यदि मुझे ऐसे किसी एक व्यक्ति का नाम लेना हो, जो प्रारंभ से अब तक मेरे पूरे राजनीतिक जीवन का अंतरंग हिस्सा रहे, जो लगभग पचास वर्ष तक इस पार्टी में मेरे सहयोगी रहे तथा जिनका नेतृत्व मैंने सदैव नि:संकोच भाव से स्वीकार किया तो वह नाम 'अटल बिहारी वाजपेयी' का होगा।
लालकृष्ण आडवाणी
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी ?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी।
हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा।
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं। गीत नया गाता हूं।
–अटल बिहारी वाजपेयी
यदि मुझे ऐसे किसी एक व्यक्ति का नाम लेना हो, जो प्रारंभ से अब तक मेरे पूरे राजनीतिक जीवन का अंतरंग हिस्सा रहे, जो लगभग पचास वर्ष तक इस पार्टी में मेरे सहयोगी रहे तथा जिनका नेतृत्व मैंने सदैव नि:संकोच भाव से स्वीकार किया तो वह नाम 'अटल बिहारी वाजपेयी' का होगा। अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षक यह पाते हैं कि विरले ही स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में, राजनीतिक क्षेत्र में दो प्रभावशाली व्यक्तियों के बीच इतनी घनिष्ठ मैत्री का समतुल्य उदाहरण मिलता हो जिन्होंने एक ही संगठन में इतने लंबे समय तक भागीदारी की हो।
पहला प्रभाव: चिरस्थायी प्रभाव : मैं पहली बार सन् 1952 के उत्तरार्द्ध में अटलजी से मिला था। भारतीय जनसंघ के युवा सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में वे राजस्थान में कोटा से गुजर रहे थे। मैं वहां संघ प्रचारक था। वे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ थे, जो नवगठित पार्टी को लोकप्रिय बनाने के लिए रेलयात्रा पर निकले थे। उन दिनों अटलजी डॉ. मुखर्जी के राजनीतिक सचिव थे। उनमें आदर्शवाद की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी तथा उनके चारों ओर एक कवि का प्रभामंडल व्याप्त था, जिसे नियति ने राजनीति की ओर प्रवृत्त कर दिया। उनके भीतर कुछ सुलग रहा था और इस अग्नि की दीप्ति उनके मुखमंडल पर छाई हुई थी। उस समय उनकी आयु 27-28 वर्ष रही होगी। इस पहली यात्रा के अंत में मैंने स्वयं से कहा कि यह असाधारण युवक है तथा मुझे इसके बारे में जानना चाहिए।
सन् 1948 में अटलजी राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र 'पाञ्चजन्य' के संस्थापक संपादक बने। वस्तुत: मैं उनके सशक्त संपादकीय लेखों तथा समय-समय पर इस पत्र में प्रकाशित कविताओं से बहुत ज्यादा प्रभावित रहा। इस पत्र के माध्यम से मुझे पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की जानकारी मिली, जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य के गरिमामय प्रकाशक 'राष्ट्रधर्म प्रकाशन' के अंतर्गत यह पत्र प्रकाशित किया था। मुझे बाद में पता चला कि अटलजी के साथ वे इस साप्ताहिक पत्र के प्रकाशन में बहुमुखी भूमिकाएं निभाते थे। वे प्रूफ रीडर, कंपोजिटर, बाइंडर तथा मैनेजर की जिम्मेदारी निभाते हुए पत्रिका में नियमित रूप से अनेक उपनामों से लिखा भी करते थे।
कुछ समय बाद अटलजी अकेले राजस्थान के राजनीतिक दौरे पर आए। मैं उनके साथ रहा। इस दौरान मैं उन्हें बेहतर ढंग से जान पाया। उनका अनूठा व्यक्तित्व, असाधारण भाषण शैली, उनका हिंदी भाषा पर अधिकार तथा वाक्-चातुर्य और विनोदपूर्ण तरीके से गंभीर राजनीतिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से मुखरित करने की क्षमता—इन सभी गुणों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। दूसरे दौरे की समाप्ति पर मैंने अनुभव किया कि वे नियति पुरुष एवं ऐसे नेता हैं, जिसे एक दिन भारत का नेतृत्व करना चाहिए।
