बलूचों के प्रेरक हैं चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह

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WEB DESK

बलूचिस्तान के लोग चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, लाला लाजपत राय, सुभाष चंद्र बोस को अपना नायक मानते हैं। उन्हें लगता है कि आजादी के इन मतवालों के दिखाए रास्ते पर चलकर एक दिन बलूचिस्तान भी आजाद हो सकेगा

कल एबटाबाद था। आज बालाकोट है। कल बहावलपुर होगा। न तो पाकिस्तान दहशतगर्द तंजीमों को मदद देने और उनके सियासी इस्तेमाल से बाज आएगा, न ही उनके खिलाफ कभी-कभार होने वाला एक्शन रुकेगा। इसकी पुख्ता वजह है। पाकिस्तान दहशतगर्दी को सियासी असलहे के तौर पर इस्तेमाल करता है। इनसानी हुकूक उसके लिए कोई चीज नहीं है। पाकिस्तान और उसके हुक्मरानों को बलूचों से बेहतर कौन समझ सकता है ? बलूच तो हमेशा सेकहते रहे हैं कि बलूचिस्तान में उनके साथ जो हो रहा है, उसे रोकना सिर्फ बलूचों के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए जरूरी है। बलूच अमनपसंद कौम है। इसी वजह से उसने अपनी जमीन को दहशतगर्दी के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया। लेकिन इस सब्र की कुछ तो उम्र होगी?

हिंदुस्थान की आजादी और पाकिस्तान के पैदा होने के पहले ही बलूचिस्तान एक अलग मुल्क बन गया था। वह तो जिन्ना की बदनीयती थी कि उसने 1948 में बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया। यह अपने-आप में अजीब-सा मामला है कि एक मुल्क ने दूसरे मुल्क पर कब्जा कर लिया और दुनिया देखती रह गई। इस बेइंतिहा जुल्म का सिलसिला 70 साल से चला आ रहा है। जद्दोजहद के इस माहौल में बड़ी मुश्किल से तालीम पा रहे छात्र इन सबके बारे में क्या सोचते हैं ? इस रिपोर्ट के हवाले से यही बताने की कोशिश की है इस संवाददाता ने। इनमें से ज्यादातर हिंदुस्थान की कौमी आजादी के भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे परवानों को अपना नायक मानते हैं। उन्हें भरोसा है कि इन्हीं के बताए रास्ते पर चलकर यहां के लोगों को कौमी आजादी मिल सकती है।

क्वेटा स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ बलूचिस्तान के छात्र जावेद बलोच कहते हैं, ‘‘जब भगत सिंह संसद में बम फेंककर ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करते हैं तो पूरे हिंदुस्थान के लोग आजादी के दीवाने हो जाते हैं। लोग घरों से बाहर निकल आते हैं। भगत सिंह का किरदार रूमानी और रूहानी, दोनों था। वह हमें हौसला देता है। उनकी शख्सियत कौमी आजादी के लिए जान देने से पीछे नहीं हटने का संदेश देती है। जब भगत सिंह यह बात बुलंद करते हैं कि गूंगों-बहरों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए धमाके की जरूरत होती है, तो उससे यह साफ इजहार था कि वे एक ही साथ कब्जागीर अंग्रेजों के अलावा अपने मुल्क के लोगों को भी जगाना चाहते थे। उन्होंने जो किया, वह हम इंकलाबियों को हौसला देता है।’’

इसी यूनिवर्सिटी में तालीम पा रहे सबजल बलोच कहते हैं, ‘‘हम समझते हैं कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोगों ने एक तारीख अमर की है। मुमकिन है, हिंदुस्थान अब उन्हें उस तरह याद नहीं करता हो… अब वहां बाहरी हुकूमत से निजात पाने की जद्दोजहद नहीं है। लेकिन हम तो अब भी उसी वक्त से दो-चार हैं। इसलिए हम उन इंकलाबियों को अब तक भूले नहीं। हम उन इंकलाबियों को उस्ताद मानते हैं जो हक की खातिर लड़ने का जज्बा जगाते हैं।’’
बलूच इस मायने में हिंदुस्थान के लोगों को खुशनसीब समझते हैं कि वहां इनसानी हुकूक को तवज्जो देने की रवायत है। वहां की औरतों को इज्जत-ओ-बराबरी हासिल है। इन्हें महसूस होता है कि हिंदुस्थान के लोग अपनी तारीख की अहमियत को समझ लेते हैं, क्योंकि तारीख ही तय करती है कि आने वाला कल कैसा होगा। जहां तक बलूचिस्तान की बात है, यहां अवाम की बड़ी तादाद ऐसे बेबस लोगों की है, जिन्हें बुनियादी तालीम तक हासिल नहीं। अफसोस की बात यह है कि ऐसे लोगों के सामने ऐसे हालात नहीं होते कि वे अपनी रवायत, अपनी नस्ली सलाहियत, अपनी तारीख, अपनी पहचान को समझ सकें, उन्हें जज्ब कर सकें। ऐसे लोगों की सहूलियत के लिए कुछ बलूचों ने मिलकर एक कमेटी बनाई है जो रिसर्च करके वैसी चीजों को इकट्ठा करती है, जिनकी जानकारी इन लोगों के लिए जरूरी है।

