1947 राष्ट्र का निर्माण करने और उसे परम वैभव की स्थिति में ले जाने के प्रयासों का एक उपयुक्त अवसर था। लेकिन सामने मिथकों का पहाड़ खड़ा था। मिथकों के इस पहाड़ के सामने भारत को एक जीता-जागता राष्ट्रपुरुष मानने वाले अटलजी थे।
ज्ञानेन्द्र नाथ बरतरिया
भारतवासियों के लिए 1947 में अंग्रेजी सत्ता का हस्तांतरण भी किसी भयंकर तूफान से कम नहीं था। एक लंबी राजनीतिक दासता से मुक्ति थी, लेकिन मानसिक दासता बाकी थी। इस भीषण तूफान के मुकाबले डटी भारतीय राष्ट्रत्व की नौका के खिवैया का काम अटल बिहारी वाजपेयी को नियति ने जल्द ही सौंप दिया था। भारतीय राष्ट्रत्व का, स्वत्व का, स्वतंत्रता का यह बीज, बीजरूप में भारत भूमि पर हमेशा से मौजूद रहा था। कभी वह खड्ग उठाता था, कभी ग्रंथ लिखता था, कभी गीत बन जाता था, कभी सत्याग्रह करता था। सैकड़ों साल से वह बीज अपने प्रस्फुटन की लड़ाई लड़ता आ रहा था। हर पोरस का मुकाबला सिकंदर की अजेय सेना से हो रहा था। भारतीय राष्ट्रत्व का यह बीज हमारी तीन पीढि़यों के सामने अटल बिहारी वाजपेयी बना था, जिसने रार ठान रखी थी—हार नहीं मानूंगा।
1947 राष्ट्र का निर्माण करने और उसे परम वैभव की स्थिति में ले जाने के प्रयासों का एक उपयुक्त अवसर था। लेकिन सामने मिथकों का पहाड़ खड़ा था। मिथकों के इस पहाड़ के सामने भारत को एक जीता-जागता राष्ट्रपुरुष मानने वाले अटलजी थे। एक साथ अनेक भूमिकाएं लिए। लेखक अटलजी, पत्रकार अटलजी, वक्ता अटलजी, संगठनकर्ता अटलजी, पल-पल सीखने वाले अटलजी, लाखों लोगों को सिखाने वाले अटलजी, नीतियों के मर्मज्ञ अटलजी, सांसद अटलजी, कांग्रेस की अजेयता का भ्रम समाप्त करने वाले अटलजी, और अंतत: भारत को विश्व में उसका स्थान दिलाने, उसे बेहतर, सुखी और संपन्न बनाने का सपना पूरा कर दिखाने वाले अटलजी।
भारत को लोगों का झुंड मानने वालों की भीड़ के मुकाबले वह भारत की जीवंत राष्ट्रपुरुष मानते थे, भारत की जनता को अपना आराध्य मानते थे। भारत को पराजय बोध से भरने की कोशिश करने वालों के मुकाबले में खड़े अटलजी ने विजयादशमी के पर्व के लिए लिखा था- 'विजयादशमी हमारे राष्ट्र की अगणित महान विजयों का पर्व है। हमारा राष्ट्रजीवन केवल दो हजार वर्ष प्राचीन नहीं है। अनादिकाल से, असंख्य युगों के राष्ट्र जीवन में हमने दो-चार-दस नहीं असंख्य बार अराष्ट्रीय शक्तियों का मानमर्दन कर, विजयलक्ष्मी का वरण किया है।' और उसी लेख में अटलजी आगे लिखते हैं- 'राष्ट्र की विजय के उपलक्ष्य में हम नवरात्र का उत्सव मनाते हैं। सहस्रों वर्ष पूर्व की विजय-स्मृति को हमने अंत:करण मंल संजोकर सुरक्षित रखा है। रूठी हुई विजय को लौटा लाने का हमारा यह दृढ़ निश्चय है।'
भारतीय राष्ट्रत्व का यह बीज उन मिथकों से जरा भी प्रभावित नहीं हुआ था, जिन्हें गढ़ने के लिए न जाने कितने साम्राज्यवादियों और उनके मानस-पुत्रों को बड़े सहेज कर पाला गया था। जब अटलजी विदेश मंत्री बने, तब जाकर भारत ने मानसिक और भाषाई दासता से मुक्त होने की गर्जना दुनिया के सामने अपनी भाषा में तब की, जब अटलजी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में भाषण दिया। इसके पहले तक भाषा के विवाद खुद देश की सरकारों ने अपने कर्मों से पैदा किए थे।
अटलजी जितने हिन्दी प्रेमी थे, उतने ही तमिल प्रेमी भी थे, उतने ही मराठी प्रेमी भी थे, भारत की किसी भी और भाषा के भी उतने ही प्रेमी थे। 13 दिन की सरकार का प्रकरण। 12 दिन तक सरकार पर, पार्टी पर और यहां तक कि राष्ट्रपति के पद तक पर प्रहार होते गए। आखिरी दिन संसद में अटलजी ने बहस का उत्तर देते समय ऐसा कुछ कहा कि तमिलनाडु की लगभग सारी सीटों पर चुनाव जीतने वाली, खुद को धुर हिन्दी विरोधी बताने वाली द्रमुक के सांसदों ने जोरदार मेजें थपथपाईं। अटलजी ने अपने भाषण में तमिल महाकवि भरतियार सुब्रह्मण्य भारती की कविता का उद्धरण दिया था।
