डॉ. हरीन्द्र श्रीवास्तव
देश को स्वतंत्र कराने के लिए वीर सावरकर सेल्युलर जेल की उस कोठरी में 10 साल तक रहे, जहां ठीक से लेटा भी नहीं जा सकता था। बदबू ऐसी कि सांस लेने में भी परेशानी। तय मात्रा में तेल नहीं निकालने पर प्रतिदिन खुली पीठ पर कोड़ों का प्रहार। इसलिए यह कहने में कोई हिचक नहीं कि हर कोई सावरकर नहीं बन सकता
वह तिथि थी दो जुलाई, 1911. बेड़ियों में जकड़े स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को पोर्ट ब्लेयर के बंदरगाह पर उतारा गया। लगभग 15 मिनट तक बेड़ियों, हथकड़ियों की खड़ताल पर चलते-चलते सावरकर उस भीमकाय और भयावह दुर्ग-रूपी कारागार के प्रवेश द्वार पर पहुंचे।
सात खंडों और तीन मंजिलों में विभक्त इस दानवीय (सेल्युलर) जेल में सातवें खंड के दूसरे तल्ले पर एक विशेष दोहरे-द्वार वाली खोली नं- 234 में सावरकर को रखा गया। खोली भी ऐसी जहां पूरे पांव पसारने पर दीवारों को छुआ जा सकता था, और दोनों हाथ उठाने पर छत को। उन्हें नारियल का तेल निकालने वाले कोल्हू में बैल की तरह जोत कर रोज 30 पाऊंड तेल निकालने का आदेश दिया गया जो अन्य सभी कैदियों से अधिक था। उस दुबले-पतले प्राणी के लिए यह दंड प्राणलेवा था। वह बीच में कई बार हांफते, थककर चूर-से हो जाते और कभी-कभी तो गिर पड़ते। शाम को तेल की मात्रा तौली जाती और कम होने पर नंगी पीठ पर प्रति पाऊंड पर एक कोड़े का दंड मिलता। पर हर कोड़े के साथ एक प्रतिध्वनि भी होती, ‘‘वन्देमातरम्, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय।’’ शाम को जो बासी, तिबासी भोजन मिलता उसे ‘दाल में पानी अथवा पानी में दाल’ कुछ भी कहा जा सकता था। पर वह कालजयी आदमी क्या इन विषमताओं के समक्ष घुटने टेकने वाला था? इतनी प्रताड़नीय दिनचर्या के बाद जब रात्रि आती तो भी भला उसे नींद कहां थी। इस समय को उस ‘शारदा-पुत्र’ ने सरस्वती सेवा के लिए चुना। कभी नाखूनों को बढ़ा कर, कभी कीलों-कांटों से अथवा बर्तनों को घिस-घिस कर उनकी नोकों से उसने कोठरी की चारों दीवारों पर साहित्यिक रचनाएं उकेरनी आरंभ कीं। वह भी ऐसी अद्भुत विधि से कि आज भी सहज विश्वास नहीं होता। कभी नाटक, कभी कविता, कभी उपन्यास, कभी इतिहास और कभी आत्म-कथा-इन सभी विधाओं में प्रतिदिन कुछ न कुछ उन दीवारों पर लिखना, उन्हें कंठस्थ करना और मिटा देना। यह सृजन प्रक्रिया निरंतर दस वर्ष तक चलती रही।
उधर अंग्रेजों का चातुर्य देखिए कि 1909 में अंदमान आए बाबा राव सावरकर को 1911 में विनायक के आने का कोई समाचार नहीं था और कदाचित विनायक को भी नहीं। कुछ वर्ष बाद जब एक दिन दोनों भाई अपनी-अपनी तेल की बाल्टियां लिए तेल गोदाम के निकट आमने-सामने पड़ गए तो दोनों ही स्तंभित रह गए। नवंबर, 1918 में प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ। अंदमान के लगभग सभी बंदियों को स्वदेश लौटने का आदेश मिला, पर दोनों सावरकर बंधुओं के विषय में कोई निर्णय नहीं लिया गया। हां, उनके परिजनों को अंदमान आकर उनसे मिलने की अनुमति मिल गई। लेकिन भेंट से दो महीने पहले ही बाबा राव की पत्नी यसु बाई मार्च 1919 में चल बसीं। विनायक के 36वें जन्म दिन से एक दिन पूर्व 27 मई, 1919 को पत्नी यमुना बाई, छोटा भाई नारायण राव और उनकी पत्नी शांता बाई, दोनों भाइयों से मिले। यसु बाई को न पाकर बाबा राव पर क्या बीती होगी, कौन लिख सकेगा? 1920 में एक बार फिर नारायण राव दोनों भाइयों से आकर मिले।
