अनूप भटनागर
भारतीय दण्ड संहिता में राजद्रोह संबंधी धारा 124ए पर बहस छिड़ी है। मुख्य न्यायाधीश ने भी इस पर संज्ञान लिया है। यह धारा स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व की है। अगर यह गलत है तो 75 साल से किसी सरकार ने रद्द क्यों नहीं की? क्या पहली बार इस कानून का उपयोग हुआ? क्या सरकार से असहमति जताने की कोई सीमा है? प्रश्न बहुत हैं, उत्तर समय के गर्भ में
देश में आज सत्ता के गलियारों और राजनीतिक दलों से लेकर गली-मुहल्लों तक में भारतीय दंड संहिता में प्रदत्त राजद्र्रोह संबंधी धारा 124ए को लेकर समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा व्यक्त की जा रही चिंताओं और इसे कानून की किताब से निकालने की मांग ने सहज ही जिज्ञासा पैदा कर दी है।
यह सही है कि अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान महात्मा गांधी, और बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज को कुचलने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन आजादी मिलने के बाद भी भारतीय दंड संहिता में इसे बनाए रखा गया। केंद्र में लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस या फिर कांग्रेस के नेतृत्व या समर्थन से बनी गठबंधन सरकारों ने भी इस प्रावधान को खत्म करने के बारे में कभी नहीं सोचा। आखिर क्यों? शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने भी इसे असंवैधानिक नहीं पाया। इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी राजद्रोह के अपराध से संबंधित धारा 124ए कानून की किताब का हिस्सा है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राष्ट्रद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है जिससे असंतोष पैदा हो तो यह राष्ट्रद्र्रोह है। यह दंडनीय अपराध है।
लेकिन, अचानक ही अब शीर्ष अदालत यह जानना चाहती है कि क्या आजादी के 75 साल बाद भी देश को राजद्रोह कानून की आवश्यकता है। न्यायालय इस प्रावधान के बारे में अब केंद्र सरकार का दृष्टिकोण जानना चाहता है।
राजद्रोह के अपराध से संबंधित धारा 124ए कुछ महीने पहले उस समय नये सिरे से सुर्खियों में आई जब शीर्ष अदालत ने तीन जून को वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राष्ट्रद्र्रोह के आरोप में एक निजी शिकायत के आधार पर दर्ज प्राथमिकी को रद्द करते हुए इसकी आलोचना की थी।
इसके बाद कानून की किताब में दर्ज राजद्र्रोह के अपराध संबंधी प्रावधान को खत्म करने की मांग नए सिरे से उठी और अचानक ही धारा 124ए की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए एक के बाद एक कई याचिकाएं शीर्ष अदालत में पहुंच गर्इं।
न्यायालय ने इस फैसले में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार प्रकरण में 20 जनवरी, 1962 को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले का भी हवाला दिया था। संविधान पीठ के सदस्यों में मुख्य न्यायाधीश भुवनेश्वर पी. सिन्हा, न्यायमूर्ति एस.के. दास, न्यायमूर्ति ए.के. सरकार, न्यायमूर्ति एन. राजगोपाल अयंगर और न्यायमूर्ति जे.आर. मुधोलकर शामिल थे।
इस फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि राजद्रोह की धाराएं सिर्फ उन्हीं मामलों में लगाई जानी चाहिए, जिनमें हिंसा भड़काने या सार्वजनिक शांति को भंग करने की मंशा हो। लेकिन सरकार के कार्यों की आलोचना के लिए एक नागरिक के खिलाफ राजद्रोह के आरोप नहीं लगाए जा सकते, क्योंकि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनुरूप है।
न्यायालय ने जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारुख अब्दुल्ला के खिलाफ भी राजद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए दायर याचिका भी खारिज कर दी थी। न्यायालय ने फारुख अब्दुल्ला पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए दायर याचिका खारिज करते हुए कहा कि केंद्र सरकार के निर्णय पर असहमति वाले विचारों की अभिव्यक्ति को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता।
राजद्रोह के अपराध से संबंधित धारा 124ए की संवैधानिकता का मामला शीर्ष अदालत में लंबित था लेकिन इसी बीच राजद्रोह के मुद्दे पर पीयूसीएल से संबद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता मेजर-जनरल (से.नि.) एसजी वोम्बटकेरे की जनहित याचिका 15 जुलाई को मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष सूचीबद्ध हुई।
इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल से कहा, ‘‘श्रीमान अटॉर्नी (जनरल), हम कुछ सवाल करना चाहते हैं। यह औपनिवेशिक काल का कानून है और ब्रिटिश शासनकाल में स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया गया था। ब्रितानियों ने महात्मा गांधी, गोखले और अन्य को चुप कराने के लिए इसका इस्तेमाल किया था। क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे कानून बनाए रखना आवश्यक है?’’
