केरल की क्रांति : जब दक्षिण ने कुचली पश्चिम की आंधी
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केरल की क्रांति : जब दक्षिण ने कुचली पश्चिम की आंधी

by WEB DESK
Aug 19, 2021, 05:30 pm IST
in दिल्ली
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कोलाचेल युद्ध के पश्चात राजा मार्तंड वर्मा निर्मित विजय स्तंभ। (मेकिंगइंडियाआनलाइन.इन से साभार)


केरल के त्रावणकोर के राजा अनिझम तिरुनल मार्तंड वर्मा ने भारत के प्रथम स्वातंत्र्य समर से सौ वर्ष पूर्व कहा था कि यदि बंगाल के नवाबों ने अंग्रेजों को बंगाल की खाड़ी में युद्ध कर नहीं हराया तो एक दिन पूरा हिंदुस्थान अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा। मार्तंड वर्मा ने अपने शासन काल में शक्तिशाली डच सेना को अपने रणचातुर्य के बल पर परास्त कर हिंदुस्थान से हमेशा के लिए अलविदा कहने को विवश किया


 डॉ. धर्मचन्द चौबे

केरल स्थित त्रावणकोर पर 1729 से 1758 तक शासन करने वाले राजा मार्तण्ड वर्मा ने अपने राज्य को विदेशी शक्ति से बचाने के लिए केरल के एकीकरण हेतु अभियान चलाया और अत्तिन्गल, क्विलोन, कायाकुलम आदि रियासतों को जीतकर मजबूत बनाया। कायाकुलम की जीत पर डच गवर्नर गुस्ताफ विल्लेम वान इम्होफ्फ ने मार्तंड वर्मा को पत्र लिखकर अप्रसन्नता जताई जिस पर जिन्होंने जवाब दिया कि राजाओं के काम में दखल देना तुम्हारा काम नहीं है। तुम लोग सिर्फ व्यापारी हो, अपने व्यापार से मतलब रखो।

आसपास के राज्यों को जीतने के बाद अब मार्तंड वर्मा की नजर वेनाद (वायनाड) राज्य पर थी, जहां काली मिर्च की खेती सबसे ज्यादा होती थी। लेकिन वेनाद के मिर्च व्यापार पर डच कम्पनी का एकाधिकार था। मार्तंड वर्मा उसे तोड़ना चाहते थे और वेनाद पर विजय प्राप्त कर उसे तोड़ने में सफल भी हुए।
त्रावणकोर की लगातार विजय पर डच गवर्नर इम्होफ्फ ने युद्ध करने की धमकी दी जिस पर मार्तंड वर्मा ने जवाब दिया, ‘‘मैं अपने राज्य में भेजी गई किसी भी डच सेना को परास्त कर दूंगा, यह कहते हुए यह बता रहा हूं कि मैं यूरोप पर आक्रमण पर विचार कर रहा हूं।’’ (कोशी, एम.ओ. (1989), डच पॉवर इन केरल, 1729-1758)

डचों का हमला
इम्होफ्फ ने पराजित राजाओं के साथ मिलकर कूटनीतिक चाल चली तो मार्तंड वर्मा ने मालाबार स्थित डचों के सभी किलों पर कब्जा कर लिया। इससे गुस्साए इम्होफ्फ ने विशाल जलसेना सहित कमांडर दी लेननोय को श्रीलंका से त्रावणकोर पर हमले के लिए भेजा।

डच ईस्ट इंडिया कंपनी के पास उस समय के सबसे आधुनिक हथियार थे। डच कमांडर दी लेननोय श्रीलंका से सात बड़े युद्ध जहाजों और कई छोटे जहाजों के साथ पहुंचा। डच सेना ने कोलाचेल बीच पर अपना शिविर लगाया जहां से मार्तंड वर्मा की राजधानी पद्मनाभपुरम सिर्फ 13 किमी दूर थी। डच समुद्री जहाजों ने त्रावणकोर की समुद्री सीमा को घेर लिया, उनकी तोपें लगातार शहर पर बमबारी करने लगीं। तीन दिन तक शहर में लगातार गोले बरसते रहे, शहर खाली हो गया। अब राजा को यह सोचना था कि उसकी फौज कैसे डच सेना के आधुनिक हथियारों का मुकाबला कर पाएगी।

वर्मा की रणनीति
लेकिन लड़ाई आधुनिक हथियारों से नहीं, दिमाग और हिम्मत से जीती जाती है। डच सेना तोपों से बमबारी कर रही थी लेकिन मार्तंड वर्मा ने दिमाग से काम लिया। उन्होंने नारियल के पेड़ कटवाए और उन्हें बैलगाड़ियों पर इस तरह लदवा दिया जिससे लगे कि तोपें तनी हुई हैं।

