शिव कुमार
सबको साथ लेकर चलने के पक्षधर, कुशल प्रशासक, छोटे से छोटे कार्यकर्ता की व्यथा सुनने में सिद्धहस्त, एक कुशल पत्रकार, सांसद ही नहीं सर्वश्रेष्ठ सांसद, विपक्ष के सर्वमान्य नेता, सत्ता के उच्च सिंहासन पर पहुंचकर भी अटलजी का यह कहना, ''हे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई मत देना कि गैरों को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई मत देना,'' इसलिए मेरी नजर में तो अटलजी राजनीति में ध्रुव तारे की तरह थे।
मैं संघ का स्वयंसेवक हूं, जनसंघ का भी कार्यकर्ता था, तो इस नाते कार्यक्रमों में अटलजी से मुलाकात होती रहती थी। 1957 का साल था जब पहली बार मुझे अटलजी से जुड़ने का मौका मिला। दीनदयालजी की हत्या के बाद मुझे ऐसा लगा कि अटलजी अकेले रहते हैं, किसी को उनके साथ रहना चाहिए। मैंने इस संबंध में उनसे प्रार्थना की। उन्होंने बहुत मना किया। एक मार्मिक बात कही,'' शिव कुमार जी,आप तो परिवार वाले हो, वकालत करते हो और मेरी पार्टी ऐसी नहीं है कि जो आपको कुछ दे सके या मैं कुछ दे सकूं'' तो मैंने कहा, ''मैं जब आपके पास आऊंगा तो अपने सारे पुल तोड़कर आऊंगा। कोई जिम्मेदारी नहीं है मेरे पास। अगर आप सकुशल रहे तो भारतीय जनसंघ फलेगा-फूलेगा और मेरे जैसे करोड़ों लोगों का परिवार अपने आप पल जाएगा। मैं न आप से पद मांगूगा और न ही पैसा।'' अटल जी ने कहा, ''अगर आपकी ऐसी दृढ़ स्थिति है इच्छा है तो चलिए, लग जाइए हमारे साथ। और इस तरह 1965 से मेरा साथ अटलजी के साथ शुरू हुआ और इस बात का संतोष है कि मैं आखिरी समय भी उनके साथ था। सच कहूं तो अटलजी एक बेहतरीन इंसान थे। जो रिश्ते नातों संबंधों को निभाते थे, इसलिए साथ 50 साल तक निभ गया। उनका मुझे भरपूर स्नेह मिला।'' राजनीति की राहों पर अटल जी बिंदास चले। वे आधे कवि, आधे राजनेता थे। अटलजी को भारतरत्न मिला पर कोई भी पद या पुरस्कार अटलजी से बड़ा नहीं है। वे जिस पद पर बैठे उस पद की गरिमा बढ़ गई। उनमें एक अच्छा गुण था कि वे धैर्य से सुनते थे। आप अगर गए हैं और उनके पास समय है तो आपकी पूरी बात सुनेंगे। जब तक आप संतुष्ट नहीं हों, तब तक नहीं जाएंगे और कोशिश करेंगे वो आपकी मदद कर सकें। वे हरदम प्रयत्नशील रहते थे। वे धैर्यवान थे। वे कम बोलते थे। वे कहा करते थे, बोलने के लिए जिह्वा चाहिए और चुप रहने के लिए विवेक। अटलजी कहते थे- जिसकी नीति ठीक है, जिसकी नीयत ठीक है, उसकी नियति मदद करती है।
सबको साथ लेकर चलने के पक्षधर, कुशल प्रशासक, छोटे से छोटे कार्यकर्ता की व्यथा सुनने में सिद्धहस्त, एक कुशल पत्रकार, सांसद ही नहीं सर्वश्रेष्ठ सांसद, विपक्ष के सर्वमान्य नेता, सत्ता के उच्च सिंहासन पर पहुंचकर भी अटलजी का यह कहना, ''हे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई मत देना कि गैरों को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई मत देना,'' इसलिए मेरी नजर में तो अटलजी राजनीति में ध्रुव तारे की तरह थे।
जहां तक राजनीति का सवाल है तो अटलजी की राजनीति और आज की राजनीति में अंतर है। जनसंघ के जमाने में उम्मीदवार ढूंढने पड़ते थे अब उम्मीदवार टिकट के लिए मारे-मारे फिरते हैं। अटलजी के लिए राजनीति सेवा थी पेशा नहीं। इसलिए मैंने उन्हें हमेशा राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों पर चिंतन करते देखा सुना। राष्ट्रीय मुद्दों पर उनका चिंतन वृहद रूप में रहता। निकट की, दूर की सब बातों को सोचते-समझते थे। अटलजी की एक बात और खास थी वो यदि किसी भी बात से असहमत होते थे तो कहते जरूर थे लेकिन अंत में जो सबकी राय होती थी उसको मान लिया करते थे।
