अश्विनी उपाध्याय
विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय नागरिक अधिकार और मानवाधिकार से सम्बन्धित हैं जिन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार नहीं कहा जा सकता लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से 'समान नागरिक संहिता' की कल्पना की थी ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिले और देश की एकता-अखंडता मजबूत हो लेकिन वोटबैंक राजनीति के कारण 'समान नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं बनाया गया
हमारा देश वेद-पुराण, गीता-रामायण, बाइबिल-कुरान से नहीं बल्कि संविधान से चलता है और संविधान (सम+विधान) का अर्थ है समान विधान अर्थात् ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो।
बेटा हो या बेटी, मां के पेट में बच्चा नौ महीने ही रहता है। प्रसव पीड़ा भी बेटा-बेटी के लिए एक समान होती है। इससे स्पष्ट है कि महिला-पुरुष में भेदभाव ऊपर वाले ने नहीं, बल्कि इनसान ने किया है। हमारे समाज में महिला-पुरुष में जो भेदभाव व्याप्त है, वह रीति नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा शुरू की गई कुरीति है, प्रथा नहीं बल्कि इनसान द्वारा द्वारा शुरू की गई कुप्रथा है और कुरीतियों और कुप्रथाओं को मजहब या रिलिजन से जोड़ना बिल्कुल
गलत है।
अनुच्छेद 14 के अनुसार सब लोग एक समान हैं। अनुच्छेद 15 जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को पूरे देश में कहीं पर भी जाने, रहने, बसने और रोजगार शुरू करने का अधिकार देता है।
'समता, समानता, समरसता, समान अवसर तथा समान अधिकार' संविधान की आत्मा है। कुछ लोग अनुच्छेद 25 में प्रदत्त पांथिक आजादी की दुहाई देकर ‘समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता’ का विरोध करते है लेकिन अनुच्छेद 25 की शुरुआत ही होती है ‘सब्जेक्ट टू पब्लिक आॅर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी’ अर्थात किसी भी प्रकार की ‘कुप्रथा, कुरीति, पाखंड और भेदभाव’ को अनुच्छेद 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है।
अंग्रेजों द्वारा 1860 में बनाई गई भारतीय दंड संहिता, 1861 में बनाया गया पुलिस ऐक्ट, 1872 में बनाया गया एविडेंस ऐक्ट और 1908 में बनाए गए सिविल प्रोसिजर कोड सहित सभी कानून बिना किसी भेदभाव के सभी भारतीयों पर समान रूप से लागू हैं। पुर्तगालियों द्वारा 1867 में बनाया गया पुर्तगाल सिविल कोड भी गोवा के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू है, लेकिन आश्चर्य है कि विस्तृत चर्चा के बाद बनाया गया अनुच्छेद 44 अर्थात् समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया।
अब तक 125 बार संविधान में संशोधन किया गया और 5 बार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी पलटा गया लेकिन 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं तैयार किया गया, परिणामस्वरूप इससे होने वाले लाभ के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। समान नागरिक संहिता शुरू से भाजपा के घोषणापत्र में है इसलिए भाजपा समर्थक इसका समर्थन करते हैं और भाजपा विरोधी इसका विरोध करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि समान नागरिक संहिता के लाभ के बारे में न तो इसके समर्थकों को पता है और न इसके विरोधियों को, इसीलिए समान नागरिक संहिता का तत्काल एक मसौदा बनाना नितांत आवश्यक है।
समस्याएं अनेक
- मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह अर्थात् चार निकाह करने की छूट है लेकिन अन्य पंथों में ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बांझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू-ईसाई-पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम मजहब अपना लेते हैं, भारत जैसे सेकुलर देश में चार निकाह जायज है जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली पत्नी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता। ‘एक पति-एक पत्नी’ किसी भी प्रकार से पांथिक विषय नहीं है बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह पूर्णत: लिंग निरपेक्ष और पंथ निरपेक्ष होना चाहिए
- विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए एक समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है। मासिक धर्म शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है इसीलिए 9-10 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है जबकि अन्य मत-पंथों में लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डल्यूएचओ) कई बार कह चुका है कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है। लड़का हो या लड़की, 20 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं, 20 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और 20 वर्ष से पहले बच्चे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं होते इसलिए सबके लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष करना अत्यावश्यक है। 'विवाह की न्यूनतम उम्र' किसी भी तरह से पांथिक विषय नहीं है बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह पूर्णत: लिंग निरपेक्ष और धर्म निरपेक्ष होना चाहिए।