डचों की रणनीति यह थी कि वह पहले समुद्र से तोपों के जरिये गोले बरसाते, उसके बाद उनकी सेना धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए खाइयां खोदती और किले बनाती थी। इस तरह वे धीरे-धीरे अपनी सत्ता स्थापित करते थे। लेकिन मार्तंड वर्मा की नकली तोपों के डर से डच सेना आगे ही नहीं बढ़ी।

उधर, मार्तंड वर्मा ने अपने दस हजार सैनिकों के साथ घेरा डाल दिया। दोनों तरफ से छोटे-छोटे हमले होने लगे। डच कमांडर दी लेननोय ने केरल के मछुआरों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की। उन्हें पैसों का लालच दिया गया लेकिन विदेशियों की यह चाल नाकामयाब रही। मछुआरे अपने राजा से जुड़े रहे। उन्होंने पूरी तरह से त्रावणकोर की सेना का साथ दिया और अपनी अच्छी नावें उपलब्ध करवारइं।

1741 का कोलाचेल युद्ध
मार्तंड वर्मा ने आखिरी लड़ाई के लिए मानसून का वक़्त चुना था ताकि डच सेना फंस जाए और उन्हें श्रीलंका या कोच्चि से कोई मदद न मिल पाए। उन्होंने स्वयं नायर जलसेना का नेतृत्व किया और डच सेना को कन्याकुमारी के पास कोलाचेल के समुद्र में घेर लिया। डच सेना पर मार्तंड वर्मा की सेना ने जबरदस्त हमला किया और उनके हथियारों के गोदाम को उड़ा दिया गया।

कई दिनों के भीषण समुद्री संग्राम के बाद 31 जुलाई, 1741 को मार्तंड वर्मा की जीत हुई। इस युद्ध में लगभग 11,000 डच सैनिक बंदी बनाये गए और हजारों मारे गये। डच कमांडर दी लेननोय और उप कमांडर डोनादी सहित डच जलसेना की 24 टुकड़ियों के कप्तानों को हिन्दुस्तानी सेना ने बंदी बना लिया और राजा मार्तण्ड वर्मा के सामने पेश किया जिन्हें राजाज्ञा से उदयगिरि किले में बंदी बनाकर रखा गया।

 

तेलंगा खड़िया
अंग्रेजों के काल थे खड़िया

झारखंड के तत्कालीन मुरगू इलाके में 1850-60 के दौरान तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में लोगों ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध आंदोलन किया। यह आंदोलन मूलत: जमीन वापसी और जमीन पर जनजातीय समुदाय के परंपरागत हक के लिए था। इसके लिए तेलंगा ने ‘जोड़ी पंचैत’ संगठन की स्थापना की थी। ‘जोड़ी पंचैत’ के लड़ाकों ने सबसे पहले मालगुजारी वसूल करने आए अंग्रेज सिपाहियों और दलालों पर आक्रमण किया। इसके बाद अंग्रेजों ने तेलंगा को पकड़ने के लिए एक अभियान चलाया। कुम्हारी गांव में बैठक करते समय उन्हें बंदी बना लिया गया। लोहरदगा में मुकदमा चला और तेलंगा को 14 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। इसके बाद जब वे जेल से छूटे तो और आक्रामक हो गए। उन्होंने फिर से अपने लड़ाकों को तैयार कर अंग्रेजों पर हमला शुरू कर दिया। एक हमले के दौरान ही 23 अप्रैल, 1880 को तेलंगा और उनके साथियों को अंग्रेजों ने घेर लिया। अंग्रेजी सेना के एक सिपाही बेधन सिंह ने झाड़ियों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी। दुश्मनों में बेहोश होने के बावजूद तेलंगा के पास आने की भी हिम्मतनहीं थी। मौके का फायदा उठाकर तेलंगा के साथी उन्हें लेकर फरार हो गए। इसके बाद तेलंगा कभी दिखे नहीं। उनकी वीरता की कहानी आज भी खड़िया लोकगीतों में समाहित है। खड़िया समाज उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानता है।

-रितेश कश्यप
स्वतंत्रता का संकल्प: आंचलिक मोर्चे बुंदेलों ने उठाई बुलंद आवाज
1842 में बुंदेले सामंतों और सरदारों के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ। इस विद्रोह का प्रारंभ सागर जिले से हुआ। कंपनी ने चंद्रपुर के जमींदार जवाहर सिंह और नरहन के जमींदार मधुकर शाह के खिलाफ राजस्व बकाया रहने के आरोप में डिक्री जारी कर दी। इस पर दोनों ने मिल कर बगावत कर दी और आस-पास के गांवों से कंपनी की सम्पत्ति लूट ली। मधुकर को गिरफ्तार कर फांसी दे दी गई। इसके बाद यह संघर्ष जबलपुर, नरसिंहपुर आदि में भी फैल गया। लगभग एक साल चलने के बाद यह संघर्ष अप्रैल, 1843 में समाप्त हुआ।
-प्रतिनिधि