राजनीति और सार्वजनिक जीवन में आपातकाल अटलजी के जीवन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। आपातकाल के दौरान 1975-77 के दौरान अन्य नेताओं के साथ अटल बिहारी वाजपेयी को गिरफ्तार कर लिया गया। वे आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी का विरोध कर रहे थे। आपातकाल के विरोध का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय कर दिया गया। 1977 में हुए आम चुनाव में देश में कांग्रेस के खिलाफ लोगों को मतदान किया और जनता पार्टी की सरकार बनी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। अटल विहारी वाजपेयी 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे और दुनिया के देशों में भारत की छवि बनाई। यूएन में हिन्दी में उनका भाषण प्रभावशाली रहा। अटलजी अचानक दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा में आए। अटलजी ने 4 अक्टूबर 1977 को पहली बार यूएन में हिन्दी में भाषण दिया था।
राजनीति में अटलजी दूसरों से अलग इसलिए बने क्योंकि उन्हें हार को भी सहज भाव से लेना आता था। उन्होंने राजनीति हार जीत के लिए नहीं बल्कि विचार के लिए की। उन्हंे पता रहता था कि वह चुनाव हारेंगे। पार्टी चुनाव हारेगी लेकिन कभी हार से विचलित नहीं हुए। निराश नहीं हुए। बात 1985 की है जब ग्वालियर से अटल जी चुनाव हार गए थे तब दिल्ली एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करने के लिए कोई कार्यकर्ता नहीं पहुंचा था। अटलजी बाहर आए तो कुछ पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि आप तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे पार्टी की हालत ऐसी कैसे हो गई। तब वाजपेयी ने कहा देखिए राजीव गांधी जितना ऊपर उठ सकते थे उठ गए। हम जितना नीचे गिर सकते थे गिर गए। अब हमारी बारी है ऊपर उठने की और यंू कहते हुए वह गाड़ी में बैठे और बोले महेश बंगाली मार्केट ले चलो गोलगप्पे खाएंगे।
अटलजी का जीवन ऐसी सादगी वाली घटनाओं से भरा पड़ा है जो यह दिखाता है कि अटलजी कितने बडे़ दिल के थे। मैं एयरपोर्ट पहुंचा और आने वाले यात्रियों की सूची में अटलजी का नाम भी था। अब मेरे लिए 15 किलोमीटर का सफर 1500 किलोमीटर का हो गया। मुझे लगा अटलजी आज बहुत गुस्सा होंगे लेकिन मैंने उन्हें बताया कि फिल्म देखने चला गया था इसलिए देर हो गई। तो अटलजी ने कहा कि रूक जाते मैं भी फिल्म देखने चलता।
एक बार अटलजी ने कहा था कि वह राजनीति में नहीं आना चाहते थे, बल्कि साहित्यकार बनना चाहते थे। पाञ्चजन्य और राष्ट्रधर्म के संपादक भी रहे और कविता के साथ लिखने पढ़ने का उन्हें बहुत शौक था। कारण अटलजी के पिता जी भी कवि थे और अटलजी को कविता का यह गुण विरासत में मिला था। उनकी कविताएं समाज के लिए और पूरी मानवता के लिए होती थीं। अपने जन्म दिन वाले दिन एक कविता जरूर लिखते थे। असल में सरस्वती इनकी जिह्वा पर विराजमान थी। उनकी भाव-भंगिमा शब्द के अनुसार होती थी। अटल जी सभाओं में लोगों का चेहरा देखकर समझ जाते थे कि क्या वे सुनना चाहते हैं? विदेश नीति पर हिन्दी में बात करते थे उन्हें विदेश नीति में खास रुचि थी। जहां तक खाने-पीने का सवाल है तो अटलजी मिठाइयों के शौकीन थे, कहकर मिठाई मंगवाते थे। जयपुर का कलाकंद और घेवर काफी पसंद था। खाना बनाना, खाना और खिलाना तीनों का शौक था। अटलजी को यदि समग्रता मैं देखता हूं तो मैं पाता हूं कि अटलजी का जीवन राम का आदर्श, कृष्ण का सम्मोहन, विवेकानंद की ओजस्विता, बुद्ध का गांभीर्य और चाणक्य की नीति से परिपूर्ण था।
(पांच दशक तक अटल जी के सहयोगी रहे शिव कुमार से मनोज वर्मा की बातचीत पर आधारित)
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