अनुराग पुनेठा
संध्या जैन की किताब ‘बलूचिस्तान – इन द क्रासहेयर आॅफ हिस्ट्री’ एक शानदार पुस्तक है। इसमें लेखिका ने बलूचियों के बलूचिस्तान में आगमन से उन्हें मिले छलावे और आज के तक संघर्ष तक को दर्शाया है। बलूचों के इतिहास और संघर्ष को अगर समझना हो, तो यह पुस्तक एक आधार बिंदु हो सकती है
बलूचिस्तान पाकिस्तान का ना सिर्फ सबसे बड़ा प्रांत है, बल्कि सबसे बड़ा सिरदर्द भी। अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे बलूची पाकिस्तान के 74 साल के घनघोर दमन के बाद भी लड़ रहे हैं। हाल के सालों में आम भारतीय का बलूचिस्तान पर ध्यान तब गया, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से बलूचियों के दर्द का जिÞक्र किया। ईरान, अफगानिस्तान और फारस की खाड़ी के त्रिकोण पर स्थित बलूचिस्तान का सामरिक महत्व बहुत अधिक है। यही कारण है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड को जब मध्यपूर्व और अरब देशों में अपने तेल के हितों की रक्षा के लिए एक जगह चाहिए थी, जिसके जरिये न सिर्फ वह अपने हितों की रक्षा कर सके, बल्कि सोवियत संघ को रोका जा सके, तब इंग्लैड के लिए यह इलाका बहुत महत्वपूर्ण रहा। उनके लिए सोवियत संघ को रोकने के लिए दो देश महत्वपूर्ण थे, अफगानिस्तान और ईरान। यही कारण था कि वे अविभाजित भारत के पश्चिम उत्तर में स्थित बलूचिस्तान में अपने बेहतरीन अफसर भेजते रहे। पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल भी उसमें शामिल थे। और, जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड इतना कमजोर हो गया कि वह भारत को संभालने की स्थिति में नही रहा था, तो जल्दबाजी में भारत के विभाजन का फैसला हुआ।
कलात के खान से छलावा
12 मई, 1947 को चर्चिल वॉर रूम के मुख्य कर्ता-धर्ता और रॉयल मरीन्स के कमांडेट जनरल लैसली हौलिस ने प्रधानमंत्री एटली को लिखा कि भारत छोड़ने के वक्त इंग्लैड को कराची और बलूचिस्तान में कुछ एअरबेस को संभाल कर रखना चाहिए। इसी सलाह के चलते कलात के खान अहमद यार खान के साथ छलावा किया गया, उनसे झूठ बोला गया और जिन्ना को ही उनका सलाहकार बना दिया गया, उनसे वादा लिया गया कि वे पाकिस्तान का समर्थन करें, और बाद में बलूचिस्तान को आजाद कर दिया जाएगा। अहमद खान भरोसे में आ गये। उनसे अंग्रेजों ने वादा किया था कि बलूचिस्तान स्वतंत्र हो सकता है, लेकिन जिन्ना ने धोखा किया। वादा किया गया कि पाकिस्तान के बन जाने के बाद बलूचिस्तान को आजाद करा दिया जायेगा। कलात के खान को भरोसा था कि जिन्ना अपना वादा निभाएंगे, लेकिन उन्हें और बलूचियों को धोखा मिला और जेल में डाल दिया गया।
बलूचिस्तान में स्वतंत्र राष्ट्र होने के सभी गुण
बलूचिस्तान भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर सही मायनों में एक स्वतंत्र राष्ट्र की अवधारणा को पूरा करता है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार अर्नेस्ट रेनन ने राष्ट्र की परिभाषा को व्याख्यायित करते हुए कहा था कि किसी भी देश को दो चीजें बांधती और बनाती हैं, पहली आत्मा और दूसरा आध्यात्मिक सिद्धांत। पूर्व और वर्तमान की वह डोर, जिससे वहां के लोग जुड़ाव महसूस कर सकें। यादों का वह अनमोल खजाना, जिसे वर्तमान पीढ़ी बड़े चाव से संजो कर रखना चाहे, साथ ही साथ जीने की इच्छा, सारे पंथ और समुदायों का एक पूर्वज होने का विश्वास। बलूचियों पर यह बात शत-प्रतिशत लागू होती है। बलूची अपनी गौरवशाली परंपरा पर नाज करते हैं और पूर्वजों की अदम्य बहादुरी के किस्से आने वाली पीढ़ियों को सुनाते हैं। ये सब कारण बलूचिस्तान को एक स्वतंत्र देश बनने का हक भी देते हैं। यही कारण है कि पाकिस्तान के धोखे और दमन के वावजूद बलूची अपनी पहचान को बचाने के लिए जूझ रहे हैं। भले ही न्यूयॉर्क, वाशिंगटन या लंदन में बलूचियों की बात ना सुनाई दे, क्योंकि अमेरिका के वृहद सामरिक खेल में बलूचियों की आजादी बहुत छोटा मसला है। इसका इलाका विशाल, बेहद खूबसूरत और प्राकृतिक संपदा से भरा है, यही कारण है कि इस इलाके में अरबों-खरबों का निवेश करने से चीन पीछे नहीं हट रहा। बलूची बंदूक उठाए हुए हैं, सीपीईसी के सफल संचालन पर सवाल है, लेकिन चीन और पाकिस्तान पीछे नहीं हट रहे। अमेरिका का भी सामरिक हित है। यहां के कुछ इलाकों में हवाईअड्डों से वह अफगानिस्तान और ईरान पर नजर रखता रहा है।