लंबी राजनीतिक यात्रा के सहयात्री : डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बाद उस समय जनसंघ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय थे। अटलजी के प्रति उनके भी उच्च विचार थे तथा मई, 1953 में डॉ. मुखर्जी की त्रासद मृत्यु के बाद उन्होंने अटलजी को पार्टी तथा संसद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। थोड़े ही समय में अटलजी ने स्वयं को पार्टी के सर्वाधिक करिश्माई नेता के रूप में सिद्ध कर दिया। हालांकि जनसंघ एक छोटा-सा पौधा था; लेकिन ऐसे स्थानों पर भी लोगों की भीड़ अटलजी का भाषण सुनने के लिए टूट पड़ती थी, जहां पर पार्टी की जड़ें जमी भी नहीं थीं। जनसाधारण उनसे इस कारण भी प्रभावित था कि वे राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी से भिन्न विकल्प प्रस्तुत करते थे। युवावस्था में ही उनमें राष्ट्रव्यापी अपील के साथ होनहार जननायक के सभी संकेत नजर आने लगे थे।
सन् 1957 में संसद में अटलजी के निर्वाचित होने के बाद दीनदयाल जी ने मुझसे कहा कि राजस्थान से दिल्ली जाएं और संसदीय कार्यों में अटल जी की मदद करें। तब से अटलजी और मैंने जनसंघ के विकास तथा बाद में भाजपा के विकास के लिए प्रत्येक स्तर पर मिलकर कार्य किया। एक दशक बाद, फरवरी 1968 में दीनदयाल जी की दुखद मृत्यु के बाद उन्हें पार्टी की अध्यक्षता का उत्तरदायित्व भी संभालना पड़ा। उन्होंने जनसंघ को इस गहरे दलदल से उबार लिया। उस समय यह नारा हमारी पार्टी के कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ- अंधेरे में एक चिनगारी, अटल बिहारी, अटल बिहारी।
पांच वर्ष बाद सन् 1973 में उन्होंने पार्टी की संगठन संबंधी जिम्मेदारी मुझे सौंपी। पार्टी को मजबूत बनाने के काम में अटलजी, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी तथा अन्यों के साथ प्रगाढ़ मैत्री मेरी राजनीतिक यात्रा का अभिन्न अंग रही। जब इंदिरा गांधी ने जून, 1975 में आपातकाल की घोषणा की, तब जनसंघ पहले ही मजबूत तथा सर्वाधिक संगठित विपक्षी दल के रूप में स्थापित हो चुका था।
जनता पार्टी की एकता बनाए रखने के लिए हमारे प्रयासों की परिणति यह हुई कि 'दोहरी सदस्यता के मुद्दे' के बहाने हमें इस पार्टी से निकाल दिया गया। सन् 1980 में अटलजी ने और मैंने पुन: अन्य साथियों के साथ भाजपा की स्थापना की। 1984 के लोकसभा चुनावों में हमारी पार्टी को निराशा हाथ लगी। हमने सिर्फ 2 सीटें जीतीं। यहां तक कि ग्वालियर से अटलजी चुनाव हार गए। इस हार का मुख्य कारण इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में उत्पन्न 'सहानुभूति लहर' रही। जहां सारी सहानुभूति राजीव गांधी के साथ रहना स्वाभाविक था। इसके बाद भाजपा की आकस्मिक प्रगति का माध्यम 'अयोध्या आंदोलन' रहा।
वर्ष 1990 में अयोध्या आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु मेरे द्वारा रथयात्रा का श्रीगणेश किए जाने के बाद मीडिया ने अटलजी और मुझे अलग-अलग ढंग से पेश करना शुरू किया। अटलजी को उदार बताया गया, वहीं मुझे 'कट्टर हिंदू'। प्रारंभ में इससे मुझे बहुत पीड़ा पहुंची, क्योंकि यथार्थ मेरी इस छवि के एकदम विपरीत था। तब पार्टी के कुछ सहयोगियों ने मुझे सलाह दी कि इस बारे में चिंता न करें। उन्होंने कहा, 'आडवाणी जी, वास्तव में इससे भाजपा को दोनों प्रकार के नेताओं की छवि से लाभ होगा, जिसमें एक नेता उदार है और दूसरा कट्टर हिंदू।'
