आदर्श सिंह
राष्टपति शी जिनपिंग ने ताइवान पर कब्जे को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। उनका मानना है कि राष्ट्रीय पुनरुत्थान का लक्ष्य राष्ट्रीय एकीकरण यानी ताइवान पर कब्जे के बगैर पूरा नहीं हो सकता। समस्या यह है कि जिनपिंग एकीकरण के फेर में ताइवान पर हमला करते हैं तो नुकसान इतना अधिक होगा कि पुनरुत्थान का लक्ष्य पीछे छूट जाएगा। दांव उलटा पड़ा तो चीन से दमनकारी कम्युनिस्ट शासन की विदाई भी हो सकती है
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) आत्मविश्वास और आशावाद से लबरेज है। वह इस बात से पूरी तरह आश्वस्त है कि इस दशक के अंत तक बाजार विनिमय दर के हिसाब से चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। यानी चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था होगा। पिछले ही साल 2020 में चीन के एक नए नीति पत्र में घोषणा की गई कि 2035 तक चीन का कृत्रिम मेधा व रोबोटिक्स सहित तमाम उभरती हुई प्रौद्योगिकियों में दबदबा होगा। साथ ही चीन अपने सैन्य आधुनिकीकरण के कार्यक्रम को 2034 के तय समय से सात साल पहले 2027 तक ही संपन्न कर लेगा। सैन्य आधुनिकीकरण के इस सारे अनुष्ठान का मुख्य फोकस ताइवान है। इसमें उन सभी संभावनाओं और पहलुओं का ध्यान रखा गया है कि ताइवान पर हमले की स्थिति में अमेरिका अगर उसकी मदद के लिए आता है तो उसे हर हाल में पराजय का सामना करना पड़े। ताइवान पर कब्जे को लेकर संघर्ष में चीन की विजय से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का कद माओ त्से तुंग के बराबर हो जाएगा। माना जाएगा कि जिनपिंग ने कथित राष्ट्रीय एकीकरण के सपने को सफलतापूर्वक पूरा कर दिया।
ताइवान पर कब्जे से चीन को लाभ
चीन पूरे पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपनी ताकत की धमक दिखा सकता है
चीन की काल्पनिक नौ बिंदुओं वाली ‘नाइन डैश लाइन’ के दावे को अनदेखा करना आसान नहीं होगा
वह ताइवान में अपनी बैलिस्टिक मिसाइलें, सेंसर और एयर डिफेंस सिस्टम तैनात कर सकता है, इससे जापान को होगा खतरा
ताइवान सेमी कंडक्टर, चिप और सेंसरों के उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र है, चीन की प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ताकत में भारी इजाफा होगा
आॅस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री केविन रुड प्रतिष्ठित पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में लिखते हैं कि विशेष रूप से ताइवान का मुद्दा शी जिनपिंग के लिए बेहद अहम है। उनका पहला लक्ष्य खुद को हर हाल में 2035 तक सत्ता में बनाए रखना है। तब वे 82 साल के हो जाएंगे जिस उम्र में माओ का निधन हुआ था। रुड के अनुसार ताइवान के मुद्दे पर शी यह मानकर चल रहे हैं कि अमेरिका किसी भी ऐसे युद्ध में नहीं उतरेगा जिसे वह जीत नहीं सकता। यदि वह ऐसा करता है तो फिर यह अमेरिकी शक्ति, उसकी प्रतिष्ठा और वैश्विक छवि के लिए गहरा आघात होगा। फिर अमेरिका सतत अवसान की तरफ चला जाएगा। वे लिखते हैं कि जिनपिंग मार्क्सवादी-लेनिनवादी नियतिवाद से परिचालित हैं और उनका मानना है कि इतिहास की धारा अब पूरी तरह उनके पक्ष में है। अमेरिका के लिए जिनपिंग उसी तरह के रणनीतिक प्रतिस्पर्धी बन कर उभरे हैं जैसे पहले माओ हुआ करते थे।
