जे. नंदकुमार
75वां स्वतंत्रता दिवस समारोह हम सभी के लिए स्वतंत्रता संग्राम के पूरे आख्यान के बारे में अपने खोए हुए 'सामूहिक सत्य' पर फिर से विचार करने, परिष्कृत करने और स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों का नए सिरे से पता लगाने और उन्हें स्वीकार करने के साथ-साथ अपना दृष्टिकोण बदलते हुए अपने अतीत तथा सामूहिक पहचान के बारे में सामने आने वाली सच्चाइयों का विश्लेषण करने का एक महान अवसर है
आगामी 15 अगस्त से भारत अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। इसलिए, हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे विचार को ‘स्व’ (‘हमारा खुद का होना’) के दृष्टिकोण से देखें, जिसमें हमारे लोगों को बहुविध प्रेरित करने की सामर्थ्य है और जो संभवत: हमारे दौर के लोगों के सामने अपना सही अर्थ व्यक्त करेगा। 75वां स्वतंत्रता दिवस समारोह हम सभी के लिए स्वतंत्रता संग्राम के पूरे आख्यान के बारे में अपने खोए हुए 'सामूहिक सत्य' पर फिर से विचार करने, परिष्कृत करने और स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों का नए सिरे से पता लगाने और उन्हें स्वीकार करने के साथ-साथ अपना दृष्टिकोण बदलते हुए अपने अतीत तथा सामूहिक पहचान के बारे में सामने आने वाली सच्चाइयों का विश्लेषण करने का एक महान अवसर है।
अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो सौ वर्षों तक शासन किया। भारत को ब्रिटिश राज से 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली। भारतीय जनता और भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण ब्रिटिश राज का एक हिस्सा भर था, जबकि सांस्कृतिक और बौद्धिक उपनिवेशन इसका बड़ा संदर्भ था। यह तथ्य है कि भारतीय जनता ने बिना प्रतिरोध के कभी भी विदेशी आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया। 15वीं शताब्दी के बाद से ही, भारत के विभिन्न हिस्सों में समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा औपनिवेशिक शासन के विस्तार के खिलाफ कई व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। ये विरोध स्थानीय और अलग-थलग लग सकते हैं, लेकिन इनकी प्रकृति निश्चित रूप से राष्ट्रीय है।
स्वतंत्रता के इस लंबे संघर्ष के दौरान हमारे लोगों ने स्व के विचार के लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि केंद्रीकृत, शोषक और हिंसक शासन प्रणाली और इसके मूल में बैठे लालच के अर्थशास्त्र से छुटकारा पाए बिना अंग्रेजों से छुटकारा पाने का कोई मतलब नहीं होगा। श्री अरबिंदो और महात्मा गांधी ने सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी के विचार के साथ इस सामाजिक-दार्शनिक निर्मिति का नेतृत्व किया। इस त्रयी की पहली अवधारणा थी सर्वोदय, अर्थात् सभी का उत्थान; इसमें पृथ्वी, जानवरों, जंगलों, नदियों और भूमि का ख्याल रखने का भाव समाहित है। दूसरी अवधारणा है स्वराज, यानी स्वशासन। स्वराज शासन की एक छोटे पैमाने पर, विकेंद्रीकृत, स्व-संगठित और स्व-निर्देशित भागीदारी संरचना के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का काम करता है। इसका अर्थ आत्म-परिवर्तन, आत्मानुशासन और आत्म-संयम से भी है। इस प्रकार, स्वराज एक नैतिक, नीति-विषयक, पारिस्थितिक और आध्यात्मिक अवधारणा तथा शासन की पद्धति है।