हालांकि, अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने प्रावधानों का बचाव करते हुए कहा कि इसे कानून की किताब में बने रहना देना चाहिए और अदालत इसका दुरुपयोग रोकने के लिए दिशा-निर्देश दे सकती है।
इस कानून को बरकरार रखने के औचित्य का सवाल निश्चित ही सभी के दिमाग में घूम रहा है। लेकिन यह भी सही है कि मुख्य न्यायाधीश के पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसी साल नौ फरवरी को राजद्रोह से संबंधित धारा 124ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली तीन वकीलों-आदित्य रंजन, वरुण ठाकुर और वी. इला चेझियान की याचिका खारिज कर दी थी। इन वकीलों का भी यही तर्क था कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का गला घोंटता है।
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका खारिज करते हुए टिप्पणी की थी कि इसमें कार्रवाई की कोई वजह नहीं है और याचिकाकर्ता इससे प्रभावित लोग नहीं है। हां, पीठ ने यह टिप्पणी जरूर की थी कि अगर कोई इस आरोप में जेल में है तो हम विचार करेंगे।
अब दिलचस्प पहलू यह है कि इस समय न्यायालय के समक्ष धारा 124ए की संवैधानिकता को कई जनहित याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी गई है। न्यायालय ने इस पर केंद्र से जवाब मांगा है। इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व प्रधान संपादक और पूर्व केन्द्र्रीय मंत्री अरुण शौरी, एडीटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया और गैर सरकारी संगठन ‘कामन कॉज’ भी न्यायालय पहुंचे हैं।
इससे दो दिन पहले ही, न्यायमूर्ति उदय यू. ललित और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की खंडपीठ ने दो पत्रकारों किशोरचंद्र्र वांगखेमचा और कन्हैया लाल शुक्ला की याचिका पर सुनवाई स्थगित की थी। न्यायालय ने इस याचिका पर 30 अप्रैल को केंद्र को नोटिस जारी किया था।
इसमे कोई संदेह नहीं है कि आपातकाल के दौर से ही यह महसूस किया जा रहा है कि धारा 124ए का दुरुपयोग हो रहा है। आरोप लग रहे हैं कि राजनीतिक विरोधियों, विचारकों और सरकार के आलोचकों को परेशानकरने के लिए भारतीय दंड संहिता में शामिल धारा 124ए का इस्तेमाल किया जा रहा है।
मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ‘औपनिवेशिक काल’ के राजद्र्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के ‘दुरुपयोग’ से चिंतित नजर आए। उन्होंने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘एक गुट के लोग दूसरे समूह के लोगों को फंसाने के लिए इस प्रकार के (दंडात्मक) प्रावधानों का सहारा ले सकते हैं।’’ उन्होंने कहा कि यदि कोई विशेष पार्टी या लोग (विरोध में उठने वाली) आवाज नहीं सुनना चाहते हैं, तो वे इस कानून का इस्तेमाल दूसरों को फंसाने के लिए करेंगे।
न्यायालय ने पिछले 75 वर्ष से राजद्र्रोह के अपराध संबंधी धारा 124ए को कानून की किताब में बरकरार रखने पर आश्चर्य व्यक्त किया और कहा, ‘‘हमें नहीं पता कि सरकार निर्णय क्यों नहीं ले रही है, जबकि आपकी सरकार (अन्य) पुराने कानून समाप्त कर रही है।’’ साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि वह किसी राज्य या सरकार को दोष नहीं दे रही, लेकिन दुर्भाग्य से क्रियान्वयन एजेंसी इन कानूनों का दुरुपयोग करती हैं और ‘‘कोई जवाबदेही नहीं है।’’
