महुआ डबर नरसंहार : डेढ़ सौ साल बाद सामने आया सच!

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महुआ डबर में खुदाई के दौरान मिले अवशेष (फोटो भारत डिस्कवरी डॉट ओआरजी से साभार)


अंग्रेजों ने 1857 में बस्ती जिले में महुआ डबर नामक एक कस्बे को उसके निवासियों समेत जलाकर खाक कर दिया। इस कस्बे का नाम मानचित्र से भी हटा दिया था। किसी को यह इतिहास पता नहीं था। उस कस्बे से घटना के पहले वहां से भागे एक व्यक्ति के प्रपौत्र के 14 वर्ष के प्रयास से डेढ़ सौ साल बाद उस नरसंहार की कहानी सामने आई


कादम्बरी मेहरा

महुआ डबर, यह कोई अर्थहीन शब्द नहीं है। यह एक स्थान विशेष का नाम है जो भारत के इतिहास का साक्षी है परंतु जिसका साक्ष्य नहीं छोड़ा गया। कहते हैं, जलियांवाला बाग में जब मासूम नागरिकों का संहार हुआ तो यह खबर पूरी तरह दबा दी गयी और इसे देश के कर्णधारों तक पहुंचाने में छह महीने लग गए। मगर 'महुआ डबर' के नरसंहार की खबर किसी-किसी को शायद पता भी हुई, तो वह भी दुर्घटना के पूरे डेढ़ सौ साल के बाद। पाप छुपता नहीं है। कहीं न कहीं कोई निर्दोष आत्मा भटकती रहती है अपनी कहानी सुनाने के लिए।

लतीफ अंसारी मुंबई के कपड़ा व्यापारी हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के बहादुरपुर गांव में 1945 में हुआ था। उनके पिता मुहम्मद अली अंसारी रोजी की तलाश में रंगून चले गए मगर कुछ वर्षों के बाद मुंबई आ गए और ढाबा खोल लिया। दसवीं तक शिक्षा लेने के बाद मुहम्मद लतीफ ने दर्जी का काम सीखा और काम शुरू कर दिया। मां-बाप ने 19 वर्ष की अवस्था में उनका निकाह अपने ही गांव की एक लड़की से तय कर दिया। वे निकाह के लिए बहादुरपुर गए। रास्ते में वे एक सुनसान स्थान पर एक जली हुई मस्जिद के खण्डहर में ठहरे। लतीफ के चाचा मुहम्मद रज्जाक ने बताया कि यहां जुलाहों का कस्बाई गांव था जिसे अंग्रेजों ने समूल जला कर खाक में मिला दिया। लतीफ के मन में यह कहानी एक फांस बन कर बैठ गई। उसे यह तो पता था कि उसके पुरखे भी जुलाहे थे और बंगाल से आये थे। लतीफ इस जगह के इतिहास को जानने के लिए उत्सुक हो गए।

करीब तीस वर्ष और बीत गए। लतीफ ने अपने दूसरे पुत्र के लिए बहादुरपुर से ही लड़की लाने का निश्चय किया। साथ ही उसके मन में हमेशा एक बेचैन करने वाला अहसास घुमड़ता रहता था उस जली मस्जिद और उजड़े गांव को लेकर। पता चला कि यहां महुआ डबर नाम का एक कस्बा था जिसे 1857 के गदर में जला कर उसके सारे निशान मिटा डाले गए थे। सरकारी दस्तावेजों से नाम और पंजीकरण संख्या भी मिटाकर वहां से करीब 50 मील दूर एक छोटे से कस्बे को महुआ डबर नाम से पंजीकृत कर दिया गया था।

लतीफ ने अपने पूर्वजों की असली कहानी को उजागर करने के लिए 13 वर्ष तक खाक छानी। आखिरकार 1823 का उत्तर प्रदेश का एक मानचित्र मिला जिसमें महुआ डबर की सही-सही स्थिति चिन्हित थी। 1857 के बाद अंग्रेजों के बनाये गए नक्शों में महुआ डबर को महज एक खेत बताया गया था। लतीफ बस्ती के जिलाधीश रामेंद्र नाथ त्रिपाठी से जाकर मिले। जिलाधीश ने इस विषय में खोज करने के लिए इतिहासकारों की एक टीम बनाई। उस टीम की रिपोर्ट के आधार पर खुदाई के लिए शासन को लिखा। लखनऊ विश्वविद्यालय की पुरातत्व टीम ने 15 जून, 2011 से खुदाई प्रारंभ की जिसमें कुआं, लाखौरी ईंटों से बनी दीवारें, जले हुए मिट्टी के बर्तन, कई दिशाओं में नालियां आदि मिलीं।

