डॉ. मनमोहन वैद्य
देश में लंबे अरसे से सेकुलरवाद के नाम पर हिंदू धर्म और जीवन पद्धति को अपनाने वालों को तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ‘सांप्रदायिक’ कहने की सेकुलर मुहिम छेड़ी हुई है। वे हिन्दुत्व के मूल्यों को नहीं जानते, इसलिए हिन्दू के अलावा ईसाई, मुस्लिम आदि मतों को ‘सेकुलर’ बताकर सिर्फ उनका पक्ष सामने रखते हैं। अब समाज ऐसे तत्वों को पहचानने लगा है
अयोध्या में श्री राम मंदिर निर्माण कार्य का नेत्र दीपक शुभारम्भ करोड़ों भारतीयों और दुनियाभर में भारतीय मूल के लोगों ने गौरव से देखा। जहां एक ओर कई सदियों के संघर्ष और सभी बाधाओं को पार कर करोड़ों भारतवासियों का स्वप्न साकार हो रहा था, वहीं दूसरी ओर भारत में सेकुलरवाद के नाम पर सांप्रदायिक राजनीति करने वाले राजनेता और देश-विभाजनकारी गतिविधियों की दुकान चलाने वाले बुद्धिजीवी-पत्रकार बहुत चिंतित दिखे। सांप्रदायिक राजनीति करने वाले कई सेकुलर नेताओं ने तो बदलते हुए भारतीय जनमानस को भांपकर राम मंदिर के संदर्भ में अपनी भूमिका ही बदल डाली, क्योंकि आने वाले चुनावों में उन्हें जनता का सामना करना पड़ सकता है। परन्तु, सेकुलरवाद की आड़ में भारत-विभाजन की दुकानदारी चलाने वाले बुद्धिजीवी-पत्रकार एक नया राग अलापते दिख रहे हैं-‘भारतीय संविधान खतरे में है, क्योंकि सेकुलरिज्म खतरे में है।’ इस कथन से वे ऐसा भ्रम निर्मित करने का प्रयास कर रहे हैं कि मानो यह ‘सेकुलरवाद’ भारतीय संविधान का प्राण है जो आरम्भ ही से संविधान का अभिन्न अंग था। यह वैसा ही हुआ जैसे किसी का तांगे के घोड़े को समझाना कि वह तो मुंह में लगाम लेकर ही पैदा हुआ था।
खुद को संविधान का हितैषी बताने वाले इन बुद्धिजीवियों का दावा है कि संविधान के साथ बहुत बड़ा ‘धोखा’ हो रहा है। वास्तव में सेकुलर शब्द का संविधान में समावेश ही संविधान के साथ हुआ सबसे बड़ा धोखा था। ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान निर्माता सेकुलरवाद से परिचित नहीं थे। श्री के. टी. शाह के नए भारत को ‘सेकुलर-सोशलिस्ट-रिपब्लिक’ कह कर वर्णित करने के सुझाव पर संविधान सभा में खूब चर्चा हुई थी तथा डॉ. आम्बेडकर और अन्य अनेक मूर्धन्य नेताओं, सबका यह सुविचारित मत रहा कि भारत के लिए ‘सेकुलरवाद’ आवश्यक नहीं है। यूरोप के 1,000 वर्ष के पोप के मजहबी राज्य की प्रतिक्रिया के रूप में वहां सेकुलरवाद की आवश्यकता सामने आई और उसे वहां लाया गया। वैसी स्थिति भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में न कभी रही और न हमारे अध्यात्म-आधारित एकात्म और सर्वांगीण हिंदू चिंतन के चलते संविधान निर्माताओं को भविष्य में ऐसी सम्भावना दिखी।
संविधान में ऐसे जोड़ा ‘सेकुलर’ शब्द