इस त्रयी में तीसरी अवधारणा स्वदेशी, अर्थात् 'स्थानीय अर्थव्यवस्था' है, जो स्थानीय उत्पादों और उपभोक्ताओं के लिए स्थानीय मांग और आपूर्ति शृंखलाएं फिर से बनाने का प्रयास था। पहले स्वदेशी का विचार अर्थशास्त्र तक ही सीमित था, लेकिन बाद में इसका उपयोग सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं में भी किया जाने लगा। यदि हम त्रयी (सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी) को बारीकी से देखें, तो इन तीनों शब्दों का सर्वनिष्ठ मूल स्व है, जिसका अभिप्राय 'आत्म' से है।
यदि हम उपरोक्त त्रयी (सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी) से स्व के विचार का विस्तार करें, तो पाएंगे कि औपनिवेशिक संरचना विभिन्न तरीकों और तकनीकों के माध्यम से भारतीय स्व के इस विचार को दबाने का एक उपकरण थी। राम और कृष्ण की भूमि में विदेशी शासन और विदेशी धर्म को लागू करके लोगों की भारतीय पहचान और स्वाभिमान को धूमिल करने का प्रयास किया गया था।
इस उपनिवेशवाद को पश्चिम के लोगों द्वारा पूर्व के लोगों पर धार्मिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद थोपने के दृष्टिकोण से देखना महत्वपूर्ण है। नस्लीय श्रेष्ठता और श्वेत लोगों की जिम्मेदारी की धारणा विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दिखाई देती है, जिसे इतिहास में नई खोजों के आलोक में फिर से जांचा जाना चाहिए। हम इस 75वीं स्वतंत्रता को बड़े उद्देश्य के साथ मना रहे हैं, और इसे हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी उस पहचान को ठीक करने के अवसर के रूप में देख रहे हैं, जिसे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस्लामी-वामपंथी इतिहासकारों द्वारा हेरफेर के साथ गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। स्वाधीनता संग्राम के वास्तविक स्वरूप का विश्लेषण करने से पहले इसके इर्द-गिर्द बनाए गए मिथकों को समझना जरूरी है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम संबंधी मिथक
प्रचलित धारणा और प्रसार के विपरीत, उपनिवेशन प्रक्रिया केवल आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी। वास्तव में, यदि हम स्वतंत्रता के 75 वर्षों की समीक्षा करें, तो पाएंगे कि उपनिवेशन प्रक्रिया के केंद्र में बौद्धिक और सांस्कृतिक दासता है।
नाइजीरियाई उपन्यासकार बेन ओकरी ने एक जगह लिखा था: किसी राष्ट्र को जहर देना हो तो, उसकी कहानियों को जहर दे दें। एक हताश राष्ट्र अपने आप को हताश कहानियाँ सुनाता है। उन कहानीकारों से सावधान रहें जो (प्रकृति से) खुद को मिले उपहारों के महत्व के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं, और अपनी कला का गैर-जिम्मेदारी से प्रयोग करते हैं; वे अनजाने में अपने लोगों के मानसिक विनाश में मदद कर सकते हैं।
औपनिवेशिक स्वामियों द्वारा लिखित हमारे देश के इतिहास के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था:
‘अंग्रेजों (और अन्य पश्चिमी) लेखकों द्वारा लिखे गए हमारे देश के इतिहास केवल हमारे मन-मस्तिष्क को कमजोर ही कर सकते हैं, क्योंकि वे केवल हमारे पतन के बारे में बात करते हैं। हमारे रीति-रिवाजों, धर्म और दर्शन को बहुत कम समझने वाले विदेशी भारत का ईमानदार और निष्पक्ष इतिहास कैसे लिख
सकते हैं?
