पंकज झा
हाल ही में बिहार पर आधारित वेब सीरीज ‘महारानी’ पर नज़र गयी। तमाम वामपंथियों ने गिरोहबंदी कर जिस तरह की हरकत इसमें की है, दुनिया भर का झूठ परोसा है, समाज में ज़हर फैलाने का काम किया, इसके बाद आश्चर्य की बात है कि लोगों की अभी तक इस पर नज़र क्यों नहीं पड़ी ? अभी तक ये लोग बाहर कैसे हैं ? सोच कर अजीब लगता है
राज कुंद्रा के कारण अभी ओटीटी की काफी चर्चा है। हालांकि अभी तक शायद फिल्म देखने के लिए यह प्लेटफॉर्म हमारे जन-जीवन का हिस्सा नहीं हो पाया है, लेकिन फिर भी जैसा कि कहते हैं, गांव बसा नहीं पर चोर हाज़िर हो गए। यही हाल इस प्लेटफॉर्म का भी हो गया है। पोर्न आदि तो खैर ऐसी चीज़ है समाज में जिसे ख़त्म होने में समय लगेगा। वह कितना जायज या नाजायज़, कानूनी या गैर कानूनी होना चाहिए, वह अलग से विश्लेषण का विषय है। लेकिन ओटीटी पर भी जिस तरह से वैचारिक दुराग्रहियों, बेईमानों ने पैठ बना ली है, जिस तरह जातीय ज़हर वे परोस रहे हैं, उसके आगे पोर्न आदि का ख़तरा कोई ख़तरा ही नहीं है। प्रशासन और पुलिस को इन सफेदपोश वैचारिक अपराधियों पर नज़र रखने की अधिक ज़रूरत है। नक्सल प्रेरित, वाम समर्थित, इप्टा गिरोहों द्वारा रचित सामग्रियों की आने वाले समय में इस पर भरमार होने वाली है, जिसे अभी से ध्यान देकर विनियमित करने की आवश्यकता है।
मुट्ठी भर भी वेब सीरीज नहीं देख पाया हूं अभी तक, लेकिन हाल ही में बिहार पर आधारित एक सीरीज ‘महारानी’ पर नज़र गयी। तमाम वामपंथियों ने गिरोहबंदी कर जिस तरह की हरकत इस सीरीज में की है, जिस तरह दुनिया भर का झूठ, तमाम तरह का ज़हर फैलाने का काम किया गया है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि लोगों की अभी तक इस पर नज़र क्यों नहीं पड़ी। इन अपराधियों, अराजक तत्वों के आगे तो कुंद्रा का अपराध काफी कम है। इन पर मुकदृमा क्यों कायम नहीं हुआ अभी तक। अभी तक ये लोग बाहर कैसे हैं ? सोच कर अजीब लगता है।
कहानी बिहार के सीएम रहे लालू यादव के चारा घोटाला में जेल जाने के बाद अपनी अशिक्षित पत्नी को सीएम बना देने के विषय पर आधारित है। लेकिन इस कहानी के बहाने ऐसे-ऐसे नैरेटिव, ऐसे-ऐसे झूठ गढ़े गए हैं, नक्सलियों का महिमामंडन किया गया है, जातीय जहर को उड़ेल दिया गया है, जिसकी सड़ांध लम्बे समय तक समाज में कायम रहती अगर ओटीटी जनता का माध्यम होता तो। लेकिन आज भले न हो, पर आने वाला समय तो निस्संदेह वेब फिल्मों का ही है। ऐसे में शासन को इस मीडिया पर अतिरिक्त ध्यान देने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो सेल्युलाइड फिल्मों की तर्ज़ पर एक अलग से इसका सेंसर बोर्ड होना चाहिए। भारत में वेब पर स्ट्रीम होने वाले सभी कंटेंट के लिए सेंसर बोर्ड बनाने का काम उच्च प्राथमिकता पर किये जाने की ज़रूरत है। अन्यथा यह गाली-गलौज का अड्डा तो बना ही है, हत्यारों-आतंकियों के लिए वैचारिक पैकेज के भीतर हिंसक गंदगी उड़ेलने का माध्यम भी इसे होते देर नहीं लगेगी।