माओ के कद से मुकाबला
माओ के कद के बराबर पहुंचने के सपने की पूर्ति के लिए सबसे अहम कदम यानी ताइवान पर कब्जे के लिए शी जिनपिंग ने कोई तारीख भले न तय की हो लेकिन यह स्पष्ट कर दिया है कि इस मामले में वे अपने पूर्ववर्तियों की तरह प्रतीक्षा करने और यथास्थितिवाद की नीति पर नहीं चलेंगे। उन्होंने 2017 में एक भाषण में कहा था कि चीन के समग्र राष्ट्रीय पुनरुत्थान का लक्ष्य राष्ट्रीय एकीकरण (यानी ताइवान पर कब्जा) के कार्य को पूरा किए बिना संभव नहीं हो सकता। इसी तरह जनवरी 2019 में एक अन्य भाषण में उन्होंने ताइवान की मौजूदा सरकार पर निशाना साधते हुए उसे ताइवान स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) में अस्थिरता का जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने सैन्य विकल्पों के इस्तेमाल का संकेत देते हुए कहा कि ताइवान का मुद्दा पीढ़ी दर पीढ़ी खिसकता नहीं रह सकता। राष्ट्रीय पुनरुत्थान के सपने को पूरा करने के लिए ताइवान का एकीकरण जरूरी है। चीनी मीडिया, जो जिनपिंग के राज में कड़ी सेंसरशिप के कारण सीसीपी की इजाजत के बगैर एक शब्द नहीं लिख पाता, अचानक ताइवान पर हमले को लेकर काफी मुखर हो गया है।
स्पष्ट है कि ताइवान पर कब्जे को जिनपिंग ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और विरासत का सवाल बना लिया है। माओ से भी ज्यादा शक्तियां हथिया चुके जिनपिंग अब आजीवन चीन का शासक बने रहने की राह पर हैं। लेकिन नया माओ बनने के लिए उनके सामने कुछ अड़चनें हैं। उन्हें प्रकारांतर से यह स्वीकार करना पड़ा है कि ताइवान के एकीकरण का लक्ष्य पूर्व के 70 साल के मुकाबले आज ज्यादा दुष्कर है। चीन हांगकांग की तरह ताइवान के लिए भी एक राष्ट्र-दो व्यवस्था का आश्वासन देता रहा है। लेकिन हांगकांग में जारी दमन के बाद ताइवानी जनता में चीन के प्रति घोर आशंकाएं व भय पनपा है।
जिनपिंग की राह में तीन अड़चनें
शी समझ चुके हैं कि अब शांतिपूर्ण एकीकरण की संभावनाएं खत्म हो गई हैं। ताइवान पर युद्ध से ही कब्जा किया जा सकता है। लिहाजा अब उनकी रणनीति स्पष्ट है : सैन्य शक्ति को इतना बढ़ाना कि अमेरिका खुद ही ताइवान की रक्षा के लिए युद्ध में उतरने को अनिच्छुक हो जाए और यदि उतरे भी तो उसकी पराजय हो। शी का मानना है कि अमेरिकी मदद के बिना ताइवान या तो खुद ही घुटने टेक देगा या यदि युद्ध में उतरेगा भी तो हारेगा। शी के अपने समीकरण होंगे लेकिन यह इतना आसान नहीं होने वाला। इसमें अभी भी तीन अड़चनें हैं जिनका कोई समाधान नहीं है।
पहली तो यह कि आधुनिक हथियारों से लैस ताइवान ढाई करोड़ की आबादी वाला देश है जिसका क्षेत्रफल नीदरलैंड के बराबर है और स्थलाकृति नार्वे जैसी है। दूसरी ताइवान पर हमले का पूरी दुनिया में कड़ा विरोध होगा। जापान और अमेरिका सहित कई देश युद्ध में कूद सकते हैं और तमाम यूरोपीय देश व अन्य अमेरिकी सहयोगी चीन के साथ व्यापारिक रिश्ते खत्म कर सकते हैं। तीसरी, संघर्ष में पराजय या ताइवान पर कब्जे में विफल हो जाने की कोई भी स्थिति चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही के खात्मे का सबब बन सकती है।
ताइवान पर कब्जे से चीन को लाभ