स्वतंत्रता संग्राम का प्रचलित ऐतिहासिक वर्णन कुछ मिथकों पर निर्मित है:
1. भारत कभी 'राष्ट्र' था ही नहीं : राष्ट्र-राज्य की यूरोपीय अवधारणा के आधार पर, ब्रिटिश इतिहासकारों की नजर में भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में सर्वनिष्ठ राष्ट्रीयता की अवधारणा कभी भी नहीं थी। तथ्य यह है कि यद्यपि भारत में राज्य की कोई केंद्रीकृत अवधारणा नहीं थी, फिर भी भू-सांस्कृतिक पहचान पर आधारित राष्ट्र और राष्ट्रीयता का विचार अनादि काल से मौजूद था।
2. भारत को अंग्रेजों ने सभ्य बनाया : जेम्स मिल ने अपनी पुस्तक 'ब्रिटिश भारत का इतिहास' का लेखन 1806 में शुरू किया था। इसका वर्णन शिक्षा के संदर्भ में पहले किया जा चुका है। इस पुस्तक में उन्होंने इंग्लैंड द्वारा भारतीय साम्राज्य के अधिग्रहण का वर्णन किया है। लेकिन पहले ही बताया जा चुका है कि मिल ने कभी भी भारतीय उपनिवेश का दौरा नहीं किया और अपनी पुस्तक के लिए तथ्य संकलन का काम उन्होंने पूरी तरह से दस्तावेजी सामग्री और सुरक्षित रखे गए अभिलेखों के भरोसे किया। उनकी पुस्तक में भारत और भारत के निवासियों के बारे में उन पूर्वाग्रहों का संग्रह है जो बहुत से ब्रिटिश अधिकारियों के भारत में रहने के दौरान विकसित हुए थे। इस तथ्य को भूलकर कि यह भूमि सदियों तक समृद्ध होने के साथ ही ज्ञान का स्रोत रही थी, उनके आख्यान के केंद्र में भारत को ऐसे पिछड़े समाज के रूप में पेश करना था जिसे अंग्रेज सभ्य बनाने की कोशिश कर रहे थे। 'गैर-शोषक' समाज के मसीहा, कार्ल मार्क्स ने भी 'भारत में ब्रिटिश शासन' पर अपने निबंध में इसे उचित ठहराया था।
3. ब्रिटिश शासन की प्रकृति आर्थिक साम्राज्यवाद की थी : अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण के कई आख्यान हैं, लेकिन वास्तव में यह दुनिया के कई दूसरे हिस्सों की ही तरह धार्मिक-सांस्कृतिक और अमानवीय प्रकृति का शोषण था। अंग्रेजों द्वारा लागू की गई आर्थिक और कराधान नीतियों ने सूखे के दुश्चक्र के माध्यम से लाखों भारतीय लोगों को मार डाला। इसके अलावा, मिशनरियों ने अपनी धार्मिक श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए सभी साधनों का इस्तेमाल किया और लोगों को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया। अठारहवीं शताब्दी में ऐतिहासिक विषयों के उल्लेखनीय लेखकों में से एक चार्ल्स ग्रांट थे, जिन्होंने 1792 में भारत में रहने वाली एशियाई प्रजा के समाज की स्थिति पर प्रेक्षण (आॅब्जर्वेशन्स आॅन दि स्टेट आॅफ सोसाइटी अमंग दि एशियाटिक सब्जेक्ट्स आॅफ भारत) लिखा था। वे 'इवेंजेलिकल मत' से जुड़े थे, जिसका मानना था कि आदिम धार्मिक आस्थाओं और अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबे भारत में ईसाई धर्म का प्रकाश लाना भारत के ब्रिटिश शासकों की दैवीय नियति थी।
4. स्वतंत्रता संग्राम कुछ क्षेत्रों तक सीमित था : यह अंग्रेजों द्वारा बनाया और मार्क्सवादियों द्वारा कायम रखा गया एक और मिथक है। राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध को छोटी-छोटी जाति या सांप्रदायिक श्रेणियों तक सीमित कर दिया गया और उन्हें विद्रोह और प्रतिरोध की संज्ञा दी गई। दुर्भाग्य से, आजादी के बाद भी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश को समझे बिना उन्हें एक क्षेत्र या समूह तक सीमित करने के लिए यह आख्यान जारी रखा जा रहा है।
इसके अलावा, भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष केवल शांतिपूर्ण तरीकों से चला था; बहुत से भारतीय ब्रिटिश शासन का समर्थन करते थे; हम विभाजित थे – अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया; तथा, वे अन्य यूरोपीय उपनिवेशवादियों की तुलना में उदार थे आदि मिथकों को गढ़ा गया और हमारे स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में व्यवस्थित रूप से फैलाया गया।
