हितेश शंकर
रही बात वर्तमान गतिरोध और हो-हल्ले की तो विपक्ष का होना बहुत आवश्यक है परंतु होने के लिए विपक्ष का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। हो-हल्ला अपने-आप में मुद्दा नहीं हो सकता। आपको मुद्दा बनाना है तो आपको बिंदुवार चीजें बतानी भी होंगी। सिर्फ हंगामा बचा है, कांग्रेस की बात करें तो बिंदुवार चीजों की बात करते ही उसका परिवारवाद सामने आ जाता है, परिवार की कलह सामने आ जाती है, परिवार की अक्षमता सामने आ जाती है।
संसद में वर्तमान गतिरोध ने कुछ प्रश्न हमारे सामने रखे हैं। यह गतिरोध पहली बार नहीं है, सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच गतिरोध होता ही है परंतु आज स्थिति कुछ अलग है। इसमें तीन बिंदु दिखाई देते हैं। पहला तो वह जिसकी ओर प्रधानमंत्री जी ने संकेत किया कि इस मंत्रिपरिषद में अनुसूचित जाति-जनजाति, महिलाओं व अन्य पिछड़ा वर्ग का जो नेतृत्व उभर कर सामने आया है, वह बात विपक्ष को हजम नहीं हो रही। कुछ लोग इसे राजनीतिक बयान भी कह सकते हैं परंतु इसमें राजनीतिक बयान जैसी कोई बात नहीं है। इसे दो कसौटियों पर परखा जा सकता है।
पहला, यह पहली बार है जब मंत्रिपरिषद में और देश के शीर्ष सम्मानों में उन वर्गों के चेहरे दिखाई दे रहे हैं जिन्हें अब तक हाशिए पर कहा-गिना जाता रहा है। भारत की इस इंद्रधनुषी ताकत का परिचय देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद से होना ही चाहिए था। इसे सबके द्वारा सराहा जाना चाहिए, यह एक अच्छा अवसर था जिसे क्षुद्र्र राजनीति के चलते विपक्ष ने गवां दिया वरना यह क्षमता हम सबकी साझी क्षमता है। पहले परिवार और परिक्रमा आगे बढ़ने की कसौटी थी और अब परिश्रम एवं स्वअर्जित प्रतिष्ठा मापदंड है।
दूसरे, जिन मुद्दों पर विपक्ष चर्चा कर सकता था, वहां भी मात खा गया। विपक्ष को विपक्षी राजनीति के पाठ भी वर्तमान सत्ताधारी दल की पाठशाला से ही सीखने पड़ेंगे। वह बताएगा कि विपक्ष की भूमिका क्या होती है, संख्याबल कम होने पर भी स्वयं को कैसे दर्ज करना है। 1984 में राजीव गांधी एक बड़ी ताकत थे, तत्कालीन विपक्ष ने इसके बावजूद अपनी ताकत को दर्ज कराया। राजीव गांधी मिस्टर क्लीन कहे जाते थे, विपक्ष ने पूरी दमदारी से बताया कि इस मिस्टर क्लीन के चेहरे पर कितने दाग हैं। तब बहुमत का बल बहुत बड़ा था और विपक्ष बहुत कमजोर, तब विशेष रूप से भाजपा ने, विपक्ष की भूमिका को कैसे धार देते हैं, यह बताया। संख्या न होने पर भी जनमत कैसे बनाते हैं, यह कई अवसरों पर बताया, अवसर गवांए नहीं। चाहे इंदिरा गांधी के सशक्त नेतृत्व के विरुद्ध विपक्ष के गंभीर विमर्शों को लिया जाए, या आप जेपी के नेतृत्व में विपक्षी लामबंदी के अनूठे प्रयोग को देखें, विपक्ष की सकारात्मक, प्रभावी भूमिका दिखती है।
विपक्ष का झूठ और झुंझलाहट