'हवाला कांड' में लगाए गए मिथ्याारोप के चलते मैंने घोषणा की कि जब तक न्यायपालिका मेरे ऊपर लगाए मिथ्यारोपों से मुझे मुक्त नहीं कर देती तब तक मैं दोबारा लोकसभा में नहीं आऊंगा। इसलिए मैंने वर्ष 1996 के संसदीय चुनावों में प्रत्याशी बनने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अटलजी ने अपने पारंपरिक निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ के साथ-साथ गुजरात में गांधीनगर से भी चुनाव लड़ा। मैं अपने प्रति सार्वजनिक रूप से दर्शाए गए उनके विश्वास और सौहार्दता से भावविभोर हो गया। अटलजी भारी मतों से दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत गए।
बाद में उन्होंने लखनऊ से अपनी सदस्यता बनाए रखते हुए गांधीनगर की सीट से त्यागपत्र दे दिया था; लेकिन उनके व्यवहार से पार्टी में ऊर्जा शक्ति का संचार हुआ तथा व्यापक स्तर पर जनता तक यह संदेश पहुंचा कि भाजपा के शीर्ष स्तर पर मजबूत एकता है। यही संदेश वर्ष 1995 में मुम्बई में पार्टी के महाधिवेशन से भी निकला, जब पार्टी अध्यक्ष के नाते मैंने आने वाले संसदीय चुनावों में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में अटलजी के नाम की घोषणा की थी।
मैंने यह घोषणा क्यों की? उस समय बड़ी निराधार अटकलें लगाई जा रही थीं। कुछ अटकलें आज भी लगाई जाती हैं, जो कष्ट पहुंचाती हैं। पार्टी तथा संघ के कुछ लोगों ने तब मेरी इस घोषणा के लिए मुझे झिड़का। उन्होंने कहा, ''हमारे अनुमान से यदि पार्टी जनादेश प्राप्त करती है तो सरकार चलाने के लिए आप ही बेहतर होंगे।'' मैंने पूर्ण ईमानदारी
और दृढ़विश्वास से जवाब दिया कि मैं उनके विचार से सहमत नहीं हूं। ''जनता के परिप्रेक्ष्य में मैं जननायक की तुलना में विचारक अधिक हूं। यह सही है कि भारतीय राजनीति में अयोध्या आंदोलन में मेरी छवि बदली थी। लेकिन अटलजी हमारे नेता हैं, नायक हैं, जनता में उनका ऊंचा स्थान है तथा नेता के रूप में जनसाधारण उन्हें अधिक स्वीकार करता है। उनके व्यक्तित्व में इतना प्रभाव और आकर्षण है कि उन्होंने भाजपा के पारंपरिक वैचारिक आधार वर्ग की सीमाओं को पार किया है। भारत की जनता उन्हें स्वीकार करती है।''
अन्य सहयोगियों के साथ हम दोनों ने वर्ष 1998 में भाजपा को सत्ता में लाने के लिए मिलकर कार्य किया। मैंने सरकार में उनके सहायक के रूप में कार्य किया। जब 29 जून, 2002 को मुझे उपप्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, तब इस संबंध को औपचारिक रूप मिला। मैंने उस दिन मीडिया से कहा था, ''यह मेरे लिए सम्मान की बात है तथा मैं प्रधानमंत्री और राजग के अपने सभी सहयोगियों को धन्यवाद देना चाहता हूं। लेकिन इससे मेरे कार्य में कोई अंतर नहीं आएगा। प्रधानमंत्री जी पहले भी मेरे साथ परामर्श करते थे और मैं पहले भी ऐसा ही कार्य करता था।''
वर्ष 2002 का राष्ट्रपति चुनाव : वर्ष 2002 के प्रारंभ में भाजपा तथा राजग के बीच इस बारे में विचार-विमर्श आरंभ हो गया कि भारत के नए राष्ट्रपति के लिए चुनाव में हमारा प्रत्याशी कौन हो, क्योंकि जुलाई के अंत में डॉ. के.आर. नारायणन का कार्यकाल समाप्त होने जा रहा था। हमारे आंतरिक विचार-विमर्श के दो मानदंड थे। पहला, नया राष्ट्रपति उदात्त व्यक्तित्व का होना चाहिए तथा वह हर दृष्टि से इस भव्य एवं गरिमामय पद को ग्रहण करने के लिए उपयुक्त हो; दूसरे, हम भाजपा से इतर व्यक्ति को प्राथमिकता दे रहे थे, क्योंकि हमारी यह प्रबल इच्छा थी कि राष्ट्र तक हमारा यह संदेश पहुंचे कि हमारी पार्टी सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है।