सबसे पहले आलोच्य ‘महारानी’ की बात। सीधे तौर पर यह फिल्म बिहार की ‘पहली महिला और अकेली महिला सीएम’ के बारे में है। तब के चारा घोटाला समेत सभी वास्तविक घटनाक्रम का जिक्र होने के बाद इसे केवल किसी घटना से प्रेरित होकर काल्पनिक चित्रण नहीं माना जा सकता। साथ ही क्योंकि सब कुछ लगभग दस्तावेज़ की तरह दिखाया है, ऐसे में ‘रचनात्मक आज़ादी’ जैसे बहाने की गुंजाइश ही नहीं बचती। या तो उसे प्रदेश आदि का नाम सही नहीं बताना था और अगर सही ही दिखाना था तो तथ्यों के प्रति इमानदारी बरतते हुए काम करना था। इस मामले में बुरी तरह बेइमानी और रचनात्मक निर्लज्जता का परिचय इस फिल्म में दिया गया है। जितनी भी लानत इसके निर्माताओं को भेजी जाए,कम है।
अव्वल तो यह सबको पता है कि बिहार के सीएम रहते हुए बेदर्दी से प्रदेश को लूटने और चारा घोटाला के मामले में लालू यादव को जेल हुई थी। हालात इतने खराब थे कि गिरफ्तार करने के लिए सेना तक को बुलाना पड़ा था। ऐसी हालात में जेल जाते-जाते उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को जो अशिक्षित थीं, उन्हें बिहार का सीएम बना दिया। और उन निरक्षर महिला के कंधे पर बंदूक रख कर न केवल लालू यादव बिहार का शासन जेल से चलाते रहे बल्कि प्रदेश के भविष्य को भी इस तरह रौंदते रहे, जिसकी भरपाई के लिए अनेक पीढियां कम साबित होंगी। लेकिन फिल्म में इतने बड़े तथ्य को ही निकाल कर यह दिखाया गया है कि ‘सवर्णों की सेना’ द्वारा सीएम को गोली मार दी गयी थी। वह गोली सवर्ण राज्यपाल ने एक बाबा के सहयोग से मरवाई ताकि चारा घोटाला चलता रह सके। लालू इस घोटाले का विरोध करने लगे थे, इसलिए उनकी हत्या की साज़िश रच ऐन छठ की शाम गोपालगंज के उनके गांव में गोली मारी गयी। फिर ‘माइल्ड लकवाग्रस्त’ लालू ने पत्नी को सीएम बना दिया। उन्हें सीएम बनाने के लिए जिन रणनीतियों को दिखाया गया है, वह भी बेसिकली लालू के खुद के सीएम बनते समय एक दलित व्यक्ति को रोकने के लिए किया गया था. जैसे वीपी सिंह ने धोखा देकर पीएम बनने के लिए देवीलाल के साथ किया था। जबकि फिल्म में ‘सवर्ण नीतिश’ कुमार (नवीन कुमार) को रोकने के लिए पत्नी को सीएम बनाने की बात है। खैर।
इसके बाद तो खैर फिल्म का स्तर गिरता ही जाता है। ऐसा लगता है मानो बिहार का उद्धार करने नक्सली लोग आये थे, जिन्होंने प्रदेश को बचा लिया। फिल्म के अनुसार चारा घोटाला से लालू यादव का कोई लेना-देना नहीं था। हां… उनसे कुछ ‘मासूम सी’ ग़लती हुई थी, जो आज़ादी की इस नयी लड़ाई के लिए निहायत ही ज़रूरी थी। फिल्म के अनुसार चारा घोटाले का मास्टरमाइंड वहां के सवर्ण राज्यपाल थे, जो फिल्म में नीतिश कुमार के मौसा लगते थे। चारा घोटाला किया ही इसलिए गया था कि ताकि ‘रणवीर सेना’ को फंड मुहैया कराते हुए दलितों का कत्ल—ए—आम कराया जा सके। और यह सभी काम वहां के