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सहकारिता से आर्थिक-सामाजिक समृद्धि

by WEB DESK
Jul 19, 2021, 04:38 pm IST
in दिल्ली
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अरविंद मिश्र


सहकारिता ने देश के कई क्षेत्रों में सैकड़ों जिंदगियों को संवारने का काम बखूबी किया है। यह सहकारिता की ही खूबी है कि कई लघु इकाइयां बढ़ते-बढ़ते अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों से टक्कर ले रही हैं। परंतु सहकार के क्षेत्र में कुछ खामियां, विसंगतियां भी हैं। इन्हें ठीक करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी। मोदी सरकार ने वह इच्छाशक्ति दिखाई है स्वंतत्र सहकारिता मंत्रालय का गठन करके। इससे भविष्य में बेहतरी के संकेत मिलते हैं

बिना संस्कार नहीं सहकार, बिना सहकार नहीं उद्धार। यह पंक्तियां मानवीय जीवन में सहकारिता के महत्व को रेखांकित करने के लिए काफी हैं। दुग्ध क्रांति ही नहीं कृषि, मत्स्य पालन, पर्यटन, बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार  समेत अनेक क्षेत्रों में सहकारिता ने आम भारतीय के जीवन को स्पंदित किया है। शहरी और ग्रामीण सहकारी बैंकों से लेकर इफको और कृभको जैसी अनेक सहकारी संस्थाएं लोक जीवन का अहम हिस्सा बनकर उभरी हैं। ग्रामीण इलाकों में तो कृषि ऋण उपलब्ध कराने के मामले में सहकारी बैंकों ने उस तबके तक अपनी पहुंच स्थापित की है जो अर्थव्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़े हैं। दूध और चीनी ही नहीं शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ ही विनिर्माण गतिविधियों में भी सहकारी समितियों पर हमारी निर्भरता बढ़ी है। सहकारिता के उजाले को देख यह कहना न्यासगंत होगा कि सहकारी गतिविधियां आर्थिक और सामाजिक समरसता की स्थापना का मजबूत आधार हैं। जाति, क्षेत्र और वर्ग आधारित अंतर को पाटने में सहकारी समितियों ने अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की हैं।

भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 तक देश में 8 लाख 54 हजार 355 सहकारी समितियां थी। किसानों को उर्वरक उपलब्ध कराने में सहकारी समितियों की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत के स्तर को पार कर चुकी चुकी है। इसी तरह किसान क्रेडिट कार्ड की 50 प्रतिशत उपलब्धता सहकारी संस्थाओं द्वारा की गई है। सहकारिता से जुड़े विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान में सहकारी समितियों में सदस्यों की संख्या लगभग 40 करोड़ है। अर्थात देश का हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी सहकारिता से संबद्ध है। शहरों में तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही सहकारिताएं ग्रामीण भारत के 98 प्रतिशत हिस्से को कार्यक्षेत्र में शामिल कर चुकी हैं।

ग्रामीण भारत में सहकारी समितियों का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से किसानों को उन्नत बीज,  उर्वरक, कीटनाशक और रियायती दर पर ऋण उपलब्ध कराना है। इसी तरह सहकारिताएं कृषि उत्पादों का उचित मूल्य मुहैया कराने के लिए प्रभावी विपणन तंत्र के रूप में कार्य कर रही हैं।

सहकार सिर्फ आर्थिक उद्यम नहीं
सहकार भारती के संरक्षक जितेंद्र मेहता के अनुसार हमारी जिंदगी को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले 55 क्षेत्रों में सहकारी समितियां कार्य कर रही हैं। वह कहते हैं कि सहकारिताओं को सिर्फ आर्थिक उद्यम के रूप में नहीं देखा जा सकता है। कई स्थानों विशेषकर ग्रामीण इलाकों में सहकारिता की बुनियाद पर स्वास्थ्य क्षेत्र की आधारभूत संरचना खड़ी हो रही है।

सहकारिता के धवल उजाले को कुछ प्रमुख उदाहरणों से समझा जा सकता है। दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में अमूल के सहकारी प्रयासों की चर्चा आज विश्व स्तर पर होती है। सहकारिता के बदले स्वरूप को राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) द्वारा संचालित आयुष्मान सहकार योजना में भी देखा जा सकता है। योजना के अंतर्गत ग्रामीण इलाकों में अस्पताल खोलने के लिए एनसीडीसी द्वारा सस्ती दर पर कर्ज मुहैया कराया जा रहा है। सहकारी गतिविधियों पर आधारित उद्यम अब राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं। देश में एक से अधिक राज्यों में कार्य कर रही बहु राज्यीय सहकारी समितियों की संख्या 1,435 हैं।