स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविक प्रकृति
स्वामी विवेकानंद ने युवा छात्रों को प्रोत्साहित किया था कि: अब यह हम पर है कि हम अपने लिए ऐतिहासिक शोध का एक स्वतंत्र मार्ग तैयार करें, वेदों और पुराणों और भारत के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करें और इनके आधार पर अपनी भूमि की सटीक, सहानुभूतिपूर्ण और आत्मा को प्रेरित करने वाले लेखन को अपने जीवन की साधना बनाएं। इतिहास भारतीयों को ही लिखना है। आजादी के तुरंत बाद इस काम को करने के बजाय, वामपंथी इतिहासकारों ने न केवल ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए मिथकों को जारी रखा बल्कि इसमें कुछ और मिथक जोड़े भी। एक विशेष विचारधारा पर इतिहासकारों के चयनात्मक दृष्टिकोण के कारण भारतीय इतिहास में बहुत से खाली स्थान हैं। कई आधुनिक भारतीय इतिहासकारों द्वारा इतिहास को विकृत किए जाने के कारण बहुत से महत्वपूर्ण आख्यान भारतीय इतिहास में हाशिए पर चले गए हैं। जदुनाथ सरकार, आरसी मजूमदार, और केए नीलकंठ शास्त्री जैसे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास में युगांतरकारी योगदान दिया है लेकिन इतिहास के शिक्षण और अनुसंधान में उन्हें व्यवस्थित रूप से दरकिनार किया गया। स्वतंत्रता के 75 साल का उत्सव इन गलतियों को सुधारने और अपने स्वतंत्रता संग्राम को वास्तव में स्वदेशी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का सही अवसर है।
अ) यह लंबा संघर्ष था
बहुत से विद्वान और बुद्धिजीवी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना से मानते हैं। यह एक खतरनाक मिथक है। भारतीय इस युद्ध के बहुत पहले से अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। सिर्फ एक उदाहरण के रूप में उल्लेख किया जा सकता है कि हमारे पास त्रावणकोर (वर्तमान केरल) के मार्तंड वर्मा जैसे नायक थे जिन्होंने बहुत पहले 1741 में डचों को उनके चरम काल में हराया था।
ब) यह राष्ट्रव्यापी था
स्वतंत्रता संग्राम की एक खास पहचान यह थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश के कई हिस्सों ने सामूहिक प्रतिरोध कैसे किया। हमारे लोगों की चेतना में राष्ट्र का हमेशा से स्थान रहा है। यह संस्कृत के व्यापक उपयोग, पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा और पवित्रता के भूगोल के माध्यम से व्यक्त किया जाता था। 1857 के युद्ध में भारतीयों के आपस में हाथ मिलाने से पहले वर्तमान कर्नाटक के कित्तूर के संगोली रायन्ना (1796-1831), त्रावणकोर के प्रधान मंत्री थम्पी चेम्पाकरमन वेलायुधन (1765-1809) और मणिपुर के टिकेंद्रजीत सिंह (1856-1891) ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया।
स) सभी सामाजिक वर्गों में
एक मिथक है कि केवल उत्तर भारत के अंग्रेजी-शिक्षित भारतीयों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। इससे बड़ा असत्य नहीं हो सकता, क्योंकि समाज के हर वर्ग और देश के सभी हिस्सों से लोगों ने इस आंदोलन में भाग लिया था। उदाहरण के लिए, बंगाल में 1763 और 1800 के बीच संन्यासी क्रांति, राजस्थान में अंग्रेजों के खिलाफ 1818 का भील आंदोलन और 1856 में संथाल क्रांति।
द) स्व की अभिव्यक्ति
इस लंबे और समाज-व्यापी स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे असली प्रेरणा हमारी स्व (राष्ट्रीय आत्मा/सामूहिक स्वार्थ) चेतना थी। न केवल राजनीतिक सत्ता के लिए बल्कि राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में अपनी पहचान व्यक्त करने के लिए सभी वर्गों के लोगों ने इस संघर्ष में भाग लिया। आंदोलनों के राष्ट्रीय सेनानियों ने इस बारे में जनता को जागृत करने के लिए कला, नाटक, गीत, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों को पुनर्जीवित किया।