1975 में देश में ‘इमरजेंसी’ लागू की गई। जनतांत्रिक जीवन ठप हो गया। संसद में विपक्ष अनुपस्थित था। (क्योंकि विपक्ष के अधिकांश नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था और जो जेल में नहीं थे, वे भूमिगत थे) तब यह सेकुलरिजम शब्द संविधान में जोड़ा गया। सुव्यवस्थित भारतीय न्याय व्यवस्था में निचली अदालतों के निर्णयों को उच्च न्यायालयों में चुनौती देने का प्रावधान है। वहां समाधानकारक निर्णय न हो तो सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से भी समस्या-निवारण न हो तो न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के समक्ष अपना मत रखने का प्रावधान भी है। अगर समस्या का हल संविधान में परिवर्तन करना ही हो तो संसद में चर्चा कर पर्याप्त बहुमत के समर्थन से आप वह भी कर सकते हैं। किंतु संविधान सभा द्वारा अस्वीकृत इस ‘सेकुलर’ शब्द को संविधान में जोड़ने के लिए इनमें से किसी भी प्रक्रिया का उपयोग नहीं हुआ। आपातकाल के आतंक में, बिना किसी आवश्यकता, बिना किसी मांग और बिना किसी चर्चा या बहस के यह परिवर्तन संविधान की प्रस्तावना में छल से किया गया। यही भारतीय संविधान के साथ हुआ सबसे बड़ा धोखा था।
आज के सजग भारत में सांप्रदायिक राजनीति निष्क्रिय होती दिख रही है और देश-विभाजक योजनाएं विफल हो रही हैं। इसीलिए ये सब तत्व ‘संविधान खतरे में है’ क्योंकि ‘सेकुलरवाद खतरे में है’ चिल्ला रहे हैं। अपनी आंखों से भ्रम की पट्टी हटा कर देखें तो वास्तव में समाज में राष्ट्रीयता का जागरण हो रहा है। देश और संविधान पर से इस सेकुलरवाद का खतरा टलकर, भारत की परम्परागत बहुलता, विविधता और एकता अब सुरक्षित होते दिख रहे हैं
जिस ‘सेकुलरिज्म’ शब्द ने आज हमारी जन-चेतना को जकड़ कर हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में बखेड़ा खड़ा कर दिया है, उस शब्द का निश्चित अर्थ क्या है, यह विवाद का विषय है। संविधान में इसकी व्याख्या नहीं की गई है। यह बाहरी संकल्पना हमारे संविधान पर थोपकर व देश में प्रतिष्ठित कर जन-मानस को भ्रमित करने का प्रयास हो रहा है। सब उपासना पंथों को समान दृष्टि से देखना अथवा सबको समान अधिकार व समान अवसर उपलब्ध होना, ऐसा उसका अर्थ माना जाए तो, हिंदुओं की तो यह परंपरा ही रही है। इसलिए हिंदू बहुल देश होने के कारण भारतीय संविधान के प्रारम्भ से ही उसमें सब उपासना पंथों को समान अधिकार और अवसर का समावेश था। इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक कहे जाने वाले उपासना पंथों के अनुयायियों को संविधान ने कुछ विशेष अधिकार दिए हैं जो बहुसंख्यक हिंदू समाज को प्राप्त नहीं हैं। इन प्रावधानों के होते हुए भी ‘सेकुलर’ शब्द को रातोंरात संविधान में जोड़ने का क्या अभिप्राय रहा होगा? उसके बाद सेकुलरवाद की आड़ में भारत में घटी घटनाओं के विश्लेषण से यह ध्यान में आता है कि देश में सांप्रदायिक राजनीति धड़ल्ले से हो और देश-विभाजक तत्वों को अपना एजेंडा साधने की खुली छूट व संरक्षण मिले। इसीलिए सेकुलरिज्म शब्द का संविधान में छल से मिश्रण हुआ। उसके परिणामस्वरूप आज समाज की क्या दशा हुई है? सेकुलरिज्म के नाम पर घोर सांप्रदायिकता और विघटनवाद को खुलेआम पोषण और प्रोत्साहन दिया जाता रहा है और इस विघटनकारी वृत्ति का विरोध करने वालों को सांप्रदायिक कहकर कोसा और बदनाम किया जा रहा है।
देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों (मतलब मुसलमानों) का पहला अधिकार है, ऐसा घोर सांप्रदायिक विचार हमारे एक ‘सेकुलर’ पूर्व प्रधानमंत्री ने बिना हिचक प्रस्तुत किया था। उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के कई बार नकारने के बावजूद और संविधान-सम्मत न होते हुए भी सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण देने की बात कुछ सेकुलर पार्टियों के नेता बार-बार करते दिखते हैं। भारत में राज्य यदि सेकुलर है तो हज के लिए सरकारी सब्सिडी नहीं मिलनी चाहिए। इस्लाम के विशेषज्ञों की मानें तो किसी की सहायता लिए बिना अपने बलबूते पर किया गया हज ही इस्लाम में मान्य है। तभी तो अन्य किसी भी मुस्लिम देश में हज के लिए सरकारी सहायता नहीं दी जाती। यदि भारत में यह हो रहा है तो यह सेकुलरवाद-विरोधी है और इस्लाम-विरोधी भी। यहां तो धड़ल्ले से वोट-बैंक की राजनीति के लिए रिलिजन के आधार पर स्कॉलरशिप, पढ़ने वाली केवल मुस्लिम लड़कियों को साईकिल, मुस्लिम लड़कियों की ही शादी के लिए आर्थिक सहायता आदि षड्यंत्र खुलेआम चलते रहे हैं। तब इन ‘सेकुलरवाद खतरे में’ कहने वालों के कान पर जूं भी नहीं रेंगी! हज के लिए सरकारी सहायता की तर्ज पर एक ‘सेकुलर’ राज्य सरकार ने ईसाइयों के वोट पाने हेतु सरकारी खर्च पर यरुशलम की यात्रा की घोषणा की। तब ‘सेक्युलरिज्म खतरे में’ नहीं सुनाई पड़ा! अदालत के स्पष्ट मना करने पर भी एक राज्य सरकार ने निर्लज्जतापूर्वक संविधान को ताक पर रख कर मुस्लिमों के लिए आरक्षण की तीन-तीन बार घोषणा की। तब इन सेकुलरवाद के रक्षकों को सांप सूंघ गया था! केवल हिंदू धार्मिक स्थानों में श्रद्धालुओं द्वारा दी गई दान-दक्षिणा पर सरकार का अधिकार जताना और अन्य मतावलम्बियों के पांथिक स्थानों में एकत्र धन के विनियोग के लिए अंधे बन जाना, यह कैसा सेकुलरवाद है? सेकुलर व्यवस्था में मजहब के आधार पर भेदभाव अपेक्षित नहीं है। परन्तु ये ‘सेकुलरवाद खतरे में’ कहने वाले लोग इन विषयों पर मौन ही रहते हैं।
यह कैसी पत्रकारिता!
अभी कुछ समय पूर्व बंगलुरु में जो प्रायोजित सांप्रदायिक हिंसा हुई उस पर एक व्यंग्यात्मक टिपण्णी पढ़ने में आई-‘मंदिर की परंपरा के संरक्षण हेतु रास्ते पर दोनों तरफ अनुशासनबद्ध, शांतिपूर्वक खड़े रहने वालों का रिलिजन होता है परन्तु हिंसा पर उतारू आगजनी और विध्वंस करने के लिए दौड़ने वाली भीड़ का कोई मजहब नहीं होता’। इसे सेकुलर पत्रकारिता कहते है। और एक टिप्पणी प्रसिद्ध पत्रकार तारेक फतेह के नाम से सोशल मीडिया में चल रही थी- ‘प्रमुख सभ्यताओं में अकेला भारत ऐसा देश है जहां आपको अपनी विरासत से घृणा करना और इसे बर्बाद करने आए आक्रमणकारियों का महिमामंडन करना सिखाया जाता है। और यह (मूर्खता) ‘सेकुलरिजम’ कहलाती है।’
डॉ. आम्बेडकर और अन्य अनेक मूर्धन्य नेताओं, सबका यह सुविचारित मत रहा कि भारत के लिए ‘सेकुलरवाद’ आवश्यक नहीं है। यूरोप के 1000 वर्ष के पोप के मजहबी राज्य की प्रतिक्रिया के रूप में वहां सेकुलरवाद की आवश्यकता सामने आई और उसे वहां लाया गया। वैसी स्थिति भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में न कभी रही और न हमारे अध्यात्म-आधारित एकात्म और सर्वांगीण हिन्दू चिंतन के चलते संविधान निर्माताओं को भविष्य में भी ऐसी सम्भावना ही दिखी