भले ही तेजी से बदलते हुए भू-राजनैतिक समीकरणों में बलूचिस्तान के दर्द को भुला दिया गया, लेकिन बलूची आज भी अपने साथ हुए धोखे से आहत हैं, आज भी यहां के लोग पाकिस्तान से आजादी की मांग कर रहे हैं, पाकिस्तान के सैनिकों का दमन झेलते हैं लेकिन सुनता कोई नहीं है। बलूच पहचान, बलूचियों का मान और अंत तक लड़ने के किस्से सुनाई तो देते हैं, लेकिन वैश्विक समीकरणों के मकड़जाल में उलझ-से जाते हैं।
बलूचियों का मूल
सुरक्षा, सामरिक और राजनैतिक समीकरणों पर लिखती और बोलती रहीं संध्या जैन की किताब ‘बलूचिस्तान-इन द क्रासहेयर आॅफ हिस्ट्री’ एक शानदार किताब है। इस किताब में बलूचिस्तान के संपूर्ण इतिहास और वर्तमान परिस्थितियों को समेटा गया है। किताब इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि बलूचियों की जातिगत पेचीदगियों और भाषाई भिन्नता को समझा जा सके। बलूचियों का मूल निवास सीरिया में था और उनका मूल सेमेटिक अफ्रÞो-एशियाटिक है। बलूचियों के पूर्वजों ने अलिप्पो से पलायन कर वर्तमान के दक्षिणी बलूचिस्तान (जो एक समय में ईरान के कामरान प्रांत का हिस्सा था, और उत्तर-पूर्वी हिस्सा सिस्तान का अंग) में अपना डेरा जमाया। बलूची अपने को जातिगत तौर पर कुर्द मानते हैं, जो ईसा पूर्व 4 से 7 में पलायन करते हुए वर्तमान बलूचिस्तान में आकर बसे। इनके पलायन का मुख्य कारण जानवरों के लिए नये चारागाह की तलाश और कबीलाई झगड़ों से निजात पाना था। कुर्दों ने इराक, ईरान और बलूचिस्तान तक पलायन किया। किताब में संध्या जैन बताती हैं कि बलूचिस्तान में मानव सभ्यता होने के निशान नवपाषाण युग में ईसा से तकरीबन 7000 साल पहले तक मिलते हैं। बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव भी माना जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे, हालांकि इसके प्रमाण कम मिलते हैं। पर बलूचियों और कुर्दों के बीच भाषा का सामंजस्य मिलता है।
अपने पलायन काल के दौरान बलूची कई संस्कृतियों के संपर्क में आये, जिसमें फारसी, उर्दू, द्रविड़ और पश्तो भाषा रही। आज बलूचिस्तान में दो भाषाई अंतर हैं, पहला बलूची और दूसरा ब्रहूई, जिसे मूलत: द्रविड़यन माना जाता है। हालांकि बोलियों में भिन्नता देखने को मिलती है, जिसमें मुख्यत पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी बलूच बोली शामिल है, जिसमें कलाती, पंजगुरी, सरहदी लशारी, और केंची शामिल हैं।
बलूचियों का संघर्ष
सांस्कृतिक धरोहर के वाबजूद बलूचिस्तान आज सही हक को मुहताज हैं। किताब में बलूचियों के संघर्ष को विस्तार से बताया गया है। 1947 के बाद से बलूचियों के पाकिस्तान के खिलाफ हथियार उठाने के क्रम में तब के पाकिस्तानी हुक्मरानों और बलूच सरदारों का सिलसिलेवार वर्णन प्रशंसनीय है। 1948, 1958, और 1962-69, 1973-78 और फिर 2004 के सशत्र संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। किताब में जनरल जियाउल हक के शासन काल में मिली राहत और परवेज मुशर्रफ के काल में हुई हत्याओं का जिक्र है बल्कि आज के समय के सबसे मजबूत और भरोसेमंद बलूच संगठन बलूच लिबरेशन आर्मी के उदय का सिलसिलेवार ब्योरा भी है।
अमेरिका की दोहरी नीति
किताब यह बताने इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिका की दोहरी नीति ने बलूचियों की दिक्कत को किस तरह बढ़ाया है। जब सुई गैस पाइपलाइन पर हुए हमले के बाद बीएलए और पाकिस्तानी फौज के महीनों संघर्ष के बाद पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत रॉयन क्राकर ने बलूच नेताओं से अपने घर में मुलाकात की, इसने पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान में डर बैठा दिया कि अमेरिका बलूचिस्तान को आजाद कराने में मदद कर सकता है। लेकिन अमेरिका उसके बाद पीछे हट गया। किताब में संध्या जैन बलूचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का विस्तृत ब्योरा भी देती हैं। 1974 से 2000 तक बलूचिस्तान को पाकिस्तान की जीडीपी में से 4.1 प्रतिशत हिस्सा मिलता रहा। 2009 तक बलूचिस्तान की 52 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। बलूचियों को किस तरह उनके इलाके में मिली कुदरती देन से दूर रखा गया, उसका उदाहरण सुई गैस प्रोजेक्ट है। 1952 में सुई गैस खोजी गयी, पाकिस्तान ने दो कंपनी बनार्इं, सबसे बड़ा हिस्सा पाकिस्तान की सरकार का रहा, बलूचियों को कुछ नहीं मिला, आज भी शीर्ष और मध्यम प्रबंधन में गैर बलूची हैं, स्थानीय लोगों को सिर्फ मजदूरी के रोजगार मिलता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)
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