तीसरी बात, विपक्ष इस समय एक भारी झुंझलाहट से जूझ रहा है। राजनीति में विपक्ष कहीं है ही नहीं, उसके साथ कठिनाई यह है कि पिछले सत्र से अगला सत्र आ गया, और पिछले कुछ वर्षों में कई मुद्दे आए, संसद के कई सत्र चले गए, विपक्ष ने इस दौरान जिन मुद्दों के लिए ताल ठोंकी, उन मुद्दों में कोई दम था, यह वे साबित नहीं कर पाए। ताल ठोकने वाले पहलवान में कोई दम था, ये बात भी साबित नहीं कर पाए। लोगों को यह लगने लगा है कि विपक्ष झूठ की जमीन पर खड़ा है। पहले वह दाग की जमीन पर खड़ा था जिसकी वजह से जनता ने उसे परे धकेल दिया, अब झूठ और झुंझलाहट की जमीन पर खड़ा है।
विपक्ष के झूठ की बानगी देखिए, विपक्ष ने कहा कि विमुद्रीकरण से लोग मर जाएंगे, ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर सीएए के प्रश्न पर विपक्ष ने कहा कि इस कानून से मुसलमानों की नागरिकता चली जाएगी, किसी की नागरिकता नहीं गई। फिर कृषि विधेयकों पर कहा गया कि इससे किसानों की जमीनें छिन जाएंगी, यह बात भी झूठी साबित हुई, उलटा उचित दाम पर त्वरित खरीद और पारदर्शी भुगतान से किसानों को फायदा हुआ। उन्होंने केवल भय फैलाया, जब कुछ करके दिखाने की चुनौती मिली, तो कुछ किया नहीं। कुछ करके दिखाते तो भी लोग उन्हें माफ कर देते कि ये महज भय नहीं फैलाते बल्कि सकारात्मक भी करते हैं।
मुद्दों पर मात
तीन मुद्दे ऐसे थे जिस पर वे सरकार की घेराबंदी करना चाहते थे।
कश्मीर से अनुच्छेद 370 का कांटा निकालने का मुद्दा पहला ऐसा मुद्दा था जब भाजपा विरोधी राजनीति ने पूरे देश में भय और आशंका का माहौल बनाया था। कहा गया कि 370 से छेड़छाड़ हुई तो भारी मार-काट होगी, खून की नदियां बह जाएंगी। परंतु प्रशासनिक सूझबूझ से सरकार ने न सिर्फ इसे संभाला बल्कि इससे अशांत राज्य के लिए शांति और समृद्धि की राह प्रशस्त हुई।
दूसरे, चीन से सीमा गतिरोध था, परंतु डोकलाम के बाद लद्दाख में भी सरकार का दृढ़निश्चय फलदायी साबित हुआ। हम चीन के सामने डटकर खड़े रहे, इसलिए विपक्ष के पास कहने को कुछ नहीं था।
विपक्ष सरकार की तीसरी घेराबंदी कोरोना से निबटने के मामले में करना चाहता था। परंतु कोरोना से निबटने की बात भी वे कैसे कर पाते? जब एक उंगली सरकार की तरफ उठाते ही उनकी तरफ चार उंगली उठ जाती हैं। आज राजनीति में जो स्वयं को बुद्धिजीविता के पर्याय के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उस वामपंथ की मति मारी गई है, यह केरल मॉडल में दिखता है। उस केरल मॉडल की डुगडुगी तब सबने बजाई थी, परंतु वह केरल मॉडल फुस्स पटाखा साबित हुआ। अगर बुद्धिजीविता थी, तो केरल मॉडल विफल नहीं होता। वर्ष 2021 में कोई दिन ऐसा नहीं निकला जब केरल में 10,000 से कम मामले दर्ज हुए हों। जनसंख्या के मामले में केरल देश की कुल जनसंख्या का 2 प्रतिशत है परंतु 25 प्रतिशत कोरोना केस लोड लेकर बैठा है। तो वामपंथ के प्रशासनिक मॉडल की कलई कोरोना मामले मेंखुल गई।/
ऐसा ही महाराष्ट्र में भी है जहां कांग्रेस के समर्थन से चल रही सरकार के राज में भी लोग त्राहिमाम कर रहे हैं। यदि ये संसद में कोरोना के मोर्चे पर हल्ला मचाते तो इन दोनों मॉडलों की विफलता उजागर होती और उत्तर प्रदेश मॉडल दमदारी से उठता हुआ दिखाई देता। तो मुद्दा तो यह है कि कोरोना के मोर्चे पर अगर उन्हें घेराबंदी करनी थी तो पहले कुछ सकारात्मक करके दिखाना था। वे कुछ नहीं कर पाए।/