- तीन तलाक के अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन आज भी मान्य है और इनमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करनी है लेकिन अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है। हिंदू ईसाई-पारसी दंपती आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह विच्छेद की सुविधा से वंचित हैं। मुसलमानों में प्रचलित तलाक की न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम औरतों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है। तुर्की जैसे मुस्लिम बहुल देश में भी किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है। तलाक का आधार भी लिंग निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और समान होना चाहिए।
- मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है, लेकिन अन्य मत-पंथों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है। मुस्लिम कानून में एक-तिहाई से अधिक सम्पत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती जबकि अन्य मत-पंथों में शतप्रतिशत सम्पत्ति की वसीयत की जा सकती है। वसीयत और दान किसी भी तरह से पांथिक विषय नहीं है बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह भी लिंग-निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और समान होना चाहिए।
- मुस्लिम कानून में ‘उत्तराधिकार’ की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है, पैतृक सम्पत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य मत-पंथों में भी विवाहोपरान्त अर्जित सम्पत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं, विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक सम्पत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित सम्पत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं। ‘उत्तराधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह लिंग निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और समान होना चाहिए।
- विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्यभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीवी को तलाक दे सकता है लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती। हिंदू-पारसी और ईसाई मत में तो व्यभिचार तलाक का आधार ही नहीं है। कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई मत में तलाक हो सकता है लेकिन पारसी और मुस्लिम मत में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी-ईसाई-मुस्लिम में यह संभव नहीं है। ‘विवाह विच्छेद’ किसी भी तरह से पांथिक विषय नहीं है बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह भी पूर्णत: लिंग निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और समान होना चाहिए।
- गोद लेने का नियम भी हिंदू-मुस्लिम-पारसी-ईसाई के लिए अलग-अलग है। मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य मतों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है। ‘गोद लेने का अधिकार’ किसी भी तरह से पांथिक विषय नहीं है, बल्कि जनाधिकार और मानवाधिकार का मामला है इसलिए यह भी पूर्णत: लिंग निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और समान होना चाहिए।
विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय जनाधिकार और मानवाधिकार से सम्बन्धित हैं जिनका न तो पंथ से किसी तरह का संबंध है और न इन्हें पांथिक व्यवहार कहा जा सकता है लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी पंथ के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से ‘समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता’ की कल्पना की थी ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिले और देश की एकता- अखंडता मजबूत हो लेकिन वोटबैंक की राजनीति के कारण 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं बनाया गया।
अनुच्छेद 37 में स्पस्ट लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार का मौलिक कर्तव्य है। जिस प्रकार संविधान का पालन सभी नागरिकों का मौलिक कर्तव्य है वैसे ही संविधान को शत-प्रतिशत लागू करना सरकार का नैतिक कर्तव्य है। किसी भी सेकुलर देश में पांथिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता लेकिन हमारे यहां आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मेरिज एक्ट और ईसाई मेरिज एक्ट लागू है, जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी तब तक भारत को सेकुलर कहना सेकुलर शब्द को गाली देना है। यदि गोवा में एक ‘समान नागरिक संहिता’ सबके लिए लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ क्यों नहीं लागू हो सकती?