अक्सर भारत के सेकुलरवादी अपने विधानों और कृतियों से हिंदुत्व का, हिंदू परम्पराओं का, हिंदू मान्यताओं का विरोध करने को सेकुलरवाद की पूर्ण अभिव्यक्ति बताते आए हैं। इसलिए ओवैसी जैसे घोर सांप्रदायिक विचारों के व्यक्ति के साथ मंच साझा करना सेकुलरवाद कहलाता है और योगी जी जैसे संन्यासी के साथ मंच साझा करना साम्प्रदायिकता। किसी राजनेता का किसी दरगाह में चादर चढ़ाना, सरकारी खर्चे से इफ्तार पार्टी का आयोजन, यह सब सेकुलरवाद है, पर किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा या शिलान्यास में भाग लेना साम्प्रदायिकता या ‘सेकुलरवाद खतरे में’ होना है। ‘ईशावास्यम् इदम् सर्वम् यत्किंचित जगत्याम जगत’-समस्त जगत ईश्वर की छाया है, ऐसी मान्यता वाली भारतीय परंपरा में प्रत्येक कार्य दैवीय अधिष्ठान से करने का युगों पुराना विधान है। यह भारतीय आध्यात्मिकता के प्रकटीकरण का एक रूप है, कोई सांप्रदायिकता नहीं। हर कार्य की एक अधिष्ठात्री देवी-देव हैं जिनके माध्यम से उस सर्वव्यापी परमात्मा का आवाहन कर कार्य आरम्भ होता है। विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती हैं, वैद्यक शास्त्र के धन्वन्तरि, संगीत-नृत्य कला के नटराज, मल्ल विद्या या पहलवानी के हनुमान जी, कारीगरी के विश्वकर्मा इत्यादि। प्रत्येक विधा का भारतीय उपासक, फिर वह हिंदू हो, मुसलमान या कोई अन्य, इस अधिष्ठात्री देवी या देव का आवाहन करके ही अपना कार्य आरम्भ करता आया है। ऐसा करना सेकुलरिज्म का विरोध नहीं है। परन्तु भारत में कट्टरवादी, जिहादी और समाज-विखंडन करने वाली शक्तियों ने ‘सेकुलरिज्म’ के नाम पर ऐसी परम्पराओं को सांप्रदायिक बताकर उनका विरोध करना शुरू किया तथा सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक राजनीति करने वाले राजकीय दल अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए इन विखंडनवादी और सांप्रदायिक तत्वों का समर्थन या अनदेखी करते रहे हैं। मेरे एक परिचित पत्रकार के नए मकान में सुथारी काम करने वाले मुस्लिम ठेकेदार ने विश्वकर्मा जयंती के पहले उनसे कहा-‘कल काम नहीं होगा, कल विश्वकर्मा जयंती है।’ फिर उस मुस्लिम ठेकेदार ने उस हिंदू पत्रकार को विश्वकर्मा जयंती का महत्व समझाया। भारत के आम व्यक्ति के लिए भारतीय विचार समझना आसान है, पर भारत की सेकुलर जमात के लोग यह नहीं समझते, या नहीं समझने का दम्भ भरते हैं। इस नए परिप्रेक्ष्य में सेकुलरिज्म की व्याख्या बदलती मालूम होती है- (हिंदू) उपासना पंथों का विरोध यानी सेकुलरिज्म।
आध्यात्मिकता-आधारित भारतीय चिंतन ने यहां चिरकाल से एकात्म और सर्वांगीण जीवन का मार्ग दर्शाया। इसी चिंतन को भारत के बाहर हिंदुत्व नाम से जाना गया। हमारी सर्व-समावेशक भारतीय मानसिकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 1947 में, एक ही समाज से विभाजित दो देश और उनके दो अलग-अलग संविधान बहुत भिन्न हैं। पाकिस्तान का संविधान उस उदारता और सर्वसमावेशकता का उदाहरण दुनिया के समक्ष नहीं रख पाया जिसका परिचायक भारत का संविधान निरंतर रहा है। भारत के संविधान की उदारता का मूल कारण हमारा हिंदू बहुल होना है, जबकि पाकिस्तान के संविधान की कमी उसके हिंदुत्व को नकारने और हिंदुत्व से दूरी रखने में है। यदि सेकुलरवाद का अर्थ सभी रिलिजन को समानता से देखना है तो ऐसा आचरण केवल इस देश का हिंदू ही करता आया है। इतना ही नहीं, सभी रिलिजन को समान रूप से देखने से आगे बढ़कर, हिंदू ‘एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ति’ को मानता आया है, अर्थात् सत्य एक है जिसे बुद्धिमान विभिन्न नामों से बुलाते हैं। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने भारत की एक पहचान ‘मदर आॅफ आॅल रिलिजन्स’ दी। उसमें गौरवपूर्ण उल्लेख है कि दुनिया के कई अन्य मत-पंथों के अनुयायी अलग-अलग कालखण्डों में पीड़ित और प्रताड़ित स्थिति में भारत आए और हिंदू परंपरा के चलते उन्हें यहां अपने उपासना पंथों का मुक्त अनुसरण करने की अगाध स्वतंत्रता सम्मानपूर्वक मिली। आगे उन्होंने कहा, ‘हम सहिष्णुता से भी आगे बढ़कर सभी पंथों को स्वीकार करते हैं।’ यह केवल हिंदू कहता आया है, करता आया है और जीता भी आया है।
ऐसे उदार हिंदुत्व को सांप्रदायिक बताकर मूल सांप्रदायिक विचारों को सेकुलर नाम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास हमारे देश में पिछले कई दशकों से खुलेआम चल रहा है। कुछ समय पूर्व एक परिचित कार्यकर्ता की सुविद्य, युवा बहन से मुलाकात में हमारी भारत के विषय पर गहराई से चर्चा हुई। लेखक के नाते काम करने की उसकी इच्छा के चलते मैंने उसे हमारी चर्चा पर अपने विचार लिखने को कहा। उसने जो लिखा वह इस सेकुलरवाद के दुष्परिणाम पर सीधा प्रकाश डालता है। वह शब्दश: निम्नानुसार है-
‘‘मैं भारतीय हूं, कुछ दिन पहले तक मेरे लिए इसका अर्थ केवल इतना ही था कि मैं भारत से हूं। मुझे लगता था कि यह एक भौतिक, भौगोलिक और शायद सांस्कृतिक वास्तविकता भर है। मैं हिंदू भी हूं। किन्तु मुझे ऐसा लगता था कि मेरी आस्था-जो मेरे लिए नितांत व्यक्तिगत है, इसका मेरी राष्ट्रीय पहचान से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ रोज पहले तक मैंने कभी भी अपनी आस्था और अपनी राष्ट्रीय पहचान को मिलाने-एक करने के बारे में नहीं सोचा। मैं मानती थी कि ये दोनों एक नहीं हैं। वास्तव में, कुछ समय पहले तक मेरा साफ तौर पर यह मानना था कि इन दोनों को मिलाना नहीं चाहिए।
भारत में कट्टरवादी, जिहादी और समाज-विखंडन करने वाली शक्तियों ने ‘सेकुलरिज्म’ के नाम पर ऐसी परम्पराओं को सांप्रदायिक बताकर उनका विरोध करना शुरू किया तथा सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक राजनीति करने वाले राजकीय दल अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए इन विखंडनवादी और सांप्रदायिक तत्वों का समर्थन या अनदेखी करते रहे हैं।
हम जैसे, ‘शहरी, आधुनिक, प्रगतिशील’ भारतीयों को अपनी धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान को गड्डमड्ड न करने की घुट्टी पिलाई जाती है। यही सिखाया जाता है कि देशभक्त होना अच्छा है मगर कार्यस्थल या सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपनी हिंदू पहचान को किनारे रखा जाए, क्योंकि इससे किसी अन्य भारतीय मत-पंथ को ठेस लग सकती है। माना जाता है कि हिंदू होना और भारतीय होना दो अलग बातें हैं, और उन्हें अलग-अलग ही रखा जाना चाहिए। इन दोनों को मिलाने वाले को अन्य मत-पंथ के लोगों को हाशिए पर रखने वाले, सांप्रदायिक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। भारत हर मत-पंथ का, बराबर है, यह हमें पढ़ाया जाता है। भारत विविध संस्कृतियों का देश है, हमें यह सिखाया जाता है।