आश्चर्य है कि इस तलाश में ऐसे प्रत्याशी का नाम निकला, जिसका हमारी पार्टी से कोई वास्ता नहीं था, बल्कि जो दो पूर्व प्रधानमंत्रियों- इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी-से जुड़े रहे। यह महाराष्ट्र के गवर्नर डॉ. पी.सी. अलेक्जेंडर थे। सबसे पहले मैंने अटलजी तथा राजग के अन्य प्रमुख नेताओं को डॉ. अलेक्जेंडर का नाम सुझाया था। मेरा सुझाव तत्काल मान लिया गया। राजग के अन्य नेताओं ने इनका नाम स्वीकार किया। लेकिन कांग्रेस से उठे विरोध के कारण राजग ने अन्य लब्धप्रतिष्ठित प्रत्याशी डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को डॉ. नारायणन के उत्तराधिकारी के रूप में चुना। उस समय घटित रोचक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। एक दिन मुझे संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) का फोन आया। उन्होंने कहा कि वे मुझसे एक महत्वपूर्ण विषय पर बात करना चाहते हैं। मैंने उन्हें अगली सुबह घर आने के लिए आमंत्रित किया। नाश्ते पर उन्होंने पिछली शाम अटलजी के साथ हुई बैठक का ब्यौरा बताया, ''मैं राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर विचार करने के लिए प्रधानमंत्री के पास गया था। मैंने उन्हें सुझाव दिया, आप ही क्यों नहीं राष्ट्रपति बनते? मैंने इस सुझाव के पीछे निहित कारण बताए। मुख्यत: घुटनों की परेशानी की दृष्टि से राष्ट्रपति भवन की जिम्मेदारी उठाने में उन्हें अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ेगी। इसके अलावा, लोग व्यक्तित्व तथा अनुभव की दृष्टि से उन्हें आदर्श रूप में स्वीकार करंेगे।'' मैंने उनसे पूछा कि अटलजी ने क्या जवाब दिया? रज्जू भैया ने कहा कि ''अटलजी चुप रहे। उन्होंने 'हां' या 'न' कुछ नहीं कहा। इसलिए मैं सोचता हूं कि उन्होंने मेरा सुझाव अस्वीकार नहीं किया।'' तब मैंने रज्जू भैया को बताया कि राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए बैठक हुई थी तथा सर्वसम्मति से राजग नेताओं की औपचारिक रूप से तीन दिन पहले इस बैठक में प्रधानमंत्री को उपयुक्त, राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य प्रत्याशी के नाम को अंतिम रूप देने के लिए अधिकृत किया गया है।
परस्पर विश्वास एवं सम्मान में बनते रिश्ते : राजनीति में स्थायी और अर्थपूर्ण रिश्ते तभी संभव हैं जब परस्पर विश्वास, सम्मान और एक निश्चित उदात्त ध्येय के लिए प्रतिबद्धता हो। सत्ता के खेल से प्रेरित होकर राजनीति स्पर्द्धात्मक और कलहपूर्ण होती है। अनेक लोगों ने मुझसे पूछा है कि आपके और अटलजी के बीच पचास वर्ष से भी ज्यादा अवधि तक भागीदारी कैसे चली है? उनके साथ आपका कोई मतभेद या कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई?
मैं इस प्रश्न में अंतर्निहित उलझन को भली प्रकार से समझ सकता हूं। लेकिन दशकों से मेरे और अटलजी के बीच संबंधों में कभी स्पर्द्धा की भावना नहीं रही। हां, कभी-कभी हम दोनों के विचार अलग रहे हैं। हमारे व्यक्तित्व अलग हैं। स्वाभाविक है कि अलग-अलग घटनाओं तथा मुद्दों पर कई बार हमारे विचार अलग रहे। आंतरिक लोकतंत्र को महत्व देने वाले किसी संगठन में यह स्वाभाविक है। तथापि हमारी इस प्रगाढ़ मैत्री के मूल में तीन कारक हैं। हम दोनों दृढ़तापूर्वक जनसंघ और भाजपा की विचारधारा, आदर्श तथा लोकाचारों से बंधे हुए थे जिससे सभी सदस्य पहले स्थान पर राष्ट्र, उसके पश्चात् पार्टी तथा अंत में स्वयं को प्राथमिकता देते हैं। हमने कभी ऐसे मतभेदों को बढ़ावा नहीं दिया, जिससे परस्पर विश्वास और आदर का मूल्य कम हो जाए। लेकिन तीसरा तथा अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक यह है कि मैंने स्पष्ट रूप से तथा निरपवाद रूप में अटलजी को अपना वरिष्ठ एवं अपना नेता स्वीकार किया था। मैं अपने विचार रखता था; लेकिन जब अनुभव करता था कि अटलजी क्या चाहते हैं तो मैं उनके दृष्टिकोण का, विचार का समर्थन करता था या उन्हें प्राथमिकता देता था।
