हितेश शंकर
ये जो बांटने की राजनीति है, उसके पीछे कन्वर्जन का एक बड़ा तंत्र है। मत भूलिए कि भारत की मूल पहचान को बदलने का, समाज को उसकी मूल आस्थाओं से काट कट्टरपंथी बनाने का खेल लगातार चला है। और जब समाज यह कहता है कि हम एक हैं, तो दशकों पुराना, जमा-जमाया खेल बिगड़ता लगता है क्योंकि भारत को बांटने के लिए भारी मेहनत की गई है
गाजियाबाद में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में सरसंघचालक जी के उद्बोधन पर विवाद खड़ा करने की कोशिश हुई, यह हमने हाल में देखा है। आइए, देखते हैं उद्बोधन में क्या कहा गया –
● हिंदू मुसलमान एकता, ये शब्द ही बड़ा भ्रामक है। ये दो हैं ही नहीं तो एकता की बात क्या? इनको जोड़ना क्या, ये तो जुड़े हुए हैं। और, जब ये मानने लगते हैं कि हम जुड़े हुए नहीं हैं, तब दोनों संकट में पड़ जाते हैं। बात यही हुई है। हम लोग अलग नहीं हैं क्योंकि हमारे देश में ये परंपरा नहीं है कि आप की पूजा पद्धति अलग है, इसलिए आप अलग है। हम लोग एक हैं और हमारी एकता का आधार हमारी मातृभूमि है।
● हम समान पूर्वजों के वंशज हैं, ये विज्ञान से भी सिद्ध हो चुका है। 40,000 साल पूर्व से हम भारत के सब लोगों का डीएनए समान है।
● हिंदुस्तान एक राष्ट्र है, यहां हम सब एक हैं। इतिहास भी होंगे लेकिन पूर्वज सबके समान हैं।
● लोगों को कन्वर्ट करने के लिए तैयारी करने का समय मिले, इसलिए लोगों को बातों में उलझा कर रखना, यह भी एक अर्थ होता है बातचीत का।
● कट्टरपंथी आते गए और उलटा चक्का घुमाते गए। ऐसे ही खिलाफत आंदोलन के समय हुआ। उसके कारण पाकिस्तान बना। स्वतंत्रता के बाद भी राजनीति के स्तर पर आपको ये बताया जाता है कि हम अलग हैं, तुम अलग हो।
● हम डेमोक्रेसी हैं, कोई हिंदू वर्चस्व की बात नहीं कर सकता, कोई मुस्लिम वर्चस्व की बात नहीं कर सकता। भारत के वर्चस्व की बात सबको करनी चाहिए।
● हम कहते हैं हिंदू राष्ट्र, इसका मतलब तिलक लगाने वाला, पूजा करने वाला नहीं है। जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, जो अपने पूर्वजों का विरासतदार है, संस्कृति का विरासतदार है, वो हिंदू है।
यह पहली बार नहीं है जब हिंदू-मुस्लिम की वास्तविक एकता पर और विशेषकर सरसंघचालक जी के उद्बोधन की अधकचरी व्याख्या बांचते बौद्धिक प्रपंचकों ने दिखाया हो कि वे यह करतब करने में कितने पारंगत हैं। परंतु कोई समाज तंद्रा में भी हो तो ऐसी घटनाएं उसे बौद्धिक रूप से झकझोर कर जगाने का काम
करती हैं।
दशकों से हम देखते आए हैं कि जब एकता का विमर्श होता है, तो बातें तो बहुत होती हैं परंतु एकता के वास्तविक प्रयास नहीं किए जाते।
वस्तुत: भारत के अंतर्भूत एक्य को जैसे ही कोई रेखांकित करता है, तो विभाजक रेखाओं की राजनीति करने वाले लोगों को तिलमिलाहट होती है। ऐसे में मीडिया के कुछ 'एलीट क्लब' राजनीतिक आकाओं के लिए खुराक-पानी उपलब्ध कराने का काम करते हैं। ऐसे ही वर्गतन्त्र से सरसंघचालक जी के उद्बोधन पर विवादित कोण से खबर चली। वास्तव में जिन्होंने उस भाषण को सुना, उन्हें इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। अगर आप डिस्कवरी आॅफ इंडिया की काल्पनिक दुनिया में नहीं डूबे हैं और यह नहीं मानते कि 1947 में भारत नाम के एक देश का निर्माण किया गया तो आप अपनी जड़ों को पहचानते हैं। अपनी जड़ों से जुड़े भारतीय यह मानने वाले हैं कि यह देश केवल जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि एक सनातन संस्कृति है जो सदियों से यहां पल्लवित हुई है।
अरब जगत में भी हिन्दू कहे जाने वाले भारतीय मुसलमान भी यह बात जानते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं। जाहिर है, उन्हें हिन्दू पुकारने वाले अरब यह जानते हैं कि भारतीय मुसलमानों का अरबी नस्ल से कुछ लेना-देना नहीं है।
हम भारतीयों के लिए बात हिन्दू-मुसलमान से आगे की है- हमारा भूत एक था और हमारा भविष्य भी एक है!