समान नागरिक संहिता लागू होने से अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्राप्त मूलभूत पांथिक अधिकार जैसे पूजा, नमाज या प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या पांथिक स्कूल खोलने, पांथिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा। जिस दिन 'भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा तैयार हो जाएगा और आम जनता विशेषकर बहन-बेटियों को इसके लाभ के बारे में पता चल जाएगा, उस दिन कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा। सच तो यह है कि जो लोग समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, वे ही इसका विरोध कर रहे हैं।
जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह हैं जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खण्डित कर सकते हैं इसलिए इन्हें समाप्त कर एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अत्यावश्यक है। दुर्भाग्य से 'भारतीय नागरिक संहिता' को हमेशा मजहबी तुष्टीकरण के चश्मे देखा जाता रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय केंद्र सरकार से कानून बनाने के लिए तो नहीं कह सकता, लेकिन वह अपनी भावना व्यक्त कर सकता है और बार-बार यही कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय न्यायिक आयोग या विशेषज्ञ समिति बनाने का निर्देश दे सकता है जो विकसित देशों की समान नागरिक संहिता और भारत में लागू कानूनों का अध्ययन करे और सबकी अच्छाइयों को मिलाकर 'भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा तैयार कर सार्वजनिक करे, जिससे इस विषय पर सार्वजनिक चर्चा शुरू हो सके।
विवाह की न्यूनतम उम्र, तलाक का आधार, गुजारा भत्ता, संपत्ति, विरासत और गोद लेने का नियम एक समान करने की मांग वाली पांच जनहित याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। इसी प्रकार दिल्ली उच्च न्यायालय ने 31 मई को 'समान नागरिक संहिता' की मांग वाली मेरी जनहित याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था लेकिन आज तक जवाब दाखिल नहीं हुआ। मेरा व्यक्तिगत मत है कि अदालत के आदेश की प्रतीक्षा करने की बजाय सरकार को विकसित देशों की ‘समान नागरिक संहिता’ और भारत में लागू नागरिक कानूनों का अध्ययन कर दुनिया का सबसे अच्छा और प्रभावी ‘इंडियन सिविल कोड’ तैयार करके उसे सार्वजनिक करना चाहिए।
संविधान सभा में हुई थी बहस
अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, ‘‘व्यवहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता लागू है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। केवल विवाह-उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं है। यह बहुत छोटा-सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं इसलिए हमारी इच्छा है कि अनुच्छेद 35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए। यह आवश्यक नहीं है कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों। पंथ को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके।’’ (अनुच्छेद 44 मूल रूप में अनुच्छेद 35 था)
संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने कहा, ‘‘हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में पांथिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए, बीते कुछ वर्षों में पांथिक क्रियाकलाप ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया है, हमें ऐसा करने से रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह उपरांत मामले पांथिक नहीं बल्कि पंथनिरपेक्ष कानून के विषय हैं। यह अनुच्छेद इसी बात पर बल देता है. मैं अपने मुस्लिम मित्रों से कहना चाहता हूं कि जितना जल्दी हम जीवन को बांटने वाली सोच को भूल जाएंगे, देश और समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा। पंथ उस परिधि तक सीमित होना याहिए जो नियमत: पंथ की तरह दिखता है और शेष जीवन इस तरह से विनियमित, एकीकृत और संशोधित होना चाहिए कि हम जितनी जल्दी संभव हो, एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र में निखर सकें।’’
संविधान सभा के सदस्य कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा, ‘‘कुछ लोगों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्री के साथ नहीं रह पाएंगे। इस अनुच्छेद का उद्देश्य ही मैत्रियता बढ़ाना है। समान नागरिक संहिता मैत्री को समाप्त नहीं बल्कि मजबूत करेगी। उत्तराधिकार या इस प्रकार के अन्य मामलों में अलग-अलग व्यवस्थाएं ही भारतीय नागरिकों में भिन्नता पैदा करती हैं। समान नागरिक संहिता का मूल उद्देश्य विवाह, उत्तराधिकार के मामलों में एक समान सहमति तक पहुंचने का प्रयास करना है। जब ब्रिटिश हमारे देश की सत्ता पर काबिज हुए तो उन्होंने इस देश के सभी नागरिकों, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, पारसी हों या ईसाई, के लिए समान रूप से लागू होने वाली ‘भारतीय दंड संहिता’ को लागू किया था। क्या तब मुस्लिम अपवाद बने रह पाए और क्या वे आपराधिक कानून की एक व्यवस्था को लागू करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर सके? भारतीय दंड संहिता हिंदू-मुसलमान पर एक समान रूप से लागू होती है। यह कुरान द्वारा नहीं बल्कि विधिशास्त्र द्वारा संचालित है। इसी तरह संपत्ति कानून भी इंग्लिश विधिशास्त्र से लिए गए हैं’।''
समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता (वन नेशन वन सिविल कोड) के एक नहीं, अनेक लाभ
- भारतीय दंड संहिता (वन नेशन – वन पीनल कोड) की तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता (वन नेशन – वन सिविल कोड) लागू होने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति मिलेगी।
- वर्तमान समय में अलग-अलग मत के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना पैदा होती है इसलिए सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से सबको हीन भावना से मुक्ति मिलेगी।
- ‘एक पति-एक पत्नी’ की अवधारणा सभी भारतीयों पर एक समान रूप से लागू होगी और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ सभी भारतीयों को एक समान रूप से मिलेगा चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