रही बात वर्तमान गतिरोध और हो-हल्ले की तो विपक्ष का होना बहुत आवश्यक है परंतु होने के लिए विपक्ष का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। हो-हल्ला अपने-आप में मुद्दा नहीं हो सकता। आपको मुद्दा बनाना है तो आपको बिंदुवार चीजें बतानी भी होंगी। सिर्फ हंगामा बचा है, कांग्रेस की बात करें तो बिंदुवार चीजों की बात करते ही उसका परिवारवाद सामने आ जाता है, परिवार की कलह सामने आ जाती है, परिवार की अक्षमता सामने आ जाती है। सबसे बड़ी पार्टी है परंतु नेतृत्व का मसला ही नहीं सुलझ रहा है, यह सामने आ जाता है। और, पार्टी के नेतृत्व का मसला न सुलझा पाने वाले लोग पंजाब में नेतृत्व का फैसला कर रहे हैं, पार्टी का और बंटाढार कर रहे हैं। इन चीजों से ध्यान हटाने के लिए यह जो झुंझलाहट है, यह फिर संसद में एक गतिरोध के तौर पर दिखाई देती है। गतिरोध तो सुलझ जाएंगे परंतु आपका अस्तित्व बचा रह पाए, इसके लिए आवश्यक है कि पार्टी के राजनीतिक स्वास्थ्य पर आप काम करें, मुद्दों को समझने की कोशिश करें। लोकतंत्र में स्वस्थ विपक्ष आवश्यक है परंतु विपक्ष स्वस्थ रहे, जीवंत रहे, इसकी गारंटी सत्तापक्ष दे, ऐसा कोई नहीं करता, विपक्ष को स्वयं यह देखना पड़ेगा। इस बात पर वर्तमान विपक्ष को गंभीरता से सोचना चाहिए।
पत्रकारिता : ‘सेंध और सुपारी’ की जांच जरूरी
पेगासस के हवाई घोड़े पर सवार विपक्ष के पास तथ्यों के नाम पर शून्य है। उलटा अब लोग यह अंदेशा जताने लगे हैं कि भारतीय मीडिया में चीनी निवेश के सनसनीखेज खुलासे (न्यूजक्लिक प्रकरण) के बाद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गोपनीय समझौते में बंधी कांग्रेस ड्रैगन को ‘कवर फायर’ देने का काम कर रही है।
विपक्ष पेगासस की बात कर रहा है, जासूसी की बात कर रहा है, इस पर हल्ला बहुत मचाया जा रहा है। परंतु इस मुद्दे पर जो बड़े सवाल हैं, वे वर्तमान विपक्ष को ज्यादा घेरते हैं। इसमें एक बात होती है सर्विलांस, जिसके कुछ नियम-कानून होते हैं। दूसरी होती है जासूसी जो स्वयं इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी की कराई थी, राजीव गांधी ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की कराई थी। यूपीए सरकार में प्रणब मुखर्जी, अरुण जेटली, नितिन गडकरी की जासूसी कराई गई। पी. चिदंबरम ने यशवंत सिन्हा की जासूसी कराई थी। और तो और, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी कराने वाले लोग औरों की जासूसी का सवाल उठा रहे हैं तो वे गंभीर विमर्श खड़ा करने के बजाय जनता की नजर में उपहास के पात्र बन रहे हैं। याद कीजिए, अपने भतीजे को लिखे पत्र में नेताजी के शब्द थे-किसी और ने मुझे इतनी हानि नहीं पहुंचाई जितनी जवाहरलाल नेहरू ने।
