डॉ. अजय खेमरिया
दिल्ली दंगों के आरोपियों को जमानत के संविधानेत्तर निहितार्थ हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत में सामने आए साक्ष्यों को दरकिनार कर दी गई जमानत पर देश की शीर्ष अदालत ने रोक नही लगाई लेकिन इस आदेश को नजीर मानने पर प्रतिबंध लगाकर इस बहस को जन्म दे दिया है कि क्या हाईकोर्ट मनमाने निर्णय देने के लिए स्वतंत्र है?
दिल्ली दंगों के आरोपी तीन छात्रों की जमानत याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश और इस जमानत आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने एक बार फिर से हमारी न्यायिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। पिछले साल फरवरी में हुए दिल्ली दंगों के आरोप में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा, जेएनयू की छात्रा नताशा नरवाल और देवांगना कलीता तिहाड़ जेल में बंद थी। तीनों पर आतंकवाद विरोधी कानून यूएपीए एवं अन्य धाराओं में प्रकरण दर्ज थे। निचली अदालत से जमानत याचिका खारिज होने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों इन तीनों को जमानत दे दी। सवाल जमानत देने पर नहीं, बल्कि इस जमानत आदेश के साथ दिए गए 133 पेज के उस दृष्टांत पर है। यह उच्च न्यायालय की अधिकारिता से बाहर है और न केवल अनावश्यक, अनपेक्षित है बल्कि हाईकोर्ट के निर्णय पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।
प्रकरण से उठे सवाल
देश की शीर्ष अदालत ने इस आदेश पर रोक नहीं लगाई लेकिन इस आदेश को नजीर मानने पर प्रतिबंध लगाकर इस बहस को जन्म दे दिया है कि क्या हाईकोर्ट मनमाने निर्णय देने के लिए स्वतंत्र है? जान-बूझकर दिए गए इस तरह के निर्णय या दृष्टांत को अधिकारिता की परिभाषा में कसा जाना चाहिए या नही? जब देश का सर्वोच्च न्यायालय ही यह मानकर चल रहा है कि इस निर्णय की तार्किक समीक्षा की जाएगी, तब ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उच्च न्यायालयों के स्तर पर निर्णयों की समीक्षा ट्रायल कोर्ट्स की भांति नहीं होनी चाहिए? इस आंतरिक व्यवस्था के इतर बड़ा सवाल यह भी है कि क्या देश में सत्ता से असहमति और देश के विरुद्ध नियोजित षड्यंत्र में कोई अंतर परिभाषित नहीं होना चाहिए? असहमति के नाम पर संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार क्या किसी प्रायोजित षडयंत्र को आकार देने की अनुमति दे सकते हैं? क्या ऐसे षड्यंत्रों में दण्ड की सीमा निर्धारित करते समय मनोरथ को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए? दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति माननीय सिद्धार्थ मृदुल एवं अनूप जे. भंभानी की खंडपीठ ने 133 पेज को जो निर्णय दिया है, वह न्यायपालिका की प्रामाणिकता को कठघरे में खड़ा करता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे अचंभा भरा, लंबा और परिधि से परे निरूपित किया है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी विमर्श में क्यों नहीं
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि देश के बौद्धिक जगत खासकर राष्ट्रीय मीडिया में तीनों छात्रों की जमानत का यह आदेश तो चर्चा का केंद्रीय विषय बना रहा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों को विमर्श में कोई जगह नही मिली। सही मायनों में यह जमानत आदेश लेफ्ट लिबरल गिरोह की एक बौद्धिक विजय के रूप में प्रचारित हुआ जो अंतत: इस गिरोह के विविधवर्णी दबाव का नतीजा अधिक प्रतीत होता है। एक सशक्त इको सिस्टम ने पिछले सात वर्षों से निरन्तर ऐसा वातावरण बनाया हुआ है जो केंद्र सरकार को फासीवादी और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने का शोर निर्मित करता है। मोदी सरकार और राष्ट्रवाद से नफरत और दुश्मनी की मानसिकता से भरे एक बड़े वर्ग ने झूठ और मनगढ़ंत तर्कों के बल पर न केवल सरकार बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को भी तार-तार करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी है। ताजा निर्णय इस इकोसिस्टम की सुगठित कवायद का ही नतीजा है जिसके बाद ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों के साथ घालमेल कर रही है। इस प्रकरण में तथ्य जनता के सामने आये नहीं हैं। हिन्दुत्व के विरुद्ध घोषित एजेंडे पर काम करने वाले 'पिंजरा तोड़ संगठन' और जाम्मिया विश्वविद्यालय की भूमिका दिल्ली दंगों में बहुत ही खतरनाक रही है। कड़कड़डूमा ट्रायल कोर्ट से इन तीनों आरोपियों की जमानत खारिज हो गई। स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश अमिताभ रावत ने चार्जशीट के आधार पर जो कुछ लिखा है, उसे प्रकाश में लाया जाना आवश्यक है।