इससे पहले, इसी साल मई महीने में शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट की तीन सदस्यीय विशेष पीठ ने भी कहा था, ‘‘हमारा मानना है कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों-124ए (राजद्र्रोह) और 153 (विभिन्न वर्गों के बीच कटुता को बढ़ावा देना) की व्याख्या की जरूरत है, खासकर प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर।’’
न्यायालय ने इस मामले में कहा था कि वह विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा। यह प्रकरण आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के एक बागी सांसद के भाषण प्रसारित करने के कारण दो तेलुगू समाचार चैनलों टीवी 5 और एबीएन आंध्र ज्योति के खिलाफ राजद्र्रोह का मामला दर्ज किये जाने से संबंधित है।
2010 से 816 मामले
शीर्ष अदालत बार-बार कह रही है कि बात-बात पर राजद्र्रोह की संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज करने की प्रवृत्ति गलत है और इस पर रोक लगनी चाहिए।
न्यायालय को उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार 2010 से देश में 816 मामलों में 10,938 भारतीयों को राजद्र्रोह का आरोपी बनाया गया। लेकिन जहां तक किसी एक साल का सवाल है तो 2011 में संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान कुंडकुलम परमाणु संयंत्र को लेकर हुए आंदोलन में राजद्रोह के 130 मामले दर्ज हुए थे।
प्राप्त जानकारी के अनुसार 2010 से राजद्रोह के आरोप में बिहार में 168, तमिलनाडु में 139, उप्र में 115, झारखंड में 62 और कर्नाटक में 50 मामले दर्ज हुए।
एक जानकारी के अनुसार पिछले एक दशक में नागरिकों के खिलाफ राजद्रोह के कम से कम 798 मामले दर्ज हुए। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में राजद्र्रोह के 279 और राजग सरकार के शासन में 2014 से 2020 के दौरान 559 ऐसे मामले दर्ज हुए। इनमें से सिर्फ 10 मामलों में ही दोष सिद्ध हुआ।
विधि आयोग का परामर्श पत्र
राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग पर विधि आयोग ने भी अलग-अलग अवसरों पर विचार किया है। आयोग ने न्यायपालिका की चिंताओं से सहमति व्यक्त करते हुए अपनी रिपोर्ट में इस प्रावधान पर पुनर्विचार करने या रदकरने का सुझाव भी दिया। लेकिन इसे रद्द करना तो दूर, पुनर्विचार तक नहीं हुआ है। वजह, यह सत्ता की नीतियों का मुखर होकर विरोध करने वालों का उत्पीड़न करने का एक कारगर हथियार है।
लेकिन, केन्द्र्र हो या राज्य सरकार, उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि राजद्र्रोह से संबंधित धारा 124ए के तहत किसी भी नागरिक के खिलाफ मामला दर्ज किये जाने से ऐसे व्यक्ति के अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन होने के साथ ही उसके और उसके परिवार के सदस्यों का संविधान में प्रदत्त गरिमा के साथ जीने का अधिकार हमेशा के लिए प्रभावित हो जाता है।
नरेन्द्र्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 31 अगस्त, 2018 को भी विधि आयोग ने ‘राष्ट्रद्रोह’ विषय पर एक परामर्श पत्र में कहा था कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना को राष्ट्रद्र्रोह नहीं माना जा सकता। यह आरोप सिर्फ उन मामलों में लगाया जा सकता है जिनमें हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को अपदस्थ करने की मंशा हो।
अब अदालत पर नजर
