अटलजी के लिए लखनऊ शहर और आसपास के नगरों से भाषण देने व कविता पाठ के लिए मांग आई रहती। वस्तुत: ये दोनों ही गुण उन्हें अपने पूर्वजन्म के संस्कारों से प्राप्त हुए थे। इसके लिए उन्हें अलग से स्वयं कोई साधन नहीं करना पड़ा। अटलजी के इस पक्ष को समझना उनकी राष्ट्र-जीवन में भूमिका को समझने के लिए आवश्यक है।
देवेंद्र स्वरूप
सन् 1946 का मई-जून मास था। मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीएस.सी. प्रथम वर्ष का छात्र था और ग्रीष्मावकाश की छुट्टियों की घोषणा के साथ मित्रों के आग्रह पर डीएवी कॉलेज, काशी में आयोजित संघ के प्रथम वर्ष ऑफिसर टे्रनिंग कैंप में शिक्षार्थी बनकर आया था। सायंकाल खुले मैदान पर गणश: शारीरिक कक्षाएं चलतीं, ऐसे में एक दिन एक शिक्षक जी आए, उनके चेहरे पर एक अल्हड़पन या मस्ती थी, जिन्हें देखकर हमें भीतर-ही-भीतर हंसे बिना नहीं रह पाते थे। शिक्षा वर्ग में रात्रि के समय के लिए एक रात यही शिक्षक महोदय कविता पाठ करने आए। उनकी कविता वीर रस से भरी हुई थी, राष्ट्र भावना को जाग्रत करने वाली, 'कोटि-कोटि हिन्दू हृदयों में सुलग उठी है जो चिनगारी, अमर आग है, अमर आग है।' शिक्षक के कविता पाठ को सुनकर हम सभी के युवा हृदय वीरभाव और राष्ट्रभक्ति की भावना से फड़कने लगे। कवि का चेहरा हम सभी के दिल पर अंकित हो गया। कविता पाठ के बाद हम सभी ने आपस में पूछना शुरू किया कि ये महाशय हैं कौन? पता चला कि ये कानपुर के डीएवी कॉलेज में एम.ए. राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी हैं और ग्वालियर के रहने वाले हैं। इनका नाम अटल बिहारी वाजपेयी है।
ओटीसी समाप्त होने के कुछ समय बाद एक मासिक पत्रिका हमारे हाथ में आती, जिसका नाम छपा था राष्ट्रधर्म और संपादक की जगह लिखा था इन महोदय का नाम। वस्तुत: वहां दो नाम छपे थे- एक वाजपेयी और दूसरा राजीव लोचन अग्निहोत्री। राष्ट्रधर्म के प्रकाशन के कुछ महीने पश्चात मकर संक्रमण 1948 को लखनऊ से ही पाञ्चजन्य साप्ताहिक प्रारंभ हुआ, जिसके अकेले संपादक थे अटल बिहारी वाजपेयी। मकर संक्रांति (14 जनवरी, 1948 से लखनऊ से पाञ्चजन्य का प्रकाशन आरंभ हुआ) से अटलजी पर दो-दो पत्रों के, मासिक राष्ट्रधर्म और साप्ताहिक पाञ्चजन्य का भार आ पड़ा और उन्होंने दोनों को बखूबी निभाया। इधर दीनदयालजी की दो रचनाएं सम्राट चंद्रगुप्त और जगद्गुरु शंकराचार्य भी छपने के लिए प्राप्त हो गईं। इस प्रकाशन को संभालने के लिए राष्ट्रधर्म प्रकाशन और स्वदेश प्रेस की स्थापना की गई। पैसे की तंगी थी, ढूंढ-ढांढ़कर पुरानी मशीनें खरीदी गईं। पुराने काठ के चौखटे में खाने बनाकर प्रत्येक खाने में अलग-अलग अक्षरों को भरा गया। इन अक्षरों के जुड़ने से कंपोजिंग होती थी। मशीन पर खुद छपाई करनी होती थी। दीनदयालजी स्वयं पूरे समय मार्गदर्शक रहते। कोई कारीगर थक जाता तो उसका काम स्वयं संभाल लेते। अटलजी इस प्रक्रिया से अलग ही रहते, अपनी मेज पर बैठकर संपादकीय और कविता-सृजन में निमग्न रहते।