सवर्ण राज्यपाल की देख-रेख में उन्हीं के इशारे पर किया जा रहा था। राज्यपाल ने लालू यादव से पशुपालन विभाग की तरफ आंखे भी नहीं उठाने का वचन उनके बीबी-बच्चों की शपथ देकर ले लिया था। इसी कारण घोटाले होते रहे। दलितों का संहार होता रहा। सवर्ण राज्यपाल द्वारा पैसा खा जाने के कारण विकास ठप पड़ गया था। वेतन का भी सारा पैसा सवर्ण राज्यपाल जो कि नीतिश कुमार के मौसा थे, ने खा लिया। जिस कारण वर्षों तक वेतन नहीं मिला सरकारी बाबुओं को। और जब इसे रोकने की कोशिश की लालू ने तब उन्हें सवर्ण राज्यपाल ने सवर्ण महंत की मदद से लगभग मरवा ही दिया था, लेकिन अपनी जिजीविषा से महोदय बच गए।
उसके बाद घायल मसीहा स्वास्थ्य लाभ करते हैं। अशिक्षित पत्नी गद्दी संभालती हैं। कुछ दिनों में ही हस्ताक्षर करना सीख कर फिर ऐसी चमत्कारी सीएम बन जाती हैं राबड़ी जी कि न केवल चारा घोटाला को उजागर कर देती हैं बल्कि इतनी बड़ी त्यागी साबित होती हैं कि मासूम से अपराध के लिए अपने पति लालू यादव को भी जेल भेज देती हैं, भरे सदन से उठवा कर। सवर्ण पशुपालन मंत्री को भी उससे पहले जेल भिजवा कर फिर सत्ता की लगाम खुद के हाथ में संभालती हैं। और यह ‘चंडी’ जैसी बन कर बेऊर जेल में भी धमकी दे आती हैं पति लालू को कि पति बन कर घर आना तो ठीक, ‘सीएम’ के रास्ते में आये तो अच्छा नहीं होगा।
हंसे तो खूब होंगे आप इस फिल्म का संक्षिप्त विवरण पढ़कर? लेकिन बात महज इतनी सी ही होती, तब भी छोड़ देते इसके निर्माता अभागों को। सोचते कि पान-बीड़ी के मोहताज हो गए इप्टा के अभागों को कोई देखता नहीं है अब, तो यही नौटंकी सही। पर नहीं। बात इतनी भी नहीं थी। सीधे तौर पर ‘सवर्ण’ नीतिश कुमार वाले पात्र से पराजित होने की स्थिति में बिहार को सवर्ण कट्टरपंथियों के हाथ में छोड़ देने से बेहतर रास्ता लालू ने यह तलाशा कि ‘संघर्ष’ किये जाएं और इसलिए उस मसीहा ने अपने मित्र नक्सल सरगना शंकर महतो से हाथ मिला कर बिहार में जातीय सफाए की शुरुआत की। इस सफाए को आज़ादी की कीमत के रूप में दिखाया गया है। वह इसलिए करना पड़ा क्योंकि स्वर्ग देने का वादा कर चुके बिहार की सात करोड़ आबादी को कम से कम ‘स्वर’ दिया जा सके। यह कीमत स्वर देने की थी और वह कथित तौर पर वैसी ही थी, जैसा स्वतन्त्रता संग्राम।
नैरेटिव यहां भी नहीं रुक जाता है। ''फिलिम'' के बीचोबीच यह भी साथ-साथ दिखाया जाता है कि सवर्ण भले किसी भी छोटे पद पर हों, लेकिन वह पिछड़ी जातियों को गुदानता नहीं है। यह भी कि सवर्णों की सेना तो इतनी निष्ठुर थी कि वह नरसंहार करते समय बच्चे-बच्चे तक का बेदर्दी से क़त्ल करती है। नयी ब्याही महिला से रेप करना पाप, लेकिन उसके पीठ में गोली मार कर हत्या कर देने को पुण्य समझता है। लेकिन नक्सली इतने कोमल ह्रदय हैं कि वे बच्चों की हत्या से साफ़ इनकार कर देते हैं कि सरगना शंकर महतो इतना पढ़ा लिखा है कि ''किरांति'' के बीचों-बीच भी