सहकारी भारती के प्रयास हुए फलीभूत
सहकारिता के इतने व्यापक क्षेत्र के लिए लंबे समय से प्रशासनिक नियमन और सक्षम नीतिगत ढांचे की मांग हो रही थी। देश में सहकारिता क्षेत्र की सबसे बड़ी संस्था सहकार भारती ने पिछले वर्ष राष्ट्रीय अधिवेशन में सहकारिता मंत्रालय के गठन से जुड़ी मांग पर एक प्रस्ताव भी पारित किया था। ऐसे में सहकारिता मंत्रालय का गठन सहकारिता से जुड़ी करोड़ों जिंदगियों के लिए सुखद संदेश है। सहकारिता मंत्रालय की आवश्यकता को समझने से पहले हमें सहकारिता आंदोलन, सहकार गतिविधियों की क्षमता और कमजोरियों का विश्लेषण करना होगा। सहकारिता मानव जीवन के उत्थान के लिए नैसर्गिक रूप से व्यवहार में लाई गई वह कार्य संस्कृति है। सबकी भागीदारी और सह स्वामित्व किसी भी सहकारिता की आत्मा होती है। सहकार आधारित व्यवस्था में अभावग्रस्त और शोषित वर्ग को स्वामित्व के साथ आर्थिक प्रकल्प संचालित करने की सुविधा मिलती है।

सहकारिता क्षेत्र की चुनौतियां
देश में 25 मार्च 1904 को सहकारिता का जो पौधा लगाया गया था, वह अब वट वृक्ष का रूप ले चुका है। सहकारी गतिविधियों की विकास यात्रा का अध्ययन करने से पता चलता है कि पूंजी की अनुपलब्धता, पेशेवर कार्यबल और नीतियों में एकरूपता का अभाव इस क्षेत्र की बड़ी कमजोरी है। पारदर्शिता और नेतृत्व की गुणवत्ता किसी भी सहकारी समिति के पालन-पोषण के लिए अनिवार्य घटक होते हैं। सहकारिताओं में अच्छे नेतृत्व की भूमिका वास्तविक सहकारों को एकजुट करने और उनकी अपेक्षाओं के समयबद्ध समाधान से जुड़ी हैं। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि किसी भी सहकारिता में नेतृत्व विकास का कार्य सिर्फ मौके के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। ऐसे में सहकारिताओं को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाते हुए गुणवत्तापूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक कौशल हासिल करना होगा। यह कार्य सहकारी संस्थानों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता दिए बगैर संभव नहीं है। आज अनेकों सहकारिताएं कार्यविधि तथा प्रोन्नति संबंधी जटिल नीतियों और विसंगतियों से जूझ रही हैं। स्पष्ट है, यह सब सरकारी निगरानी की अनदेखी का ही परिणाम है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे कॉपोर्रेट शक्ल ले चुकीं कुछ सहकारी संस्थाओं में तो दशकों से अदल-बदल कर कुछ ही चेहरे निर्वाचित और मनोनीत होते हैं। राज्यों में सहकारिता चुनाव में हिंसा और धन-बल का प्रयोग आम बात हो गई है। कई राज्यों में राज्य सहकारी बैंक और संस्थाएं तो सिर्फ नेताओं के राजनीतिक पुनर्वास समाप्ति का जरिया बन गई हैं।

ऐसे में सर्वप्रथम सहकारिता मंत्रालय को सहकारी संस्थाओं की कार्यकुशलता बढ़ाने की राह पर आगे बढ़ना होगा। सहकार भारती के संस्थापक सदस्य एवं पूर्व अध्यक्ष श्री सतीश मराठे के मुताबिक सहकारिता को लेकर अंग्रेजों के बनाए कानून का मुख्य उद्देश्य सिर्फ नियमन और नियंत्रण रहा है। यदि कानून का उद्देश्य वृद्धि एवं विकास पर हो तो सहकारिता के जरिए बहुत बड़ी क्रांति आ गई होती। अब तक केंद्र में सहकारिता विभाग कृषि मंत्रालय के अधीन था। कृषि मंत्रालय चूंकि स्वंय में एक बड़ा मंत्रालय है। इसलिए सहकारिता क्षेत्र में उस रूप में ध्यान नहीं दिया जा सका, जिसकी उम्मीद वास्तविक सहकारों को थी।

सहकारिता को प्रतिस्पर्धी बनाने के प्रभावी प्रयास
सहकारिता के क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए एक प्रभावी प्रयास पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में हुआ। 2002 में मल्टी स्टेट कोआॅपरेटिव एक्ट के जरिए सहकारी संस्था के एक से अधिक राज्यों में परिचालन गतिविधियों से जुड़ा कानून बनाया गया। इसके बाद 2011 में संविधान के 97वें संशोधन के जरिए केंद्र और राज्यों में सहकारी गतिविधियों को एकरुपता प्रदान करने की कोशिश की गई। जाहिर अब इस क्षेत्र की भविष्य की आवश्यकताओं को देखते हुए नए कानून और पॉलिसी फ्रेमवर्क की जरुरत पड़ेगी। केंद्र को एक ऐसा सहकारिता कानून बनाना होगा, जो इस क्षेत्र में केंद्र और राज्यों की नीतियों में एकरुपता लेकर आए।