यही महत्वपूर्ण बात है।
'हमारा भविष्य एक हो सकता है', भारतीय सामाजिक एकता की यह गूंज ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति के पैरोकारों को डराती है । इसलिए ऐसे मौकों पर यह खलबली मचती है।
यह तथ्य है कि हमारे इतिहास को कुछ कथित इतिहासकारों ने राजनीतिक मंशाओं से विकृत करने का काम किया है। अंग्रेजों के बोए और नेहरूवाद के पोसे झूठ ऊपरी तौर पर एकता की गुलाबी बातें करते हैं परंतु शिक्षा से लेकर व्यवस्था तक समाज में अलगाव की दरारें लगातार गहरी करते हैं। यह चुभती किन्तु सच्ची बात है। उदाहरण के लिए-
अगड़ा-पिछड़ा का अंतर दूर करने के प्रयासों की बजाय आर्य-द्रविड़ संघर्ष भारतीयों की पृथक-पृथक पहचान की काल्पनिक पट्टी अंग्रेजों और उनके डिस्कवरी आॅफ इंडिया वाले पिट्ठुओं ने ही तो हमें पढ़ाई! इसमें सच कहाँ था! भारतीयों को लगातार पढ़ाया गया कि आर्य बाहर से आए थे। ध्यान दीजिए, दुनिया में अन्य कोई देश यह नहीं पढ़ाता कि आर्य हमारे यहां से भारत गए थे। क्या यह उलटबांसी नहीं है! क्या ऐसी कोई चीज होती है कि एक जगह से चली ही नहीं और दूसरी जगह पहुंच भी गई? जब यह और ऐसे ही अन्य मौलिक प्रश्न उठते हैं तो तथाकथित इतिहासकार, नेहरूवाद के नगाड़ा वादक बगलें झांकने लगते हैं। विभाजक रेखाओं पर पलती राजनीति फुस्स हो जाती है।
औपनिवेशिक काल में पश्चिमी विचारकों ने यह सिद्धांत गढ़ा कि आर्य मध्य एशिया से आए और उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता को तहस-नहस कर भारत पर कब्जा जमा लिया। अब हिसार के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के एक स्थल राखीगढ़ी में मिले 2500 ईसा पूर्व के कंकालों के डीएनए परीक्षण से यह साबित हुआ है कि आर्य मूलत: भारत के ही निवासी थे और वैदिक सभ्यता की रचना दक्षिण एशिया के स्थानीय निवासियों ने ही की।
भारतीयों की अनूठी सांस्कृतिक विरासत और साझा पहचान को इन्हीं वैज्ञानिक संदर्भों में देखना चाहिए। इतिहास की मनमानी व्याख्याओं से परे, जो वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध इतिहास है। जिन्हें इस पर विवाद लगता है, क्या वे कोई ऐसी डीएनए रिपोर्ट बता सकते हैं जिनसे सिद्ध होता हो कि इस देश की अनुसूचित जाति या जनजाति का डीएनए उन लोगों से अलग है जो सवर्ण कहे जाते हैं? जिन्हें मुस्लिम कहते हैं, जिन्हें आक्रांताओं ने मुस्लिम बनाया, उनका डीएनए और हिंदुओं का डीएनए क्या अलग है? जिन्हें आज भी झारखंड में, केरल में, पूर्वोत्तर में ईसाई मिशनरियां अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रही हैं, क्या यह कन्वर्जन की प्रक्रिया उनका डीएनए बदल सकती है?
ये जो बांटने की राजनीति है, उसके पीछे कन्वर्जन का एक बड़ा तंत्र है। मत भूलिए कि भारत की मूल पहचान को बदलने का, समाज को उसकी मूल आस्थाओं से काट कट्टरपंथी बनाने का खेल लगातार चला है। और जब समाज यह कहता है कि हम एक हैं, तो दशकों पुराना, जमा-जमाया खेल बिगड़ता लगता है क्योंकि भारत को बांटने के लिए भारी मेहनत की गई है।
परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक नक्शे बदलना, सैन्य पदाघात की घटनाएं अखंड सांस्कृतिक प्रवाह धारा के लिए किंचित बाधा भले बनें स्थायी अवरोध नहीं होतीं।
हजारों वर्ष की पोषित संस्कृति जब अंगड़ाई लेती है तो एक घटना दशकों में हुई छेड़छाड़ को पलटकर पुन: प्रवाह ठीक कर देती है।
हमारा डीएनए नहीं बदला है, वही पराक्रम है, वही शौर्य है, वही गर्व है, वही पुरखे हैं, और, हमें उसी चेतना की आवश्यकता है। इस उद्बोधन को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। किसी के प्रति वैमनस्य नहीं है। परंतु जिसे दूसरा वर्ग कहा जाता है, जिसकी अलग पहचान की बात की जाती है, उसके मन में जो जहर घोला जाता है, उस जहर की काट के लिए यह बताया जाना जरूरी है कि हम एक हैं।
उज्जैन स्थित मुस्लिम चिंतक गुलरेज शेख कहते हैं कि हम बाबर के नहीं, राम के वंशज हैं। हम हिंदुस्तानी मुसलमान हैं। और जब गुलरेज शेख यह कहते हैं तो कोई अकेला गुलरेज शेख यह नहीं कहता, वह पूरी नस्ल जो अपना इतिहास जानती है, अपने ऊपर हुई बर्बरताओं को पहचानती है, यह इसका उद्घोष होता है। और उस उद्घोष में और सरसंघचालक जी के उद्बोधन में कोई अंतर नहीं है।
@hiteshshankar
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