न्यायाधीश रावत ने स्पष्ट किया
‘देश के सभी नागरिकों के लिए विरोध करने की स्वतंत्रता उपलब्ध है, लेकिन यह उचित प्रतिबंधों के अधीन है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक नागरिक किसी भी कानून के बारे में एक राय रख सकता है जिसे वे अपनी समझ में अनुचित मानते हैं। स्वतंत्रता और किसी भी कानून का विरोध करने का अधिकार सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध है। वास्तव में वर्तमान मामले के संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि क्या कोई साजिश थी जिसके कारण सीएए के खिलाफ विरोध की आड़ में दंगे हुए या नहीं।’ कोर्ट ने आगे कहा, ‘इसके अलावा, न्यायालय का विचार था कि जेसीसी या स्टूडेंट आॅफ इस्लामिक आॅगेर्नाइजेशन (एसआईओ) यूएपीए के तहत आतंकवादी संगठन नहीं हैं, हालांकि, भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा करने वाले कृत्य… जिससे सामाजिक शर्मिंदगी होती है और किसी भी वर्ग में आतंक पैदा होता है। लोगों को उन्हें हिंसा में घिरे होने का अहसास करवाया, यह भी एक आतंकवादी कार्य है।
‘यूएपीए की धारा 15 के संदर्भ में, जो परिभाषित करता है कि ‘आतंकवादी अधिनियम’ क्या है, न्यायालय ने स्पष्ट किया :
‘जांच के अनुसार, विघटनकारी चक्का जाम की एक पूर्व-निर्धारित साजिश थी और दिल्ली में विभिन्न नियोजित स्थलों पर एक पूर्वनिर्मित विरोध प्रदर्शन हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप दंगों में लोगों की मौत हुई, सैकड़ों लोग घायल हुए और संपत्ति नष्ट हुई। यह पूरी साजिश दिसंबर 2019 से शुरू हुई थी। जान-बूझकर सड़कों को अवरुद्ध कर असुविधा फैलाई, आपूर्ति बाधित की गई, जो भारत के समुदाय के जीवन के लिए आवश्यक है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न साधनों के साथ हिंसा हुई और फिर फरवरी की घटना के साथ मिश्रित आबादी वाले क्षेत्रों में सड़कों को अवरुद्ध करने का लक्ष्य बनाया गया और आतंक पैदा किया। महिला प्रदर्शनकारियों को आगे करके पुलिसकर्मियों पर हमला आतंकवादी कृत्य के दायरे में आएगा।’ न्यायालय का विचार था कि आरोपी व्यक्ति व्हाट्सएप समूहों के माध्यम से एक-दूसरे के संपर्क और समन्वय में थे। उक्त साजिश को अंजाम देने के लिए अलग-अलग लोगों को अलग-अलग भूमिकाएं दी गई थीं। इसके अलावा, अदालत ने माना कि नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में फरवरी 2020 में हुई हिंसा की शुरुआत सबसे पहले सार्वजनिक सड़कों पर हमला करने, पुलिसकर्मियों पर हमला करने और फिर सार्वजनिक स्थलों पर आग्नेयास्त्रों, एसिड की बोतलों और उपकरणों का इस्तेमाल किया गया, जिसके परिणामस्वरूप जान और माल की हानि हुई। इस संदर्भ में न्यायालय ने टिप्पणी की,
‘इस प्रकार, नागरिक संशोधन विधेयक की आड़ में मुखर आंदोलन, जो हिंसा की अन्य गतिविधियों के साथ जुड़ा हुआ है, यह दिखाता है कि इसका उद्देश्य भारत के खिलाफ असंतोष पैदा करना था।’
‘ संरक्षित गवाहों पर अदालत का भरोसा न्यायालय ने ‘बीटा’, ‘जेम्स’, ‘बोंड’, ‘आरओबीओटी’ आदि नाम के संरक्षित गवाहों पर निर्भरता व्यक्त की, जिन्होंने कहा कि तन्हा भाषण देते थे, स्थानीय बैठक/प्रचार होते थे, भड़काऊ भाषण दिए जाते थे और लोगों का जमावड़ा होता था। यह निर्णय लिया गया था कि पिंजरा तोड़ के प्रतिनिधियों के साथ जेसीसी सदस्य नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में चक्का जाम करेंगे। इसके साथ ही भड़काऊ भाषण दिए गए, जैसे कि वे सरकार को नष्ट कर देंगे। इसके लिए व्हाट्सएप ग्रुप बनाए गए, आदि। गवाह ने कहा कि – जेसीसी के सभी फैसले उमर खालिद और नदीम खान द्वारा लिये गए थे और आरोपी आसिफ इकबाल तन्हा और सैफुल इस्लाम द्वारा इसकी पुष्टि की गई थी। उन्होंने बैठक में विशेष रूप से आरोपियों का उल्लेख करते हुए कहा कि उमर खालिद और नदीम खान ने बताया था कि दंगों की पूरी तैयारी