वैसे भी, सहकारिता के बढ़ते कदमों को राज्यों के अलग-अलग कानून और पेचीदगियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। मोदी सरकार सहकारी गतिविधियों को परिचालन स्वतंत्रता दिए जाने की अपनी प्रतिबद्धता पर आगे बढ़ती नजर आ रही है। पिछले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने सहकारिताओं में भी ईज आॅफ डुइंग के मानक लागू करने की घोषणा की थी। सहकारिता मंत्रालय के गठन का विरोध कर रहे वामदल के कुछ नेता इसे संघवाद पर कथित हमला तो करार दे रहे हैं, लेकिन कानून और नियमन के बिना सहकारिता की सेहत कैसे सुधरेंगी इस पर खामोश हैं।

केंद्र सरकार द्वारा इससे पहले भी सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए कदम उठाए गए हैं। गत वर्ष ही मल्टी स्टेट कोआॅपरेटिव बैंक को रिजर्ब बैंक की निगरानी के दायरे में लाया गया है। इससे 1540 सहकारी बैंकों के साढ़े आठ करोड़ से अधिक खाताधारकों की मेहनत की कमाई सुरक्षित हुई है। मल्टी स्टेट को-आॅपरेटिव सोसाइटीज एक्ट में संशोधन कर खुले बाजार से आर्थिक संसाधन जुटाने को स्वीकृति प्रदान की गई। इससे बहुराज्यीय सहकारी समितियों की दक्षता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहकारिता आंदोलन को बेहद करीब से देखा है। पीएम को सार्वजनिक जीवन में सबसे अधिक प्रेरित करने वाले श्री लक्ष्मणराव इनामदार देश में सहकारिता आंदोलन के अग्रणी नेता थे। मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने जिस गुजरात मॉडल को विकसित किया, उसमें सहकारी संस्थाओं की बड़ी भूमिका रही। दुर्भाग्य से सहकारिता की गतिविधियां महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक के अलावा देश के अन्य हिस्सों में उस रूप में सफल नहीं हो सकी, जिस स्तर पर होनी चाहिए। राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और गैर जरुरी सियासी दखलअंदाजी इसकी बड़ी वजह है। ऐसे में पीएम मोदी द्वारा सहकारिता मंत्रालय का जिम्मा गृहमंत्री अमित शाह को सौंपना, इस क्षेत्र में व्यापक सुधारों का भावी संकेत है। यही वजह है कि सहकारी संस्थाओं को अपनी जागिर और मठ समझ बैठे मठाधीशों के बीच मोदी के नए मंत्रिमंडल के गठन से अधिक चर्चा अमित शाह के सहकारिता मंत्री बनने की है। उम्मीद है कि देश का मौजूदा नेतृत्व सहकारिता के क्षेत्र में सुधारों का नया दौर लेकर आएगा। एक ऐसा दौर जहां सहकारिताएं प्रतिबद्धता, पारदर्शिता और परस्पर सहकार के मार्ग पर चलती नजर आएंगी। ध्यान रहे, यह उपलब्धि सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं अर्जित की जा सकती, क्योंकि सहकारिता का क्षेत्र सीधे सहकार आधारित मानवीय संस्कारों से उर्वर होता है। ल्ल

सहकारिता क्षेत्र की मांग

 सहकारिता कानून में बदलाव किए जाएं। सहकारी संस्थाओं को प्रतिस्पर्धी बनाना होगा।
केंद्र और राज्यों में सहकारिता नीति को एकरूपता प्रदान की जाए।
 ष्ट्रीय सहकारिता नीति जल्द से जल्द बने।
 सहकारी संस्थाओं को पूंजी जुटाने में आसानी हो, इसके लिए उदार नीतियां बनें
 सहकारी क्षेत्र के चुनाव के लिए अलग निर्वाचन आयोग की संभावना पर विचार हो
 कोआॅपरेटिव पंजीयक को पर्याप्त अधिकार दिए जाएं

वामदलों के पेट में दर्द क्यों!
आर्थिक सुधार की बयार अब सहकारिता के क्षेत्र में बहने को तैयार है। हर सकारात्मक बदलाव के विरोध की राह पर चलने वाले वामदलों को यह आखिर कैसे बर्दाश्त होगा। दरअसल केरल और महाराष्ट्र में सहकारी समितियों में सबसे अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप है। केरल में सहकारी बैंकों पर लंबे समय तक सत्ताधारी वामदलों का नियंत्रण रहा है। वामदल और कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दलों को यह पता है कि सहकारी संस्थाओं में वास्तविक सहकारों की भागीदारी बढ़ने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी सशक्त होंगे। वामदलों को आशंका है कि इसका लाभ भाजपा को हो सकता है।

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