काबुल पर तालिबान का कब्जा होते ही भारत सहित अनेक देशों के मुसलमान खुशी मना रहे हैं। अब समझ में आ रहा है कि मुस्लिम जगत क्यों नहीं किसी आतंकवादी वारदात की निंदा तक नहीं करता है।
डॉ. विश्वास चौहान
दुख का विषय है कि सोशल मीडिया पर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बहुत सारे मुसलमान अफगानिस्तान के आतंकवादी संगठन तालिबान की प्रशंसा कर रहे हैं और काबुल पर कब्जे के लिए प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं। ये वही हैं, जिनके पूर्वज महमूद गजनवी, गोरी के आक्रमण के समय हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम मजहब अपनाने के लिए विवश हुए थे। आप इस वक़्त के अफगानिस्तान को देखिए तो आप समझ जाएंगे कि पुराने ख़लीफ़ा लोगों का वह दौर कैसा रहा होगा.. कैसे उनकी सेनाएं सभ्य, उन्नत, समझदार और पढ़े—लिखे लोगों के देश, शहरों, किलों और घरों पर हमला करती थीं और कैसे देश से ज़्यादातर सामर्थ्य लोग अपनी जान बचा कर भागते थे। जो नहीं भाग पाते थे वे या तो अपनी जान गंवाते थे या फिर उनके मजहब को स्वीकार करके किसी तरह अपनी नस्लों को सुरक्षित करते थे। ऐसे ही जहां—जहां आईएसआईएस जाता है, यही सब होता है, तालिबान जाता है यही होता है.. ये आईना है उस दौर का जिस दौर के इंसाफ़, अद्ल और मुहब्बत की "झूठी" गाथाएं "ये वामपंथी लोग" आपको सुनाते हैं।
आज क़ाबुल की सड़कों का हाल यह है कि जहां इस्लाम को मानने वाले, इन्हीं इस्लाम मानने वालों के डर से अपना देश छोड़—छोड़कर भाग रहे हैं। बुरी तरह से अफ़रातफ़री और डर का माहौल है। काबुल के ये मुसलमान भाई—बहन जो भाग रहे हैं ये वो लोग हैं जो मोबाइल, , लैपटॉप रखते थे, टीवी पर सिनेमा या खबरें सुनते—देखते थे। अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहते थे, संगीत भी सुनना चाहते थे, अपने परिवार के साथ अपने दीन ईमान को मानते हुए हंसी—खुशी जीना चाहते थे, अपनी बच्चियों को अपने बेटों की तरह समान अधिकार देकर पढ़ा लिखा कर एक लोकतांत्रिक देश मे इज्जत की जिंदगी जीने देने के ख्वाहिशमंद थे.. मगर काबुल के ऐसे मुसलमान जान गए हैं कि अब उनके अपने देश में ये सब न हो सकेगा.. क्योंकि ये लोग लोकतंत्र देख चुके हैं और जान चुके हैं कि जिसे ये लोग दौर-ए-जाहिलियह कह के अंधकार का दौर कहते हैं वो दरअसल प्रकाश का दौर था जहां लोग संगीत सुनते थे, कला का बोलबाला होता था, महिलाएं व्यापार और प्राइवेट/ सरकारी नोकरी भी करती थीं.. इसलिए वामपंथियो और लिबरलों द्वारा झूठी गढ़ी हुई कहानियां दरअसल एक छलावा है। और ये जो क़ाबुल में आपको अपनी गाड़ियों में भागते लोग दिख रहे हैं, ये उसी "प्रकाश के दौर" की तरफ़ भागते हुए लोग हैं।
बाक़ी आप यह भी सोचिए कि मुसलमानों के पुरखों ने किस भयावह दौर का सामना किया होगा और किस मजबूरी में ऐसे "नरपिशाचों" से अपनी नस्लों को बचाने के लिए अपने धर्म और संस्कृति को बलिदान कर दिया था। जब इनके ही मजहब वाले इस दौर में ऐसे अपना वतन छोड़कर भागने को मजबूर हैं तो सातवीं शताब्दी के उस दौर में, जहां न पुलिस थी, न थाने थे, जहां न कोई अंतरराष्ट्रीय मदद थी, और न कोई सुनने वाला, वे लोग कैसे जिये होंगे और किस मजबूरी में इनके क़बीले में घुसने को मजबूर हुए होंगे
और यहां जो आपके आसपास बैठे हुए तालिबान की फ़तह की खुशियां मना रहे हैं, वे किस स्तर की मानसिकता वाले हैं, ये आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। ये हमारे और आपके लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं, आप जिस दिन सोच लेंगे, इनको अपना दोस्त कहना बन्द कर देंगे।
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