वर्ष 2004, अटलजी की सरकार लोकसभा चुनाव में चंद सीटों से पराजित हो गई थी। लेकिन अटलजी पराजित नहीं हो सकते थे। मुंबई में हुए भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में अटलजी के समापन भाषण पर फिर देश भर से आए पार्टी के कार्यकर्ता जोश में आ गए। पूरा षड़मुगम हॉल-अबकी बारी, अटल बिहारी- के नारे से गूंज उठा। शांत, स्मित अटलजी ने जवाब में सिर्फ एक वाक्य कहा- अता बारी नको, पुश्कल झाले (मराठी)। पूरे देश का गैर मराठी मीडिया अटलजी के मुख से निकले इन पांच मराठी शब्दों का अर्थ जानने में जुट गया। अगले दिन, अखबार छपते ही, पूरा देश कम से कम यह पांच मराठी शब्द सीख चुका था। अटलजी भावना से भारतीय थे, वह किसी क्षेत्र, प्रांत, भाषा से कभी नहीं बंध सके। उद्भट वक्ता अटलजी शब्दों के मामले में बहुत मितव्ययी भी थे। कई गूढ़ सवालों का उत्तर तो उनकी मुस्कुराहट भर दे देती थी।
अर्थव्यवस्था पर अटलजी के विचार, संस्कृति, तकनीक, विज्ञान, उद्योग, गांव, बिजली, आवास, आयात-निर्यात, शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा, गरीबी उन्मूलन, परमाणु नीति, सुरक्षा, स्वदेशी, महिलाओं के विषयों से लेकर सुरक्षा परिषद, विदेश नीति और पत्रकारिता और साहित्य से लेकर संविधान और केन्द्र-राज्य संबंधों तक अनेक विषयों पर अटलजी के विचार- सब का वर्णन या विवरण देना सूरज को दर्पण में कैद करने जैसी बात होगी।
लोग कहते हैं कि अटलजी अजातशत्रु थे। लेकिन बात वहीं तक सही है, जहां तक वह अटलजी की अपनी उदारता पर निर्भर हो। उनके राजनीतिक विरोधियों ने उनसे प्रेम जताने की कभी कोई बड़ी कोशिश की हो, ऐसा नहीं लगा। एक 13 दिन की सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर बहस का उनका उत्तर अपने आप में एक मील का पत्थर है। बहस के दौरान अटलजी ने सोमनाथ चटर्जी की टोकाटाकी का जवाब देते हुए कहा था- मैं इतने समय से सह रहा हूं, आप एक क्षण नहीं सह सकते? और देखिए, कवि मन अटलजी ने लिखा है- मैं अपने कवि को बड़ी मुश्किल से जिन्दा रख पाया हूं। मेरे कवि को जीवित रखने का श्रेय जेल यात्राओं को है। इस भारत प्रेमीा कवि को जेल भेजने के लिए कौन इतना आतुर था, क्या कोई ऐसा भी अजातशत्रु होता है?
अटलजी सिर्फ अपने मन की सुनते थे लेकिन हर व्यक्ति को लगता था कि अटलजी उसके मन की बात सुनते हैं। 1947 में आजादी मिलने के मात्र छह महीने बाद ही संघ पर प्रतिबंध लगा। दुनिया भर का प्रचार संघ के खिलाफ किया गया। उस समय मात्र 24 वर्ष की आयु में अटलजी का निर्णय था- मैं संघ के साथ हूं। उनका निर्णय किसी प्रचार-दुष्प्रचार से प्रभावित नहीं होता था। अटलजी जब मात्र 29 वर्ष के थे, तब उनके मार्गदर्शक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का रहस्यपूर्ण ढंग से निधन हो गया। आगे क्या रास्ता है, बताने वाला कोई नहीं था। लेकिन अपने पथ की इबारत तो उनके मन में लिखी हुई थी। पं. दीनदयाल उपाध्याय और लालकृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर उन्होंने पार्टी के निर्माण और विस्तार का काम फिर शुरू किया।
जनता पार्टी सरकार में फिर संघ की सदस्यता को लेकर सवाल उठे। अटलजी का फिर वही निर्णय था- हम संघ के साथ हैं। कई लोग- अटलबिहारी- शब्द का अर्थ नहीं जानते। कई लोग- अटलबिहारी- शब्द को अटल और बिहारी, इस प्रकार दो शब्दों में तोड़ देते हैं। अटलजी खुद भी अपने नाम के साथ बहुत मजाक करते रहते थे। वास्तव में अटलबिहारी- अपने लोगों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत का अटलछत्र उठाने वाले श्रीकृष्ण का एक नाम है। इस देश के लिए भी अटलजी एक अटलछत्र हैं। अटलछत्र की छाया में यह देश सबल, समर्थ, सक्षम और समृद्ध हुआ है। आगे भी होता रहेगा। यही सनातन अटल सत्य है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेख पाञ्चजन्य आर्काइव से लिया है।)
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