बहरहाल इस समय राजद्र्रोह के अपराध से संबंधित धारा 124ए की संवैधानिकता का मसला नये सिरे से शीर्ष अदालत के समक्ष पहुंचा है। याचिकाकर्ताओं की मांग है कि बदलते सामाजिक परिवेश में शीर्ष अदालत के 1962 के फैसले पर पुनर्विचार किया जाए। अब देखना यह है कि इस मामले में न्यायालय का अगला कदम क्या होता है क्योंकि 1962 का निर्णय पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया था।
फिलहाल तो देखना यह है कि क्या इस मामले में नये विचारणीय मुद्दों के साथ सभी याचिकाओं को पांच सदस्यीय संविधान पीठ से बड़ी पीठ को सौंपा जाएगा या फिर केंद्र सरकार ही विधि आयोग के परामर्श पत्र में व्यक्त राय के मद्देनजर उचित कदम उठाते हुए इसमें आवश्यक संशोधन करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि इस प्रावधान के तहत मामला दर्ज करते समय किसी भी स्थिति में नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की मूल भावना का हनन न हो।
क्या निर्बाध है असहमति की सीमा?
बड़े जोर-शोर से तर्क और दलीलें दी जा रही हैं कि लोकतंत्र में असहमति की तुलना आतंकवाद से नहीं की जा सकती और सभी नागरिकों को संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार प्राप्त है। यह तर्क और दलील वजनदार है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है लेकिन यह स्वतंत्रता निर्बाध नहीं है। इस पर तर्कसंगत बंदिशें लगाई जा सकती हैं।
अब जहां तक सवाल ‘असहमति’ का है तो न्यायिक व्यवस्था के माध्यम से यह निर्धारित करने की भी आवश्यकता है कि इस ‘असहमति’ की सीमा क्या है? अगर ‘असहमति’ और विरोध प्रकट करने की गतिविधियों की परिणति विघटनकारी गतिविधियां शुरू करने या फिर देश के किसी हिस्से का संपर्क या आवागमन समूचे देश से काटने के लिए प्रोत्साहित करती हो या फिर संचार व्यवस्था ठप करने, संचार टॉवर क्षतिग्रस्त करने और तोड़फोड़ करने वाली हो तो इसे ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत असहमति का अधिकार’ माना जाएगा या फिर इसे राजद्रोह और विघटनकारी गतिविधियों के आरोप में शामिल होना माना जाएगा।
लोकतंत्र का ‘सेफ्टीवॉल्व’
हाल के वर्षों में शीर्ष अदालत के अनेक न्यायाधीशों ने असहमति को जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक बताते हुए इसके सम्मान पर जोर दिया है। न्यायपालिका ने इस तथ्य को भी इंगित किया है कि समाज में विभिन्न मुद्दों पर विपरीत विचारधारा के लिए असहिष्णुता बढ़ रही है जो चिंता की बात है।
न्यायपालिका असहमति को जहां लोकतंत्र का ‘सेफ्टीवाल्व’ मानती है, वहीं उसका यह भी कहना है कि असहमति को सिरे से राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी बताना लोकतंत्र पर ही हमला है क्योंकि विचारों को दबाने का मतलब देश की अंतरात्मा को दबाना है। न्यायाधीशों ने कई मामलों की सुनवाई के दौरान और इससे इतर भी असहमति को लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व बताया है।
यह बात एकदम सही है लेकिन इसके साथ ही हमें लोकतंत्र में सहमति और असहमति व्यक्त करने के लिए हिंसा, तोड़फोड़ करने या फिर विघटनकारी गतिविधियों का सहारा लेने जैसे कृत्यों के बीच अंतर करना होगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो समाज का हर वर्ग या समूह शासकीय व्यवस्था के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए कानून को अपने हाथ में लेने का प्रयास करने लगेगा।
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