कभी-कभी पार्टी में मेरे सहयोगी या संघ के नेता उन पर अपनी नाराजगी व्यक्त करने लगते थे; क्योंकि उनके विचार में, मुझमें अटलजी के निर्णयों से असहमति व्यक्त करने की क्षमता नहीं थी या मैं अपनी असहमति प्रकट नहीं करना चाहता था। मेरी इस धारणा पर ऐसे विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था कि पार्टी से तथा बाद में सरकार से संबंधित सभी मामलों पर अटलजी के वाक्य अंतिम होने चाहिए। दोहरा या सामूहिक नेतृत्व कभी भी 'एक नेता की कमान' से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। मैं अपने साथियों को बताता था, ''मुखिया के बिना कोई परिवार टिक नहीं सकता। सभी सदस्यों को उसके आदेश को मानना चाहिए। दीनदयालजी के बाद अटलजी हमारे परिवार के मुखिया हैं।''
राजग सरकार की छह वर्ष की अवधि के दौरान मीडिया और कुछ राजनीतिक क्षेत्रों में 'अटल-आडवाणी विवाद' न होते हुए भी, इस बारे में अटकलें लगाना समय बिताने का रोचक विषय था। अटलजी ने अनेक अवसरों पर, संसद के भीतर तथा बाहर, इन अटकलों का खण्डन किया। 'इंडिया टुडे' को दिए गए एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया, ''एल.के. आडवाणी के साथ आपके कैसे संबंध हैं? '' उन्होंने तपाक से जवाब दिया, ''मैं रोज आडवाणी जी से बात करता हूं। हम प्रतिदिन परस्पर परामर्श करते हैं। फिर भी आप लोग ऐसी अटकलें लगाते हैं। एक बात और मैं कहना चाहता हूं कि हमारे बीच ऐसी कोई समस्या नहीं है। जब होगी, मैं आपको बता दूंगा।''
कुछ मतभेद : मैं यहां दो उदाहरण देना चाहता हूं, जब अटलजी और मेरे बीच काफी मतभेद उत्पन्न हुआ था। अयोध्या आंदोलन के साथ भाजपा के सीधे जुड़ने के बारे में उन्हें आपत्ति थी। लेकिन धारणा और स्वभाव से लोकतांत्रिक होने के नाते तथा हमेशा साथियों के बीच सर्वसम्मति लाने के इच्छुक होने के कारण अटलजी ने पार्टी का सामूहिक निर्णय स्वीकार किया।
दूसरा उदाहरण उस समय से जुड़ा है, जब फरवरी, 2002 में गोधरा में कारसेवकों के व्यापक संहार के बाद गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी। इस क्रूर घटना के बाद पड़ने वाले प्रभाव के कारण गुजरात सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, का प्रचंड विरोध किया गया। विरोधी पार्टियों ने मोदी के त्यागपत्र की मांग कर दी। हालांकि भाजपा तथा सत्तारूढ़ राजग की गठबंधन सरकार में कुछ लोग सोचने लगे कि मोदी को अपना पद छोड़ देना चाहिए, फिर भी मेरा विचार बिल्कुल भिन्न था। गुजरात में विभिन्न वर्गों के लोगों से बातचीत करने के बाद मैं सहमत हो गया कि मोदी को निशाना बनाना ठीक नहीं है। मेरी राय में, मोदी अपराधी नहीं थे बल्कि वे स्वयं राजनीति के शिकार हो गए थे।
इसलिए मैंने अनुभव किया कि एक वर्ष से भी कम समय पहले राज्य के मुख्यमंत्री बने नरेन्द्र मोदी को जटिल सांप्रदायिक स्थिति का शिकार बनाना अन्यायपूर्ण होगा। मैं जानता था कि अटलजी को गुजरात की घटनाओं से गहरा कष्ट पहुंचा है। इस बात पर हमें गर्व था कि हमारी सरकार के गठन के समय से हमें देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी लाने में सफलता मिली।
