असम में बढ़ती मुस्लिम आबादी

Published by
WEB DESK

असम में रह रहे बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए (फाइल चित्र)


स्वाति शाकंभरि, सिल्चर से


बांग्लादेशी घुसपैठ के कारण असम में मुस्लिम आबादी में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। विधानसभा की कुल 126 में से 31 सीटें मुस्लिम-बहुल हो चुकी हैं। कांग्रेस की तुष्टीकरण राजनीति ने असम को ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहां से उसे निकालने के लिए अनेक कठोर निर्णय लेने की जरूरत है। अच्छी बात यह कि असम सरकार इस दिशा में कदम उठा रही

असम में जनसांख्यिकीय असंतुलन बहुत बड़ा मुद्दा है। यह न केवल जनसंख्या में सामुदायिक हिस्सेदारी तक सीमित है, बल्कि इस हिस्सेदारी में असंतुलन के कारण सामाजिक जीवन, राजनीतिक परिदृश्य और जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बदलाव दृष्टिगोचर है। इन परिवर्तनों को एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि 1952 के पहले आम चुनाव में 108 सीटों वाली असम विधानसभा में जहां कुल 15 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, वहीं 2021 में 126 सीटों वाली विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़कर 31 हो गई। उल्लेखनीय है कि 1962 तक मिजोरम, मेघालय और नागालैंड असम में ही शामिल थे। इन तीन राज्यों के अलग हो जाने अर्थात् लगभग आधे से अधिक भूभाग में कमी आने के बाद भी मुस्लिम विधायकों की संख्या राज्य में दुगुनी से भी ज्यादा हो गई। यह 1983 (33) के बाद का दूसरा सर्वोच्च आंकड़ा है। साल दर साल विधानसभा के भीतर हो रहे जनसांख्यिकीय असंतुलन को समझने के लिए पाठक इस रपट के साथ दी गई तालिका को देख सकते हैं।

विधानसभा के इस विचित्र होते चित्र को समझने के लिए असम में जनसंख्या के सामुदायिक रुझान पर भी एक दृष्टिपात आवश्यक है। इसमें हम पाते हैं कि 1951 में जहां असम में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत से कम थी, वहीं 2011 की जनगणना में यह 35 प्रतिशत से अधिक हो गई। अर्थात् 60 वर्ष के अंतराल में राज्य के अंदर मुस्लिम आबादी में 10 प्रतिशत से ज्यादा वृद्धि दर्ज हुई, वह भी तब जब राज्य का भूगोल छोटा होता चला गया। असम में 2021 में मुस्लिम आबादी का आंकड़ा अनुमानत: 40 प्रतिशत को पार कर चुका है। यदि दशकीय वृद्धि को देखें तो 1971 से 1991 के बीच राज्य की मुस्लिम आबादी में 03.87 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई थी। इससे पहले ऐसी बढ़ोतरी 1931-41 के बीच ही रही थी या फिर 2001-11 के बीच देखी गई। इन आंकड़ों को प्रकाशित तालिका से मिलाने पर भी परिणाम संगत मिलते हैं। जहां मुस्लिम आबादी में सबसे बड़ी उछाल 1971 के बाद हुई जनगणना में दर्ज हुई, वहीं विधानसभा में भी मुस्लिम विधायकों की संख्या में सबसे बड़ा उछाल इसी दौर में (1972 में 21 और 1978 में 27 विधायक) देखा गया इसके बाद से यह ग्राफ प्राय: ऊपर की ओर ही गया है। इतना ही नहीं, 1979 में कांग्रेस के मुस्लिम विधायक शेख चांद मोहम्मद को विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी भी मिली और वे सात साल इस पद पर रहे।