अटलजी के लिए लखनऊ शहर और आसपास के नगरों से भाषण देने व कविता पाठ के लिए मांग आई रहती। वस्तुत: ये दोनों ही गुण उन्हें अपने पूर्वजन्म के संस्कारों से प्राप्त हुए थे। इसके लिए उन्हें अलग से स्वयं कोई साधन नहीं करना पड़ा। अटलजी के इस पक्ष को समझना उनकी राष्ट्र-जीवन में भूमिका को समझने के लिए आवश्यक है।
1952 में प्रथम आम चुनाव हुए। भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। पहले चुनाव के समय अटलजी को जगह-जगह भाषणों के लिए बुलाया जाता। उनके भाषण सुनकर लोग गरीबी पर आंसू बहाते, देशभक्ति पर भुजाएं फड़काते। 1952 में जनसंघ को काफी जोर लगाने पर भी सफलता नहीं मिली। जनसंघ की हार की खबरें पढ़कर जनसंघ के कार्यकर्ताओं के मन उदास हो जाते। दीनदयालजी दौरे से वापस आकर राष्ट्रधर्म कार्यालय जाते तो अटलजी उबल पड़ते। इस बीच 1952 में जनसंघ का कानुपर में महाधिवेशन हुआ, जिसमें दीनदयालजी को उस वर्ष महासचिव और नानाजी देशमुख को उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया गया। नानाजी के आने से भाऊरावजी ने राहत की सांस ली। इसी बीच भारतीय जनसंघ ने जम्मू प्रजा पार्टी के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर की 'दो निशान दो विधान' 'दो प्रधान' के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा, जिसका नेतृत्व करने के लिए जनसंघ अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्वयं जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर रवाना हो गए। उनके साथ जनता को जोड़ने के लिए हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता अटलजी को भेजा गया। अटलजी का काम होता लोगों में जोश पैदा करना। शेख अब्दुल्ला ने डॉ. मुखर्जी को जम्मू में प्रवेश तो करने दिया, पर वापस नहीं लौटने दिया। अटलजी वहीं से वापस लौट आए और डॉ. मुखर्जी के निजी सचिव की उपाधि से विभूषित हो गए।
1957 के चुनाव में अटलजी लोकसभा में चुनकर आए और उन्हें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद रोड पर सरकारी बंगला मिला। 1961 में मुझे अपनी छोटी बहन के विवाह की व्यवस्था करनी थी। वरपक्ष का आग्रह था कि हमें कुछ नहीं चाहिए, पर शादी दिल्ली आकर ही की जाए। हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए मैं अटलजी के पास गया कि क्या आपकी कोठी का उपयोग हम इस विवाह के लिए कर सकते हैं। 1968 में पं. दीनदयाल की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद पाञ्चजन्य को लखनऊ से दिल्ली लाने का निर्णय लिया गया। एक दिन मुझे ऑर्गनाइजर के संपादक श्री के.आर. मलकानी ने कनॉट प्लेस के मरीना होटल में बुलाकर कहा कि पाञ्चजन्य दिल्ली लाया जा रहा है और अटलजी ने आपका नाम संपादक के लिए सुझाया है। मेरे सामने समस्या थी कि पीजीडीएवी कॉलेज में वेतनभोगी शिक्षक के नाते मैं पाञ्चजन्य के संपादक पर अपना नाम कैसे देता? इसका हल निकाला गया कि संपादक की जगह मलकानी जी का नाम छपेगा और संपादक का दायित्व मुझ पर रहेगा। अटलजी के साथ और भी अनेक स्मृतियां मेरे मस्तिष्क में आती हैं, पर सभी का वर्णन यहां संभव नहीं होगा। उनके जाने से मैंने एक मित्र खो दिया है।
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