशप्रेम की प्रेरणा मिली थी। विवाह के बाद उनके पति भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे। पिता, पुत्री और दामाद की इस तिकड़ी ने अंग्रेजों को अच्छी-खासी चुनौती दी थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तीनों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। बाद में अलवतिया को गर्भवती होने के कारण छोड़ दिया गया, जबकि उनके पिता और पति दोनों को पटना की बांकीपुर जेल भेज दिया गया। जेल के अंदर भी ससुर और दामाद के तेवर कम नहीं हुए। दोनों प्रतिदिन जेल में ‘वंदेमातरम्’ गाते थे। इससे गुस्साए अंग्रेजों ने इन दोनों की एक बार जबर्दस्त पिटाई कर दी। इस पिटाई से अलवतिया के पिता की जेल में ही मौत हो गई। इसके बाद उनके पति को छोड़ दिया गया, लेकिन उनकी भी इतनी पिटाई की गई थी कि जेल से बाहर आने के तीसरे दिन वे भी सिधार गए। पिता और पति की मृत्यु के बावजूद अलवतिया ने संघर्ष का मार्ग अपनाया। देश के प्रति उनके इस योगदान को देखते हुए ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें सम्मानित किया था। 25 जून, 2019 को अलवतिया अम्मा का निधन हो गया।
-डॉ. राकेश कुमार महतो
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