यहां ध्यान देने की बात यह है कि 1971 के दिसंबर में बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्ति मिली थी और इसके पहले तथा बाद में भी बांग्लादेश से लोगों का अबाध आगमन जारी रहा था। इन आने वालों में कुछ हिंदू शरणार्थी भी थे और बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठिए भी। इस तथ्य को और स्पष्टता से समझने के लिए असम के नक्शे पर जनसांख्यिकीय विभाजन को देखना होगा। दरअसल मुस्लिम आबादी में तेजी से बढ़त वाले जिले प्राय: बांग्लादेश के सीमावर्ती जिले हैं या सीमावर्ती जिलों से लगे हुए हैं। इन जिलों के जनप्रतिनिधत्व में जहां धीरे-धीरे मुस्लिम वर्चस्व बढ़ता चला गया है और एक अभेद्य किले के रूप में ये क्षेत्र खड़े होते गए हैं, वहीं ऊपरी असम ने अभी भी अपनी अक्षुण्णता बनाए रखी है। इसी कारण 1983 में रिकॉर्ड 33 और हाल के विधानसभा चुनाव में भी 31 मुस्लिम विधायकों का आंकड़ा होने के बावजूद ऊपरी असम में शायद ही कोई विधानसभा क्षेत्र मुस्लिम उम्मीदवार के कब्जे में आ पाया। इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार भी औसत से कम रही है। सीमावर्ती जिलों में मुस्लिम आबादी बढ़ने का एक दूसरा कारण कन्वर्जन भी मालूम पड़ता है। मुस्लिम-बहुल जिलों में चौधरी, लस्कर, भुईयां, मण्डल, मजूमदार, तालुकदार आदि उपनाम हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों में दिख जाएंगे लेकिन ऊपरी असम में हिंदू उपनामों वाले मुस्लिम शायद ही दिखाई
देते हैं।

बांग्लादेश से हुई घुसपैठ को गौर से देखने पर एक और महत्वपूर्ण बात ध्यान आती है कि असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) की कवायद में 24 मार्च, 1971 को नागरिकता निर्धारण की आधार तिथि माना गया है। कांग्रेस यदा-कदा दबी जुबान में ही सही, 2014 की मतदाता सूची को आधार बनाने की बात करती रही है। ये दोनों दशक ऐसे हैं जब राज्य में मुस्लिम जनसंख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। यही कारण है कि भाजपा यह मांग उठाती रही है कि 1951 की प्रथम एनआरसी में शामिल लोगों अथवा उनके वंशजों को ही नयी एनआरसी में भी भारतीय नागरिक माना जाए।

इस जनसांख्यिकीय बदलाव ने राजनीतिक मोर्चे के अलावा आर्थिक, सामाजिक ताने-बाने को भी भीषण रूप से प्रभावित किया है। मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में सांप्रदायिक उन्माद की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। ज्यादातर हिंसक घटनाएं पूजा-उत्सव या गोहत्या इत्यादि को लेकर होती हैं। इन क्षेत्रों में हिंदू या अन्य समुदायों के पूजास्थलों और सांस्कृतिक पहचान पर भी संकट के बादल छाए हैं। गुरु शंकरदेव की जन्मस्थली पर अतिक्रमण, ऐसी अन्य घटनाओं के जरिए जमीन जिहाद का मुद्दा हाल के चुनाव में खूब उछला था। चुनाव के बाद करीमगंज जिले में मुसलमानों द्वारा वन क्षेत्र के अतिक्रमण का मामला भी खूब गरमाया था। दरंग जिले में एक शिव मंदिर की 120 बीघा जमीन पर मुसलमानों द्वारा कब्जा भी इस दौरान चर्चा में आया। इन सभी स्थानों पर सरकार ने विशेष अभियान चलाकर भूमि को अतिक्रमणमुक्त कराया। गोवंश के अवैध व्यापार और तस्करी के मामले भी इन क्षेत्रों में देखने को मिले हैं। बीते दो माह में हजारों की संख्या में गोवंश को तस्करों के चंगुल से मुक्त किया गया है। मुस्लिम-बहुल जिलों और उनके आसपास इस समुदाय द्वारा सस्ता श्रम उपलब्ध कराने के कारण असंगठित रोजगारों पर इसका वर्चस्व बनता गया और अन्य समुदायों के समक्ष आर्थिक चुनौती बढ़ती गई है। संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव ने पहले से वहां निवासी लोगों के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां खड़ी की हैं। साथ ही जहां मुस्लिम समुदाय की बहुलता होती है, वहां वे लोग मुखर होकर स्थानीय लोगों के विपरीत रुख अपना लेते हैं। इससे राज्य में नए तरह के तनाव पैदा हो रहे हैं।