कहानी कुछ यूं थी कि पूर्वी बंगाल में रहने वाले अफगान जाति के जुलाहों को ईस्ट इंडिया कंपनी के कारिंदों के शोषण से तंग आकर 1830 में अवध क्षेत्र में आकर शरण लेनी पड़ी। उन्होंने अपनी मेहनत से इस क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र में बदल दिया। 1857 में जब भारतीय सैनिकों ने क्रांति की तो फैजाबाद रेजिमेंट भी उसमें शामिल थी। इस क्रांति को दबाने के लिए सात अंग्रेज अफसर महुआ डबर पहुंचे। गांव के कुछ युवाओं ने बंगाल की अपनी यातना को याद करते हुए उन अफसरों को मार डाला। फैजाबाद के सुपरिंटेंडेंट ने विलियम पेपे को रातों-रात बस्ती जिले का जिलाधीश बना दिया और उसे महुआ डबर को सबक सिखाने के लिए घुड़सवारों की एक पूरी फौज दे दी। उसकी फौज ने 5000 की आबादी वाले इस नगर को चारों तरफ से घेर लिया। पहले लूटपाट की, फिर आग लगा दी। 3 जुलाई 1857 को महुआ डाबर हमेशा के लिए गारत हो गया। नगर तीन हफ्ते तक जलता रहा और कोई भी बचकर भाग नहीं पाया था। धुआं और चीखें मीलों दूर तक सुनाई देती रहीं मगर अंग्रेजों की नाकाबंदी से डरे अन्य गांवों के नागरिक उन्हें बचाने न आ सके। गदर के दिनों में जिन जमींदारों ने अंग्रेजों की मुखालफत की थी, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। कई लोगों को पेड़ों से फांसी देकर लटका दिया गया और वहीं टंगा रहने दिया ताकि अन्य लोग आंखें दिखाने की जुर्रत न करें। 18 फरवरी, 1858 को भी अंग्रेजों ने इस कांड के आरोप में पांच व्यक्तियों महुआ डबर के गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान, और बदलू खान और भैरोंपुर से गुलाम खान को फांसी दे दी। बाद में अंग्रेजों ने इस समूचे इलाके को ‘गैर चिरागी’ घोषित कर दिया यानी वहां कोई रिहाइशी घर नहीं बन सकेगा, न ही कोई मृतकों के नाम का दीया जलाएगा। अवसोस यह है कि इनमें से किसी का भी नाम डिक्शनरी आॅफ मार्टियर्स आॅफ इंडिया में दर्ज नहीं है

 

टिकैत उमराव सिंह
अंग्रेजों के लिए रांची की राह का रोड़ा

झारखंड के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी टिकैत उमराव सिंह का जन्म ओरमांझी प्रखंड के खटंगा गांव में हुआ था। 1857 में वे बारह गांव के जमींदार हुआ करते थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण अंग्रेजों ने उनके घर को ढहा दिया था। इसके बाद वे विश्वनाथ शाहदेव और पांडे गणपत राय के संपर्क में आए और मातृभूमि की रक्षा के लिए मैदान में पूरी तरह कूद गए। 1857 की क्रांति में उमराव सिंह और उनके छोटे भाई घासी सिंह ने बेमिसाल वीरता का प्रदर्शन किया था। उन्होंने विद्रोह को पूरे छोटा नागपुर में फैलाया और साथ ही आंदोलनकारियों के बीच तालमेल बिठाया। टिकैत और उनके साथियों ने रामगढ़ की चुटुपाल घाटी के वृक्षों को काटकर रांची आने वाले रास्ते को बंद कर दिया था। इस कारण उस समय अंग्रेज रांची पर कब्जा नहीं कर पाए थे। इसके बाद अंग्रेज उस इलाके से भाग गए थे। कुछ समय के बाद 6 जनवरी, 1858 को अंग्रेजों ने छल करके टिकैत उमराव सिंह को गिरफ्तार कर लिया। दूसरे दिन यानी 7 जनवरी को नाममात्र के लिए एक अदालत बैठी और टिकैत उमराव और उनके साथियों को मृत्यु दंड की सजा सुनाई। इसके बाद 8 जनवरी, 1858 को चुटुपाल घाटी में उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस वीर के नाम की गूंज आज भी ओरमांझी और उसके आसपास सुनाई देती है।
-रितेश कश्यप

इस घेराव से पहले ही दो-चार लोग वहां से भाग निकले थे जिनमें मुहम्मद लतीफ के परदादा भी थे। और जैसा कि अनेक बार हुआ है, कोई भटकी हुई आत्मा अन्याय की कहानी बताने के लिए जिंदा हो उठती है। लतीफ को इस कहानी की सच्चाई उजागर करने में पूरे 14 वर्ष लगे। श्री अंसारी को राष्टपति अबुल कलाम द्वारा सम्मानित किया गया। (लेखिका लंदन स्थित साहित्यकार हैं)
 
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