उधर विश्व भर के समाचारपत्रों में इन दोनों भाइयों की मुक्ति के लिए सैकड़ों प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुर्इं, जिससे अंग्रेजी सरकार पर काफी दबाव पड़ा। अंतत: अंदमान से उनकी मुक्ति की घड़ी भी आ गई। दो मई, 1921 को ‘महाराजा’ नामक उसी जलपोत में (जो दस वर्ष पूर्व विनायक को मद्रास से लेकर आया था) दोनों क्रांतिपुत्र स्वदेश की ओर लौट पड़े। इसके बाद सावरकर जी को रत्नागिरी नगर की जेल में रखा गया।
(यह लेख ‘कालजयी सावरकर’ के कुछ अंशों पर आधारित है। )
स्वतंत्रता का संकल्प: आंचलिक मोर्चे
पूर्णिया में रात में फहराया जाता है तिरंगा
बिहार के पूर्णिया में अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी का पहला संघर्ष टीकापट्टी से शुरू हुआ था। आज भी देश में सबसे पहले झंडा यहीं फहराया जाता है। यहां झंडा चौक पर 14 अगस्त की रात 12:01 यानी 15 अगस्त के प्रवेश करते ही तिरंगा फहराया जाता है। इसके पीछे की कहानी बहुत दिलचस्प है। 14-15 अगस्त की मध्य रात्रि में 12 बजे जैसे ही रेडियो पर घोषणा हुई कि भारत एक स्वतंत्र राज्य है, उसी समय पूर्णिया के स्वतंत्रता सेनानी रामेश्वर प्रसाद सिंह, रामरतन साह और शमसुल हक ने साथ मध्य रात्रि में तिरंगा फहरा दिया। तब से लेकर आज तक यह परंपरा चली आ रही है। पूर्णिया के भट्ठा बाजार के समीप स्थित इस चौक का नाम भी झंडा फहराने के कारण झंडा चौक रखा गया है। रामेश्वर प्रसाद सिंह के परिजन प्रतिवर्ष इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। भारत में वाघा सीमा और पूर्णिया के झंडा चौक पर ही सिर्फ मध्य रात्रि में झंडोत्तोलन होता है। -संजीव कुमार
तिलका मांझी
‘संथाल हूल’ के जनक
क्रांतिकारी तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज के पास तिलकपुर नामक गांव में हुआ था। उस समय गांवों की भूमि, खेती और जंगलों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। यह सब देखकर तिलका ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया। वे लोगों से कहते थे कि जाति और मत-पंथ से ऊपर उठकर अंग्रेजों का विरोध करो। 1770 में भीषण अकाल पड़ा। उस समय तिलका ने अंग्रेजों का खजाना लूटकर गरीब लोगों में बांट दिया। इसी के साथ शुरू हुआ उनका ‘संथाल हूल’। इसके बाद उन्होंने 13 जनवरी, 1784 को भागलपुर में घोड़े पर सवार होकर जा रहे अंग्रेज कलेक्टर अगस्टस क्लीवलैंड को ताड़ के पेड़ से जहरीले तीर चलाकर मार गिराया। तिलका ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का सहारा लिया। अंग्रेजों ने उनके ही समुदाय के लोगों को भड़काना शुरू कर दिया। इसके बाद एक गद्दार ने उनके ठिकाने की सूचना अंग्रेजों को दे दी। रात के अंधेरे में अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया। उन्होंने भागकर एक पहाड़ी पर शरण ली और वहीं से अंग्रेजों को चुनौती दी। इसी दौरान अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया। 13 जनवरी, 1785 को उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी याद में भागलपुर में ‘तिलका मांझी’ चौक है और भागलपुर विश्वविद्यालय का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया है। -रितेश कश्यप
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