पेगासस की कथित ‘जासूसी’ कांग्रेस काल में हुई जासूसियों से इतर कैसे है, यह देखने वाली बात है। यह सॉफ्टवेयर किसी को व्यक्तिगत भेजा ही नहीं जाता, आप राष्ट्रपति या किसी राजनीतिक विरोधी के यहां बगिंग कर के इसे नहीं लगा सकते। यह सॉफ्टवेयर सरकारों को ही बेचा जाता है। स्पष्ट है कि एक जासूसी है, दूसरा सर्विलांस या सतर्कता की दृष्टि से की जाने वाली नियमित निर्देशित निगरानी व्यवस्था है। इसके पीछे पुष्ट सूचनाओं का आधार भी होता है। दोनों में अंतर है।
इस मुद्दे पर मीडिया में बहुत हल्ला मच रहा है परंतु हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि जिस समय पेगासस की बात आ रही है, उसी समय न्यूजक्लिक का भी एक मसला है। यह सरोकार, न्याय और प्रगतिशीलता का घंटा बजाने वाले कुछ लोगों की वेबसाइट है। जांच में यह सामने आया है कि इस वेबसाइट के तार सीधे-सीधे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हैं। यानी आपके देश में अपने मनमुताबिक बदलाव लाने के लिए आपके मीडिया में कुछ विदेशी ताकतों ने निवेश किया हुआ था। इससे पहले यूसी ब्राउजर के जरिए चीन भारत के हजारों पत्रकारों को प्रशिक्षित कर अपने मतलब की खबरें बनवाने, छितराने का प्रयोग कर चुका है। यूसी ब्राउजर के प्रकरण से यह सबक मिला है कि रंगे सियारों को पकड़ना बहुत जरूरी है। दिखते बहुत सरोकार वाले हैं, परंतु पीछे उनके तार कहां, कितने गहरे जुड़े हुए हैं, इसका खुलासा हुआ है। दूसरी बात, पत्रकारिता हमेशा से पारदर्शिता, निष्पक्षता की अपेक्षा रखती है। यदि फोन टैप नहीं हुए होते तो नीरा राडिया जैसी पद्मश्री प्राप्त पत्रकार कैसे कैबिनेट में सीटें बुक कराती है, यह खुलासा हुआ होता क्या? क्या पत्रकारिता सरकार के सर्विलांस के दायरे से परे है, यह प्रश्न पूछना होगा और यह प्रश्न नीरा राडिया और न्यूजक्लिक प्रकरण ने सबके सामने खड़ा कर दिया है।
एक और प्रश्न है-यह सर्विलांस कहां तक आवश्यक है और यह प्रश्न भारत के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए है। पार्लियामेंटरी एसेंबली आॅफ काउंसिल आॅफ यूरोप में मीडिया और टेरेरिज्म पर एक रिपोर्ट पेश की गई थी। इसमें उन्होंने जो सर्वप्रथम बात रखी, वह यह थी कि आधुनिक आतंकवाद मीडिया का आतंकवाद है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मीडिया आतंकवादी है। परंतु आतंकियों ने यह देख लिया है कि मीडिया द्वारा ‘कवरेज’ का तरीका उनकी बात को प्रचारित करने में मददगार है। इसलिए वे अपने तरीके से मीडिया की कवरेज का लाभ उठाते हैं, कई बार रणनीतिक तरीके से उठाते हैं जैसा कि मुंबई हमले में आतंकियों ने किया। ऐसे में कई बार, जब आतंकी, मीडिया को औजार बनाने की सोच रहे हों, विदेशी एजेंसियां और राजनीतिक दल ब्राउजर के माध्यम से उन्हें प्रशिक्षित कर रहे हों, आपके वेबसाइट और पोर्टल्स में पैसे लगा रहे हों तो ऐसे में सर्विलांस बुरी बात कैसे हो सकती है? लोकतंत्र में लोगों ने सरकार को यह अधिकार दिया है, इस अधिकार से ऊपर कोई नहीं है।
@hiteshshankar
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