कुछ दिन पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. वैद्य से हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन है जो भारत को हिंदू राष्ट्र मानता है; जो दृढ़ता से हिंदुत्व के विचार के प्रसार में विश्वास करता है। एक ऐसा संगठन जो भारत में सभी को भगवा दृष्टिकोण से देखता है। ऐसा है, या फिर कम से कम मुझे इस बातचीत के कुछ दिन पहले तक ऐसा ही लगता था।’’
सच्चे सेकुलरवाद के लिए उपासना पंथों का विरोध आवश्यक नहीं है। सही मायने में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति सेकुलर हो ही नहीं सकता। यदि कोई ऐसा दावा कर रहा है तो वह या तो झूठ बोल रहा है या दम्भ भर रहा है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कोई न कोई आध्यात्मिक अवधारणा यानी रिलिजन होना स्वाभाविक ही है। वह हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, जैन, बौद्ध, सिख, वैष्णव, शैव, देवी-उपासक, प्रकृति-पूजक या निरीश्वरवादी, कुछ भी हो सकता है। अपनी-अपनी समझ और मान्यताओं के अनुसार जीवन जीने का उसे अधिकार और स्वातंत्र्य है। इससे सेकुलरवाद को बाधा नहीं पहुंचती। सेकुलरवाद की अपेक्षा है कि सभी रिलीजन के लोगों को समान दृष्टि से देखें। पर आप यदि सभी उपासना मार्गों को केवल समान दृष्टि से देखते ही नहीं, उन सभी को स्वीकार भी करते हैं तो आप हिंदू ही हो। आचार्य विनोबा भावे ने हिंदू होने की बहुत सरल व्याख्या की है। वे कहते हैं-‘इस मार्ग से ही मुक्ति, यह अहिंदू विचार है, और इस मार्ग से भी मुक्ति, यह हिंदू विचार है।’
मेरा मानना है कि न व्यक्ति का सेकुलर होना संभव है और न ही उसकी आवश्यकता है। राज्य का सेकुलर होना अपेक्षित है। जैसे किसी राज्य की परिवहन व्यवस्था सेकुलर होनी चाहिए, इसके लिए उस परिवहन व्यवस्था के अध्यक्ष का सेकुलर होना आवश्यक नहीं है। उसका सभी उपभोक्ताओं के साथ समान व्यवहार अपेक्षित है। किन्तु सबको समान व्यवस्था तब ही उपलब्ध होगी जब उसका बस-चालक या कंडक्टर सेकुलर होगा, ऐसा तर्क अतार्किक है। भारत में अधिकांश वाहन-चालक अक्सर सुबह अपना कार्य अपने इष्ट देवता को स्मरण कर और अपने वाहन को प्रणाम कर आरम्भ करते हैं। इसमें सेकुलरवाद में बाधा कहां आती है? परिवहन व्यवस्था सेकुलर होना यानी उस व्यवस्था का उपयोग सभी लोग समान रूप से कर सकेंगे, उसमें भेद-भाव नहीं होगा। कंडक्टर सभी से समान किराया लेगा। रिलिजन के आधार पर किराये में, बैठने के स्थान इत्यादि में कोई भेद-भाव नहीं होगा। महिला, वृद्ध या दिव्यांग होने के आधार पर कुछ यात्रियों को विशेष सुविधाएं मुहैया कराना समझा जा सकता है। परन्तु, सेकुलर तंत्र या व्यवस्था में विशेष सुविधा या सहूलियत का आधार आपका मजहब तो नहीं हो सकता। राजकीय व्यवस्था के अंतर्गत सभी को समान सहूलियत देना सेकुलर होना है, भले वह व्यवस्था सरकारी हो या गैर-सरकारी।
हमारी चर्चा पर अपने विचारों का लेख उस युवती ने यूं पूर्ण किया-