मुस्लिम समुदाय किस तरह समाज की मुख्यधारा से इतर अपनी डफली बजाता है, इसका जीवंत उदाहरण 1983 का असम विधानसभा चुनाव है। यह वह समय था जब विदेशी घुसपैठियों को भगाने के लिए असम में आंदोलन चरम पर था। असम आंदोलन के समर्थकों ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर रखी थी। तब 17 सीटों पर तो चुनाव हो ही नहीं पाया था। औसत मतदान 50 प्रतिशत से कम ही रहा लेकिन मुस्लिम बहुल या यू कहें कि मुस्लिम आबादी की निर्णायक संख्या वाले इलाकों में खूब मतदान हुआ और रिकॉर्ड 33 मुस्लिम विधायक चुने गए। इसका जवाब दो साल बाद हुए चुनाव में मिला जब मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 20 रह गई थी। राज्य में मुस्लिम मतों की गोलबंदी का एक अलग किस्म का ज्वार 2005 के बाद से दिखा जब आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रन्ट (एआईयूडीएफ) नाम की पार्टी अस्तित्व में आई। इसके नेता जब तब ‘दाढ़ी-लुंगी वालों की सरकार’ जैसे भड़काऊ नारे देकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास करते रहे हैं। यह अलग बात है कि 2006 के चुनाव में तरुण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस एआईयूडीएफ को सांप्रदायिक करार देती रही थी और 2021 में नेतृत्वहीन कांग्रेस उसी एआईयूडीएफ के साथ मिलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने में लग गई। इस वर्ष चुने गए 31 मुस्लिम विधायकों में 15 कांग्रेस के और 16 एआईयूडीएफ के हैं। दोनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा था। गौर करने वाली बात है कि एआईयूडीएफ के कुल 16 विधायक सदन में हैं और सभी मुस्लिम हैं। कांग्रेस के 29 में 15 विधायक मुस्लिम हैं। व्यापकता में देखें तो विपक्षी गठबंधन के 50 में से 31 अर्थात् 60 प्रतिशत से ज्यादा विधायक मुस्लिम हैं, जबकि सत्तापक्ष में यह प्रतिशत शून्य है। यही चित्र भविष्य के लिए चिंता की गहरी लकीरें खींच रहा है।

इन्हीं चिंताओं को लेकर मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्व सरमा ने स्पष्ट रुख अपनाया और सरकारी सेवाओं तथा सरकारी सुविधाओं को जनसंख्या नियंत्रण कानून के दायरे में लाने की बात उठाई। असम में यह कानून पहले से लागू है कि दो से अधिक बच्चे वाले नागरिक पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते। इन विषयों को लेकर मुख्यमंत्री ने मुस्लिम समाज के लगभग 150 नेताओं के साथ बैठक की। इस बैठक में मुस्लिम बुद्धिजीवी, लेखक, चिकित्सक, कलाकार, इतिहासविद् इत्यादि शामिल हुए। बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने मीडिया से कहा, ‘‘बैठक में इस बात पर सहमति बनी कि स्थानीय असमिया मुस्लिम समुदाय की विशिष्टताओं को संरक्षित करने के प्रयास किए जाएंगे। साथ ही इस बात पर भी सहमति बनी कि सीमावर्ती इलाकों में जनसंख्या विस्फोट विकास के समक्ष, खासकर आर्थिक मोर्चे पर बड़ी चुनौती दे रहा है।’’

इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्व सरमा असम की पहचान को बचाने के लिए अनेक कदम उठा रहे हैं। असम के जो लोग इस बात को समझ रहे हैं, वे उनका साथ दे रहे हैं और जो लोग एक विशेष एजेंडे के लिए कार्य कर रहे हैं, वे उनका विरोध कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि असम कीपहचान बनी रहेगी और इसी में भारत का भी हित छिपा है। 

Follow Us on Telegram 

Share
Leave a Comment

Recent News