चीन इन खतरों से अनजान नहीं है और युद्ध से लेकर आर्थिक मोर्चे पर हर तरह की तैयारियां कर रहा है। वह हरसंभव ‘वार सीनेरियो’ यानी युद्ध में क्या अप्रत्याशित स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं, उसका अभ्यास कर रहा है। उसे मालूम है कि यह सब इतना आसान नहीं है और उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन ताइवान पर कब्जा खुद ही इतना बड़ा पुरस्कार है जिसके लिए चीन यह कीमत चुकाने को तैयार हो सकता है। जॉन मीयरशीमर के अनुसार चीनी तट से सटा हुआ ताइवान एक विराट विमानवाहक पोत के समान है। इस पर कब्जे से चीन पूरे पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपनी ताकत की धौंस दिखा सकता है। ताइवान पर कब्जे के बाद उसकी काल्पनिक नौ बिंदुओं वाली नाइन डैश लाइन के दावे को भी अनदेखा करना आसान नहीं होगा। इसी के सहारे चीन पूरे दक्षिणी चीन सागर पर अपना दावा ठोक रहा है।
ताइवान दुनिया में सेमी कंडक्टर, चिप और सेंसरों के उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र है और इस पर कब्जे से चीन के प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ताकत में भारी इजाफा होगा क्योंकि मोबाइल फोन से लेकर सुपर कंप्यूटर और तमाम अन्य चीजें इनके बगैर नहीं चल सकतीं। चीन फिर ताइवान में अपनी बैलेस्टिक मिसाइलें, सेंसर और एअर डिफेंस सिस्टम को तैनात कर सकता है। इन सबसे सीधे तौर पर जापान की सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। ताइवान उत्तर-पूर्वी एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के केंद्र में है। ताइवान पर कब्जे से चीन उसी तरह जापान की आर्थिक नाकाबंदी कर सकता है जैसे अमेरिका ने पिछली सदी के पूर्वार्ध में की थी। जापान उसे भूला नहीं है जब अमेरिकी नाकेबंदी के कारण उसकी स्थिति ऐसी हो गई थी कि वह या तो तिल-तिल कर मरे या फिर लड़ कर मरे। जापान ने पर्ल हार्बर पर हमले का विकल्प चुना। ताइवान के मुद्दे पर भी पूरी संभावना है कि जापान ऐसे ही विकल्प का चयन कर सकता है। लेकिन फिलहाल हम उसमें नहीं जा रहे।
कब, कैसे हो सकता है हमला
सवाल यह नहीं है कि चीन हमला करेगा या नहीं। सवाल बस यह है कि हमला कब होगा। काफी समय से चीन की ताइवान पर हमले की रणनीति बहुत सीधी व सरल थी। यानी अंधाधुंध बमबारी के बीच लाखों की संख्या में चीनी सैनिकों को युद्धपोतों के जरिए चीनी सैनिकों को दक्षिण-पश्चिमी ताइवान के तटों पर पहुंचा देना। लेकिन सीधे हमले की यह रणनीति भयंकर रक्तपात को निमंत्रण देने जैसी है। ताइवान दशकों से इस स्थिति से निपटने की तैयारी कर रहा है। हमलावर चीनी सेना को कदम-कदम पर टारपीडो, समुद्री बारूदी सुरंगों, तोप के गोलों और मिसाइल हमलों का सामना करना पड़ेगा। ताइवान का मनोबल तोड़ने के लिए चीन साइबर हमलों, समुद्री नाकेबंदी जैसे तमाम विकल्पों का इस्तेमाल कर सकता है लेकिन आखिर में सीधे हमले की स्थिति आनी ही है।