आचार्य विनोबा भावे ने हिंदू होने की बहुत सरल व्याख्या की है। वे कहते हैं-‘इस मार्ग से ही मुक्ति, यह अहिंदू विचार है, और इस मार्ग से भी मुक्ति, यह हिंदू विचार है।’
‘कुछ दिनों पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. मनमोहन वैद्य से हुई। बातचीत के दौरान ही मुझे अनुभव हुआ कि इस विषय में मेरा ‘ज्ञान’, सच्चाई से कितना दूर था। पहली बार, मैंने सुना और समझा कि वास्तव में ‘हिंदू’ होने का क्या अर्थ है और किस तरह यह ‘इंडियन’ या ‘भारतीय’ होने से जरा भी दूर नहीं है। वास्तव में, ये एक ही हैं। हिंदुत्व (हिंदुइज्म इस शब्द का सटीक नहीं बल्कि कामचलाऊ अनुवाद है) एक जीवन शैली है। जब ‘रिलिजन’ की अवधारणा भी नहीं थी तब भी दुनिया के इस हिस्से में जीवन था। लोगों के जीने के इस तरीके का निरंतर विस्तार होता रहा। इस देश को मजहब ने बहुत बाद में दो टुकड़ों में बांटा। आज पंथ-मजहब का चाहे जो हल्ला-गुल्ला दिखता हो, आगे चलकर भी भारत में जीवन जीने का तरीका यही रहेगा।
‘इंडिया’ या कहिए भारत, इस जीवनशैली का केंद्र है। इस राष्ट्र की आत्मा इसकी धड़कन, इसका फलना-फूलना, इसी विविधता का उत्सव है। हिंदू होने का अर्थ इस विविधता का उत्सव और बाहरी भेदों के बावजूद अंतर्निहित एकतत्व की समझ है। भारत का विस्तार नक्शे पर खिंची चंद लकीरों से कहीं आगे है। यह समावेश और मानवता की एक अवधारणा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए और एक के बाद दूसरा आक्रमण झेलते हुए भी आगे बढ़ी है। इसी तरह, हिंदू होने का अर्थ आप जिस भगवान की पूजा करते हैं, उससे आगे का है। यह उन विभिन्न मार्गों का महोत्सव है जो एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं। इस हिंदुत्व में इस देश का समस्त सार निहित है। मैं एक हिंदू हूं, जो मुझे भारतीय बनाता है। मैं एक भारतीय हूं, जो मुझे हिंदू बनाता है, फिर मैं कहां हाथ जोड़ती हूं या पूजा में सिर झुकाती हूं।’’
सजग हो रहा भारत
आज के सजग भारत में सांप्रदायिक राजनीति निष्क्रिय होती दिख रही है और देश-विभाजक योजनाएं विफल हो रही हैं। इसीलिए ये सब तत्व ‘संविधान खतरे में है’ क्योंकि ‘सेकुलरवाद खतरे में है’ चिल्ला रहे हैं। अपनी आंखों से भ्रम की पट्टी हटा कर देखें तो वास्तव में समाज में राष्ट्रीयता का जागरण हो रहा है। देश और संविधान पर से इस सेकुलरवाद का खतरा टलकर, भारत की परम्परागत बहुलता, विविधता और एकता अब सुरक्षित होते दिख रहे हैं। ऐसे खोखले और बनावटी सेकुलरवाद से पीछा छुड़ाकर यदि राज्य सरकार सही मायने में सबके साथ समान व्यवहार करेगी तो देश की तरक्की होगी, एकता और अखंडता का सूत्र मजबूत होगा और देश विभाजन की दुकानदारी करने वालों की दुकानें भी बंद होंगी। यह देश के और सभी के—मुसलमान और ईसाईयों के भी-हित में है। तभी समाज में एकता, समरसता और बंधुत्व निर्माण हो सकेगा। इसलिए जिस वर्तमान ‘सेकुलरवाद खतरे में है’ का शोर ये स्वार्थी, दाम्भिक और समाज-विरोधी लोग मचा रहे हैं, उसके जाने से देश इस छद्म-सेकुलरवाद के खतरे से मुक्त होगा। देश का ‘स्वत्व’ प्रकट होगा। एकता, अखंडता और बंधुत्व का भाव अधिक मजबूत होगा।
(लेखक रा.स्व. संघ के सहसरकार्यवाह हैं)
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