इस काम में शामिल मुरीद मर्री कहते हैं, ‘इस वक्त हम जिस वक्त से दो-चार हैं, हम लोगों पर जो हालात गुजर रहा है, उसमें हमारा मुकाबला उस दुश्मन से है, जो मक्कार है, जो मजहबी दहशतगर्दी पैदा करने में माहिर है। जो दुनिया को हर वक्त इसी नाम पर ब्लैकमेल करता है। जो इस वक्त चीन, अमेरिका और सऊदी अरब से असलहा लेकर अपने हमसाया मुल्क के अंदरूनी मामलात में मुदाखलत कर रहा है। वहां दहशतगर्दी फैला रहा है। अगर कोई कौम अपनी तारीख से महरूम हो जाए, तो उसकी ताकत खत्म हो जाती है और उसे शिकस्त देना आसान हो जाता है। पाकिस्तान की हुकूमत बलूचों के साथ ऐसा ही कर रही है। इसलिए जरूरी यह है कि हम अपनी नस्लों को उनकी रवायत, उनकी ताकत से वाबस्ता रखें। हम यही कर रहे हैं। हम सिर्फ भगत सिंह जैसों को नहीं जानते, हम माओत्सेतुंग को जानते हैं। नेल्सन मंडेला को जानते हैं। दुनिया के जितने भी हीरो हैं जिन्होंने संघर्ष किया, हम उन्हें जानते हैं। हम रिसर्च करके ऐसे लोगों के बारे में लिखते हैं जिन्हें हमारे विद्यार्थी पढ़ते हैं, सियासी कार्यकर्ता पढ़ते हैं।’’ अंतिम वर्ष के छात्र अकबल बलोच की राय जरूर कुछ जुदा है।

 वे कहते हैं, ‘‘जो भी कब्जागीर रहे हैं, वे बातों से वापस नहीं जाते। उन्हें ताकत पीछे हटने को मजबूर करती है।’’ तो क्या आप मिलिटेंसी के हामी हैं, यह पूछे जाने पर अकबल कहते हैं, ‘मैं नहीं समझता कि मिलिटेंसी गलत है। मिलिटेंसी और टेरेरिज्म में फर्क है और यह इस बात पर डिपेंड करता है कि मकसद पाक है या नापाक। अंग्रेज भगत सिंह को टेरेरिस्ट कह सकते हैं, हिंदुस्थान या इंकलाब के नुमाइंदे नहीं। सुभाष बोस क्या टेरेरिस्ट थे? अकेला इनसान जर्मनी चला जाता है और हिटलर की सेना के साथ वापस लौटता है। उस मौके पर एक अलग तारीख बनते-बनते रह गई। कौन जानता है, तब हिंदुस्थान की आजादी का सबसे बड़ा हीरो कौन होता? जिस दिन हमलावर ताकत के खिलाफ कोई कौम एक साथ मुकम्मल तरीके से खड़ी होती है तो रिवॉल्यूशन आता है। इसमें ताकत तो होती ही है। यह असलहा के साथ हो सकता है और असलहे के बिना भी। मेरी समझ है कि पाकिस्तान को ताकत की भाषा ही समझ आती है।’’ पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जिसका अपना कोई हीरो नहीं है। जब वे अपना हीरो मोहम्मद बिन कासिम को समझते हैं जिसने बार-बार इनपर फतह की, इन्हें मारा तो ऐसे में बखूबी अंदाज हो सकता है कि क्यों इन्हें तारीख और तहजीब का इल्म नहीं।

एक हौसलामंद, एक बाहिम्मत, एक बाकिरदार इनसान को बलूच अपना हीरो समझते हैं। चाहे वो दुनिया के किसी भी भी कोने में हो। जो इनसानी हुकूक और कौमी मफादात (हित) के लिए लड़ा हो, जिसने इसकी तहफ्फुज (सुरक्षा) के लिए तारीख अमर किए हों, वो बलूचिस्तान के लोगों के लिए उस्ताद हैं। यहां की अवाम इन उस्तादों के सबक को बाअदब सीने से लगाए रखेगी जब तक पाकिस्तान के इम्तियाजी (सौतेले) जुनून को खत्म कर कौमी आजादी का ख्वाब पूरा नहीं होता।
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