फिर हमला कैसे होगा? ताइवान की भौगोलिक स्थिति, स्थलाकृति और मौसम जैसी तीन चीजें ऐसी हैं जिनकी बदौलत वह काफी हद तक हमलों से सुरक्षित है। यहां किसी भी आक्रामक फौज को मुसीबत का सामना करना पड़ेगा। ताइवान लगभग सौ द्वीपों से मिलकर बना है। इनमें ज्यादातर इतने छोटे हैं कि नक्शे पर नहीं दिखते। इनमें ज्यादातर बाहरी द्वीपों पर मिसाइलों, राकेट और तोपखाने के अड्डे हैं। इन द्वीपों पर ग्रेनाइट के पथरीले पहाड़ों में ताइवान ने सुरंगों और बंकरों का जाल बिछा रखा है। ताइवान के ज्यादातर समुद्री तट ऐसे हैं जहां युद्धपोतों के जरिए फौज व युद्धक साजो-सामान उतारना संभव नहीं है। फिर चीन कैसे लाखों की फौज उतारेगा? ताइवान अगर अगले पांच साल में ग्राउंड एअर डिफेंस, उन्नत समुद्री बारूदी सुरंगें, आक्रामक साइबर युद्ध क्षमता, टोही ड्रोन और चीन के तटीय शहरों को निशाना बनाने की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ले तो फिर चीन फौज के लिए ताइवानी तटों तक पहुंचना बहुत मुश्किल साबित हो सकता है। आखिर में लाखों की संख्या में सैनिक उतारने के लिए चीन को सौ मील की दूरी तो सफलतापूर्वक पूरी करनी ही होगी जो बहुत लंबा रास्ता साबित हो सकता है। ताइवान की नई सरकार इस दिशा में तेजी से काम कर रही है। साथ ही इतने बड़े अभियान के लिए जो तैयारियां करनी होती हैं, वह किसी से छिपी नहीं रह सकतीं। यानी ताइवान सतर्क रहेगा। यदि चीन औचक हमला करने के लिए कोई दूसरी रणनीति अपनाता है तो उसके लिए दुविधा यह है कि उसे अपनी तैयारियों, सैनिकों की संख्या, साजो-सामान इत्यादि से समझौता करना पड़ेगा।
युद्ध से चीन को क्या होगा नुकसान
अमेरिकी थिंक टैंक रैंड ने सन् 2000 में अनुमान लगाया था कि ताइवान पर हवाई हमले में हिस्सा लेने वाले चीन के 75 प्रतिशत लड़ाकू विमान मार गिराए जाएंगे। जहां तक नौसेना की बात है तो सिर्फ चीनी सैनिकों को ताइवानी तट पर पहुंचाने के काम में ही उसके बीस प्रतिशत युद्धपोत नष्ट कर दिए जाएंगे। लेकिन तब से अब तक स्थिति बदल चुकी है। चीन बहुत शक्तिशाली है तो ताइवान भी दो दशक पहले वाला नहीं है। बहुत ही उच्च तकनीकी वाला युद्ध होगा। अमेरिकी रक्षा विभाग की पिछले वर्ष की रिपोर्ट के अनुसार अगर चीनी फौजें ताइवानी तट पर पहुंचने में सफल हो गर्इं तो भी उन्हें शहरी गुरिल्ला युद्ध और ताइवानी जनता के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। ताइवान की ढाई करोड़ आबादी के दमन के लिए चीनी फौज को इतना रक्त बहाना पड़ेगा कि जन मुक्ति सेना (पीएलए) को नए रंगरूट मिलने मुश्किल हो जाएंगे। युद्ध के बाद चीन की सैन्य शक्ति काफी कमजोर पड़ जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार ताइवान पर उसकी यह जीत अंतत: बेमानी और नुकसानदेह साबित होगी। चीनी फौज को इतना नुकसान झेलना पड़ेगा कि पड़ोसियों को डराने-धमकाने की उसकी ताकत काफी हद तक खत्म हो जाएगी। आर्थिक मोर्चे पर भी खासा नुकसान होगा।
ऐसी स्थिति में जिनपिंग को दो कठिन विकल्पों में से एक का चुनाव करना है। या तो वे राष्ट्रीय पुनरुत्थान का विकल्प चुनें या ताइवान पर कब्जा कर राष्ट्रीय एकीकरण का। सारे संकेतक बताते हैं कि वे एकीकरण यानी कब्जे का विकल्प चुनेंगे। इसके बाद एशिया के अन्य देशों का बड़े पैमाने पर शस्त्रीकरण अवश्यंभावी है। यह नए तनावों को जन्म देगा। और जैसा कि विशेषज्ञ बरसों से आगाह कर रहे हैं कि पिछली सदी में जो यूरोप में हुआ, वही इस सदी में एशिया में होने वाला है। यानी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं के कारण युद्ध और बबार्दी।
(लेखक साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं और रक्षा एवं वैदेशिक मामलों में रुचि रखते हैं।)
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