लाइब्रेरी में ही बसेरा डाले रहता है, लेकिन सारे सवर्ण शोषक इतने मूर्ख कि एसपी-मंत्री हो कर भी मां-बहन की गालियां निकालते। फिल्म का अंत जैसे ऊपर बताया गया है, मसीहा के जेल पहुंच जाने पर होता है। और ‘तेजस्वी मां’ आंखों में आंसू लेकिन दिल में पिछड़ों की भलाई की आग, बिहार की सात करोड़ जनता को ब्राह्मण शोषकों से मुक्त कराने का संकल्प लिए वापस सीएम हाउस लौटती हैं. बिहार को एक लेडी मसीहा अर्थात मसीही सीएम मिलता है…
सीरीज में अभिनय करने वाले कुछ लोगों को निजी तौर पर भी जानता हूं। और क्योंकि उनकी निष्ठा पता है, तो और बेहतर समझ सकता हूं कि किस भावना से इस फिल्म का निर्माण किया गया है। जैसे फिल्म में रणवीर सेना के मुखिया बरमेसर मुखिया का किरदार निभाने वाले आलोक चटर्जी जी। एनएसडी के गोल्ड मेडलिस्ट चटर्जी जी दो दशक पहले थियेटर पढ़ाने माखनलाल विश्वविद्यालय भोपाल आते थे। तब जवान थे तो अधिक वामपंथी थे। पूरा का पूरा बीड़ी का एक पैकेट एक क्लास में ही फूंक देते थे और अक्सर पूरे क्लास के दौरान मुझसे ही बहस करते-करते डेढ़-दो कक्षा ख़त्म हो जाती थीं। वे कट्टर वामपंथी थे और मैं भारतीय विचारधारा का छात्र हुआ करता था तो बहसें दिलचस्प होती थीं। तब के अपने सहपाठी बता सकते हैं कि कुछ के लिए बड़ा रोचक होता था वह विमर्श और कुछ होशियार टॉप करने की इच्छा रखने वाले छात्रों को वह समय की बर्बादी लगती थी। अद्वितीय प्रतिभाशाली लेकिन वामपंथी आलोक जी को लंबे समय बाद अपने उसी एजेंडे को साधते हुए इस फिल्म में देखना रोचक लगा, जिसके खिलाफ छात्र जीवन में मैं क्लास का क्लास उनसे बहस में गुजार देता था। ऐसे परिचित कुछ और चेहरे इस सीरीज में दिखे, जिनका जिक्र फिर कभी। बहरहाल।
यह सच है कि वामपंथी जहां भी जाएंगे गंदगी फैलायेंगे। ऐसे कुटिलों ने ओटीटी प्लेटफॉर्म के रूप में एक नया ‘बस्तर’ तलाश लिया है। वहां से शहरी नक्सली और इप्टाई अब बौद्धिक गुरिल्ला वार छेड़े हुए हैं। सरकार को सचेत होकर इस ओर ध्यान देना ही होगा। कुंद्रा की नीली फ़िल्में समाज को नुकसान पहुंचाएंगी पर ये ‘लाल फ़िल्में’ नस्लें तबाह कर देंगी। फिर से लक्ष्मनपुर बाथे, बारा नरसंहार से लेकर बस्तर तक को लहुलुहान करने के लिए उत्प्रेरक का काम करने लगेंगी। फिर से कोई फिल्म बस्तर पर भी बनेगी, जिसमें दंतेवाड़ा की डेढ़ वर्ष की बच्ची ज्योति कुट्टयम तक को 65 अन्य के साथ ज़िंदा जला देने को ये क्रान्ति कहते-दिखाते रहेंगे। रानीबोदली से लेकर चिंतलनार तक जैसी कार्रवाइयों के महिमामंडन करते, ऐसे हर संहार को स्वतन्त्रता संग्राम, इसे खाद-पानी देने वाले हर लालू को ये मसीहा साबित करते रहेंगे। प्रतिरोध में फिर कोई बरमेसर मुखिया, फिर कोई सलवा जुडूम पैदा होता रहेगा। इसलिए कला के जरिए समाज में विद्वेष, अराजकता फैलाने वालों पर तुरंत लगाम कसने की जरूरत है।
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