- न्यायालय के माध्यम से विवाह-विच्छेद करने का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा। विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद करने की अनुमति भी सभी नागरिकों को होगी, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
- पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और संपति को लेकर पंथ, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी।
- विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
- वसीयत, दान, संरक्षकत्व, बंटवारा, गोद इत्यादि के संबंध में सभी भारतीयों पर एक समान कानून लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और पंथ, जाति, क्षेत्र, लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी।
- राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
- जाति-पंथ-क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे।
- अलग-अलग मतों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी में उलझना पड़ता है। सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा।
- 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से रूढ़िवाद, कट्टरवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद समाप्त होगा तथा वैज्ञानिक सोच विकसित होगी। इसके लागू होने से हिंदू-मुस्लिम पारसी, ईसाई बहन-बेटियों के अधिकारों मे भेदभाव खत्म होगा। सच तो यह है कि इसका फायदा हिंदू-बहन बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा, क्योंकि हिंदू मैरिज एक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बहन-बेटियों को मिलेगा क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता।
शीर्ष अदालतों ने कई बार की है पैरवी
1985 में शाहबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था- ‘‘यह अत्यधिक दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है। यह प्रावधानित करता है कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ बनाए लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है, समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति अलग करने वाले भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अंखडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगी।’’
1995 में सरला मुद्गल केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- ‘‘संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत व्यक्त की गई संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार और कितना समय लेगी? उत्तराधिकार और विवाह को संचालित करने वाले परंपरागत हिंदू कानून को बहुत पहले ही 1955-56 में संहिताकरण करके अलविदा कह दिया गया है। देश में समान नागरिक संहिता को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करने का कोई औचित्य नहीं है। कुछ प्रथाएं मानवाधिकार एंव गरिमा का अतिक्रमण करती हैं। पंथ के नाम पर मानव अधिकारों का गला घोंटना स्वराज्य नहीं बल्कि निर्दयता है, इसलिए एक समान नागरिक संहिता का होना निर्दयता से सुरक्षा प्रदान करने और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को ममजबूत करने के लिए नितांत आवश्यक है।’’
2003 में जॉन बलवत्तम मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘यह दुख की बात है कि संविधान के अनुच्छेद 44 को आज तक लागू नहीं किया गया, संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कदम उठाना है. समान नागरिक संहिता वैचारिक मतभेदों को दूर कर देश की एकता-अखंडता को मजबूत करने में सहायक होगी।’’
2017 में शायरा बानो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘हम भारत सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करे। हम आशा एवं अपेक्षा करते हैं कि वैश्विक पटल पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम से सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है।’’
2019 में जोस पाउलो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर कहा कि समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार की तरफ से अबतक कोई प्रयास नहीं किया गया। अदालत ने अपने टिप्पणी में गोवा का उदाहरण दिया और कहा- 1956 में हिंदू लॉ बनने के 63 साल बीत जाने के बाद भी पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया।
प्रमुख समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘‘एक ही विषय पर हिंदू- मुस्लिम-ईसाई-पारसी के लिए अलग-अलग कानून, धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों और देश की एकता-अखंडता के लिए अत्यधिक खतरनाक है।’’
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, जब संविधान निर्माताओं ने विवाह के लिए एक कानून बनाने की सिफारिश की है और कहा है कि राज्य इसकी तरफ ध्यान देगा, तो क्या वे साम्प्रदायिक थे, क्या यह सांप्रदायिक मुद्दा है? क्रिमिनल लॉ एक है तो सिविल लॉ क्यों नहीं एक हो सकता?’’
अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य ताहिर महमूद कहते हैं-‘परंपरागत कानून के लिए पांथिक-राजनीतिक दबाव बनाने की बजाय मुसलमानों को समान नागरिक संहिता की मांग करनी चाहिए।’
विस्तृत चर्चा के बाद 23 नवंबर, 1948 को अनुच्छेद 44 हमारे संविधान में जोड़ा गया और इसके माध्यम से सरकार को निर्देश दिया गया कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करें। संविधान निर्माताओं, विशेष रूप से बाबा साहब आंबेडकर की हार्दिक इच्छा थी कि अलग-अलग मतों के लिए अलग-अलग कानून के स्थान पर ‘भारतीय दंड संंहिता’ की तरह ही सभी भारतीयों के लिए जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र और लिंग निरपेक्ष एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होनी चाहिए।
जागरूकता फैलाने के लिए 23 नंवबर का दिन ‘समान नागरिक संहिता’ दिवस के रूप में मनाना चाहिए तथा देश के सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में भारतीय नागरिक संहिता पर वाद-विवाद और निबंध लेखन प्रतियोगिता तत्काल आयोजित करनी चाहिए।
(लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं)
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