ई) बहुआयामी प्रतिक्रिया
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन बहुआयामी और ब्रिटिश राज के खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध था। राजनीतिक नेताओं के विरोध के अलावा शिक्षा, कला, साहित्य, संगीत और नाटक की दुनिया में भी इसका कड़ा विरोध था। विदेशियों द्वारा स्व के इस दमन के खिलाफ लड़ने और विरोध करने के लिए हर तरह की अभिव्यक्तियों का उपयोग किया गया।
सामाजिक रूप से, महिला नेताओं ने भारतीय महिलाओं की मुक्ति को प्रेरित करते हुए राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। कनकलता बरुआ, मातंगिनी हाजरा, भोगेश्वरी फुकानानी, कित्तूर रानी चेन्नम्मा, और रानी गैदिनल्यू उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई की कुछ ध्वजवाहिकाएं थीं।
हमें स्वतंत्रता के लिए अपने बहुआयामी संघर्ष का अध्ययन और विश्लेषण करने के लिए इस अवसर का तेजी से उपयोग करना होगा; यह केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था बल्कि ऐसा सामूहिक अवसर भी था जिसमें जीवन के सभी पक्षों की ओर से प्रतिरोध आ रहा था। इसके लिए हमें निम्नलिखित उद्देश्यों की आवश्यकता है:
1. हमें इस पूरे संघर्ष को व्यापक और समग्र रूप से देखने की जरूरत है;
2. हमें औपनिवेशिक शासन, संरचनाओं और प्रक्रियाओं की प्रकृति का विश्लेषण करना होगा;
3. जैसा कि पहले कहा गया है, हमें उपनिवेशीकरण की इस बड़ी परियोजना का मुकाबला करने के लिए विभिन्न स्तरों पर भारतीय लोगों की प्रतिक्रिया का मूल्यांकन करना चाहिए।
4. हमें मूल स्रोतों के आधार पर स्वतंत्रता संग्राम के लिए वास्तविक प्रेरणा या अभिप्रेरण की जांच करनी चाहिए।
अरबिंदो ने इसका संक्षेप में विश्लेषण किया था: ‘हमने अपने सामने जो कार्य निर्धारित किया है वह यांत्रिक नहीं बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक है। हमारा उद्देश्य सरकार के स्वरूप को बदलना नहीं बल्कि एक राष्ट्र का निर्माण करना है।
5. हमें स्वराज के लिए संघर्ष के पीछे की मार्गदर्शक शक्ति को नए सिरे से संदर्भित करना चाहिए। न केवल अंग्रेजों के खिलाफ बल्कि ग्रीक और इस्लामी आक्रमणों के समय से ही इस संघर्ष के पीछे एक अवधारणा के रूप में स्वराज कैसे एक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में मौजूद था और कि हमें इस पूरे संघर्ष को कैसे देखना चाहिए, जैसे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जो हमें इस ऐतिहासिक क्षण का जश्न मनाते समय पूछने की आवश्यकता है।
6. औपनिवेशिक और थोपी गई आधुनिकता का नए सिरे से मुकाबला करते हुए और 'स्व' को फिर से स्थापित करते हुए हमें ऐतिहासिक यात्रा का पुनर्पाठ करना चाहिए।
सर्वं परवशम दुखम्
सर्वं आत्मवशम सुखम्
(दूसरों के वश में सब कुछ दु:ख देगा, लेकिन स्व के अधीन सभी कुछ सुख देगा)
राजनीतिक और आर्थिक शोषण या, धर्म-परिवर्तन और, सबसे महत्वपूर्ण रूप से भारत का विभाजन औपनिवेशिक शासकों द्वारा स्व के विचार को कमजोर करने के लिए किए गए सुसंगठित प्रयास थे। स्वतंत्रता संग्राम न केवल औपनिवेशिक स्वामियों से राजनीतिक और आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए था, बल्कि खोए हुए स्वत्व (आत्मत्व का सार) को उसके वास्तविक अर्थों में फिर से खोजने की लड़ाई भी थी। स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष उस स्वत्व को फिर से जागृत करने और यह आकलन करने का अवसर है कि क्या हमने स्वतंत्रता के बाद भी स्वत्व के उसी विचार का अनुसरण किया है?
(लेखक प्रज्ञा प्रवाही के राष्ट्रीय संयोजक हैं)
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