वर्ष 2002 से पहले हमारा कार्य-निष्पादन विपक्षी दलों के आरोपों के विपरीत रहा, जिनमें कहा गया था कि केन्द्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुसलमानों और ईसाइयों पर व्यापक सांप्रदायिक हमले होंगे। वास्तव में अटलजी की सरकार ने न केवल भारत में मुसलमानों की ही, बल्कि विश्वभर के मुस्लिम देशों की भी सद्भावना जीती। अचानक गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने से केंद्र में पार्टी तथा सरकार के वैचारिक विरोधियों द्वारा की गई कटु निंदा से नुकसान पहुंचा। इसी दौरान, मोदी से त्यागपत्र मांगने के लिए उन पर दबाव डाला जाने लगा। यद्यपि अटलजी ने इस विषय पर स्पष्ट रूप से विचार व्यक्त नहीं किए; लेकिन मैं जानता था कि वे मोदी के त्यागपत्र का पक्ष लेंगे। वे यह भी जानते थे कि मैं इसके पक्ष में नहीं हूं।
अप्रैल, 2002 के दूसरे सप्ताह में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गोवा में बैठक थी। मीडिया तथा राजनीतिक स्रोत इस बात पर केंद्रित थे कि पार्टी गुजरात के बारे में किस तरह से विमर्श करेगी और मोदी के बारे में क्या निर्णय लिया जाएगा। अटलजी ने कहा कि मैं नई दिल्ली से गोवा तक की यात्रा के समय उनके साथ रहूं। विशेष विमान में प्रधानमंत्री के लिए निर्धारित जगह में हमारे साथ विदेश मंत्री जसवंत सिंह तथा संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अरुण शौरी भी थे। दो घंटे की यात्रा के दौरान शुरू में हमारी परिचर्चा गुजरात पर ही कंेद्रित रही। ''अटलजी ध्यानमग्न थे। थोड़ी देर निस्तब्धता रही। जसवंत सिंह द्वारा प्रश्न पूछने के साथ चुप्पी टूटी, 'अटलजी, आप क्या सोच रहे हैं?'' अटल जी ने जवाब दिया, ''कम से कम इस्तीफे का ऑफर तो करते।'' तब मैंने कहा, ''यदि नरेन्द्र के पद छोड़ने से गुजरात की स्थिति में सुधार आता है तो मैं चाहूंगा कि उन्हें इस्तीफे के लिए कहा जाए, लेकिन मैं नहीं मानता कि इससे कोई मदद मिल पाएगी। मुझे विश्वास नहीं है कि पार्टी की राष्ट्रीय परिषद् या कार्यकारिणी इस प्रस्ताव को स्वीकार करेगी।''
जैसे ही हम गोवा पहुंचे, मैंने नरेन्द्र मोदी से बात की कि उन्हें त्यागपत्र देने का प्रस्ताव रखना चाहिए। वे तत्परता से मेरा सुझाव मान गए। जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विचार-विमर्श आरंभ हुआ, तब सभी के विचार सुनने के बाद मोदी बोलने के लिए उठे तथा गोधरा एवं गोधरा के बाद के घटनाक्रम का विस्तृत ब्योरा दिया। उन्होंने गुजरात में सांप्रदायिक तनाव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी दी तथा स्पष्ट किया कि किस तरह से पिछले दशकों में बार-बार दंगे भड़कते रहे हैं। उन्होंने यह कहकर अपने भाषण का अंत किया, ''फिर भी, सरकार का अध्यक्ष होने के नाते मैं अपने राज्य में घटित होने वाले इस कांड की जिम्मेदारी लेता हूं। मैं त्यागपत्र देने के लिए तैयार हूं।''
जिस क्षण मोदी ने यह कहा, पार्टी के शीर्ष निर्णय लेने वाले निकाय के सैकड़ों सदस्यों तथा विशेष आमंत्रितों की प्रतिक्रिया से सभागार गूंज उठा? सब लोग कह रहे थे, ''इस्तीफा मत दो, इस्तीफा मत दो।'' तब मैंने अलग से इस विषय में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के विचारों को पता लगाया। निरपवाद रूप में हममें से प्रत्येक ने कहा, ''नहीं, उन्हें त्यागपत्र नहीं देना चाहिए।'' प्रमोद महाजन जैसे कुछ नेताओं ने कहा, ''सवाल ही नहीं उठता।''
इस प्रकार से भारतीय समाज और राज्य में मतभेद उत्पप्न करने वाले इस मुद्दे पर पार्टी के भीतर बहस का अंत हो गया। वस्तुत: इतिहास ने पार्टी के इस निर्णय को न्यायसंगत ठहराया है कि उसने उस समय मोदी से त्यागपत्र नहीं मांगा।
('मेरा देश, मेरा जीवन' आत्मकथा से साभार कुछ अंश)
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