आजाद ने तुरंत खतरा भांपते हुए सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया और अंग्रेजों पर फायर कर दिया। लेकिन जब उनके पास आखिरी एक गोली बची तो उन्होंने उससे खुद के प्राण लेकर अपनी कथनी को सच साबित कर दिया था।
23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश भावरा में चंद्रशेखर तिवारी जिन्हें हम चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं उनका जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और मां जगरानी देवी थी. किशोर अवस्था में ही वह बड़े -बड़े सपनों को पूरा करने के लिए अपना घर छोड़कर मुंबई निकल पड़े थे. जहां उन्होंने बंदरगाह में जहाज की पेटिंग का काम किया था. उस वक्त मुंबई में रहते हुए चंद्रशेखर को फिर से वहीं सवाल परेशान करने लगा था कि अगर पेट पालना ही है तो क्या भावरा बुरा था.
चंद्रशेखर ने वहां से संस्कृत की शिक्षा लेने के लिए काशी की ओर कूच किया. इसके बाद चंद्रशेखर ने अपने घर के बारे में सोचना बंद कर दिया और देश के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया. उस समय देश में महात्म गांधी के नेतृत्व में चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन का बोल बाला था. उस समय महज 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर इस आंदोलन का हिस्सा बन गए. इसमें अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार भी किया और फिर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया. यहां पर उन्होंने मजिस्ट्रेट के सवालों के जो जवाब दिए उसको सुनकर मजिस्ट्रेट भी हिल गया था. दरअसल, जब आजाद को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसने पहले उनका नाम पूछा। जवाब में उन्होंने कहा 'आजाद'। मजिस्ट्रेट का दूसरा सवाल था पिता का नाम. आजाद बोले स्वतंत्रता. जब मजिस्ट्रेट ने तीसरा सवाल में उनके घर का पता पूछा तो उनका जवाब था जेलखाना. उनके इन जवाबों से मजिस्ट्रेट बुरी तरह से तिलमिला गया और उन्हें 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई. हर कोड़े की मार पर वह 'वंदे मातरम' और ‘महात्मा गांधी की जय' बोलते रहे. इसके बाद ही उनके नाम के आगे आजाद जोड़ दिया गया.
जब गांधी ने 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया तो आजाद काफी खफा हुए। इसके बाद उन्होंने देश को आजाद कराने की ठान ली थी। इसके बाद एक युवा क्रांतिकारी ने उन्हें 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन क्रांतिकारी दल' के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से परिचित करवाया। 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। आजाद बिस्मिल से बहुत प्रभावित हुए। उनके समर्पण और निष्ठा को देखते हुए बिस्मिल ने आजाद को अपनी संस्था का सक्रिय सदस्य बना लिया था। आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्रित करते थे। अधिकतर यह धन अंग्रेजी सरकार से लूट कर एकत्रित किया जाता था।
1925 में हुए काकोरी कांड ने अंग्रेजों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया था। इस मामले में अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद 'बिस्मिल' सहित कई अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई। इसके बाद चंद्रशेखर ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन संस्था का पुनर्गठन किया। भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के बाद वह भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी करीब आ गए। भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को दहशत में ला दिया था।
चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया। झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से बच्चों को पढ़ाने का भी काम करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।
फरवरी 1931 में पहली बार गणेश शंकर विद्यार्थी के कहने पर वह इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से मिलने आनंद भवन गए थे। लेकिन वहां पर नेहरू ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। इसके बाद वह गुस्से में वहां से एल्फ्रेड पार्क चले गए। इस वक्त उनके साथ सुखदेव भी थे। वह यहां पर अपनी आगामी रणनीति तैयार कर रहे थे, तभी किसी मुखबिर के कहने पर वहां पर अंग्रेजाें की एक टुकड़ी ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया।
आजाद ने तुरंत खतरा भांपते हुए सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया और अंग्रेजों पर फायर कर दिया। लेकिन जब उनके पास आखिरी एक गोली बची तो उन्होंने उससे खुद के प्राण लेकर अपनी कथनी को सच साबित कर दिया था। एल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को उनके दिए इस बलिदान को भारत कभी नहीं भुला पाएगा। आजादी के बाद इस पार्क का बाद में नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।
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