डचों के वरिष्ठ-अवर अधिकारियों के आपस में संबंध सहज नहीं थे। गोलेनेस ने हैकर्ट की युद्ध नीति में गलती पाई और दूसरे सेना नायक लेस्लोरेंट को कोलाचेल में डच किले के निर्माण को पूरा नहीं करने का दोषी पाया। कोलाचेल के कमांडर रिजटेल ने कोचीन में डच परिषद को लिखा, ‘‘भारतीय इतिहास में पहले कभी किसी भारतीय राजकुमार (मार्तंड वर्मा के अलावा) के पास एक यूरोपीय किले को घेरने की न हिम्मत थी और न ही दृढ़ता थी। यह आश्चर्यजनक था कि दुश्मन (त्रावणकोर) ने कितनी तेजी से इन बैटरियों को समुद्र तट पर सजाया था।’’ यह सच है क्योंकि मार्तंड वर्मा ने लगभग 15,000 की सेना के साथ जून 1741 तक कोलाचेल में डच सेना को भयंकर रूप से घेर लिया था। डच सेना ने 27 जुलाई, 1741 को कन्याकुमारी से हजारों सैनिकों के साथ प्रस्थान किया था जिसमें बाद में कुछ और सैनिक शामिल हुए थे। लेकिन त्रावणकोर की ताकतवर सेना ने उन्हें लो प्रोफाइल बनाए रखने के लिए मजबूर किया। रिजटेल ने और अधिक सैन्य बल और मदद के लिए सभी डच वरिष्ठों को बार-बार लिखा, लेकिन कोलंबो या बटाविया से कुछ भी नहीं आया।

1740-41 के दौरान डच और त्रावणकोर सेना के बीच कई खुले युद्ध हुए। ऐसी ही एक आपदा में डच कमांडर रिजटेल के सिर में चोट लगी थी (2 अगस्त, 1741)। अन्य डच सैनिकों को कैद कर लिया गया था, उनमें से फ्लेमिश मूल के यूस्टाचे डी लैनॉय और डोनाडी थे। बाद में यूस्टाचे को मार्तंड वर्मा ने राज्य की सैन्य स्थापना का प्रभारी बनाया क्योंकि वे बहुत उद्यमी और अनुशासित थे। केरल के सैनिकों ने डच सेना को पानी पिला दिया। डच सेनानायकों ने कोचीन में स्थित अपने अधिकारियों को रिपोर्ट की कि वे लम्बे समय तक मूल निवासियों के हमले का सामना नहीं कर सकते। मार्तंड वर्मा ने इस विजय को खुशी में कोलाचेल में विजय स्तम्भ बनवाया। इस विजय से डचों का भारी नुकसान हुआ और भारत में डच सैन्य शक्ति समाप्त हो गई।

मार्तंड वर्मा की उदारता
पकड़े गये डच सैनिकों को नीदरलैंड सरकार के अनुरोध पर उन्हें पुन: हिंदुस्तान वापस नहीं भेजने की शर्त पर नायर जलसेना की निगरानी में अदन तक भेज दिया गया जहां से डच सैनिक उन्हें यूरोप ले गये। कुछ बरसों बाद कमांडर दी लेननोय और उप कमांडर डोनादी को मार्तंड वर्मा ने इस शर्त पर क्षमा किया कि वे आजीवन राजा के नौकर बनकर उदयगिरि में सैनिकों को प्रशिक्षण देंगे। कमांडर दी लेननोय कि मृत्यु उदयगिरि किले में ही हुई। 1750 में हुए एक भव्य समारोह में त्रावणकोर के राजा ने अपना राज्य भगवान पद्मनाभ स्वामी को समर्पित कर दिया, जिसके बाद पद्मनाभ स्वामी के दास के रूप में त्रावणकोर पर शासन किया। इसके बाद से त्रावणकोर के शासक भगवान पद्मनाभ स्वामी के दास (पद्मनाभदास) कहलाए।

1757 में अपनी मृत्यु से पूर्व दूरदर्शी मार्तंड वर्मा ने अपने उत्तराधिकारी राम वर्मा को लिखा था, ‘‘जो मैंने डचों के साथ किया, वही बंगाल के नवाब को अंग्रेजों के साथ करना चाहिए। उनको बंगाल की खाड़ी में युद्ध कर के पराजित करें, वरना एक दिन बंगाल और फिर पूरे हिंदुस्थान पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाएगा।’’कोलाचेल में युद्ध के परिणामस्वरूप प्राच्यवादियों पर पाश्चात्य लोगों की अजेयता का मिथक टूट गया था। इसने उप-राष्ट्रवाद के एक युग की शुरुआत की जिसके परिणामस्वरूप कई राज्यों में अधिक से अधिक विदेशी विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी और उपनिवेश विरोधी संघर्षों का प्रदर्शन किया गया। जब उपनिवेश स्थापित होने लगे, तब एशिया में विदेशी विरोधी आंदोलनों ने भी आकार लिया था।
(लेखक इतिहास के सहआचार्य हैं और इतिहास संकलन जयपुर प्रांत के संगठन सचिव हैं)
 

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