हो चुकी है और सभी को तैयार रहना चाहिए और वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और सरकार को भी पीछे कर देंगे, भले ही यह दंगों के कारण हो। एक अन्य गवाह ने कहा कि आरोपी आसिफ इकबाल तन्हा शर्जील इमाम, नदीम खान, सफूरा आदि के साथ निकटता से जुड़ा हुआ था। आरोपियों ने विरोध स्थलों पर तथाकथित विरोध के आयोजन की पूरी साजिश में बहुत सक्रिय भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप विरोध हुआ, दंगों में कई लोगों को मार डाला गया और संपत्ति का नुकसान हुआ। अंत में, न्यायालय ने कहा कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ दोषारोपण प्रथम दृष्टया सही है, फिर इस प्रावधान के अनुसार आरोपी आसिफ इकबाल तन्हा का जमानत के लिए वर्तमान आवेदन खारिज किया जाता है।
दिल्ली दंगों के आरोपी तन्हा ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सिम खरीदा, उसका इस्तेमाल चक्काजाम, दंगे की योजना आदि में किया, इसी नम्बर से व्हाट्स ग्रुप बनाए, बाद में यह सिम जामिया के अन्य छात्रों सफूरा जरगर को दे दी। नताशा नरवाल, देवांगना कलीता इस गिरोह के मास्टरमाइंड उमर खालिद, शर्जील इमाम के साथ शाहीन बाग के प्रदर्शन में सक्रिय रहीं। चार्जशीट में व्हाट्स ग्रुप्स की चैट्स भी प्रस्तुत है जो अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे के समय जान-बूझकर भारत सरकार को दुनियाभर में बदनाम करने की योजना को तस्दीक करती हैं।
इन तथ्यों को दरकिनार कर दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत देने की कार्रवाई करते समय असहमति और आतंकी गतिविधियों की परिभाषा को खुद ही एक कर दिया है। यानी एक तरफ असहमति और आतंकी गतिविधियों पर 133 पेज का दृष्टांत जारी किया जाता है और दूसरी तरफ असहमति के नाम पर दंगों की साजिश, भारत के विरुद्ध युद्ध, चिकन नेक काटने की मानसिकता को उचित मान लिया गया। आखिर दिल्ली उच्च न्यायालय यह कैसी अभिव्यक्ति और असहमति की स्थापना करना चाहता है जो हिंसा और दंगे की इजाजत देती है। यही नहीं, अदालत यूएपीए कानून पर जिस तरह से अनावश्यक निर्णय सुनाने का काम किया है, वह अपने-आप में एक खतरनाक घटनाक्रम है। जमानत देना एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। एक सामान्य कार्यविधि निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक यही प्रचलित है कि जमानत देते समय प्रकरण की मेरिट पर कभी कोई चर्चा या टिप्पणी नहीं की जाती। तीनों छात्रों को जमानत दी जाती तो किसी को आपत्ति नहीं होती लेकिन जिस तरह एकतरफा ट्रायल कोर्ट के विश्लेषण को खारिज किया गया है, उसने आगे इस केस के अंतिम निर्णय पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए है। क्या कोई अधीनस्थ न्यायालय हाईकोर्ट के इस तरह के निर्णय के बाद अपनी ट्रायल को तथ्यों और साक्ष्य के आधार पर अंतिम निर्णय तक ले जा सकेगा? तब जबकि ट्रायल कोर्ट उच्च न्यायालय के अधीन रहते हुए काम करते हैं?
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह बेहतर अवसर
यहां एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब ट्रायल कोर्ट के अपीलीय मामलों में हाईकोर्ट कड़ी निगरानी और समीक्षा कर संबंधित जजों के विरुद्ध कारवाई करता है, तब इस मामले में भी क्या सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के आदेश की संवीक्षा कर पायेगा? सर्वोच्च न्यायालय के जज हेमंत गुप्ता एवं बी. राम सुब्रह्मण्यम की खंडपीठ इस निर्णय की प्रमाणिकता पर ही सवाल उठाते हुए इसे अन्य अदालतों में नजीर के रूप में पेश करने पर प्रतिबंध चुकी है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह बेहतर अवसर है जब वह उच्च न्यायालयों की कार्यविधि को संवैधानिक जबाबदेही की सीमा में बांध सकता है। हाल ही में तमाम उच्च न्यायालयों ने इस अधिकारिता का उल्लंघन किया है। बेहतर होगा, न्यायपालिका की निष्पक्षता और प्रमाणिकता खासकर हाईकोर्ट के स्तर पर एक समरूप कार्यविधि इस मामले को आधार बनाकर सुस्थापित की जाए। अभी उच्च न्यायालयों में जजों की जबाबदेही का कोई प्रावधान ही नहीं है जबकि निचली अदालतें उन्ही हाईकोर्ट के अधीन जबाबदेही और अनुशासन से सख्ती के साथ बंधी हुई हैं। उच्च न्यायालयों के जज अगर गलत या अनाधिकृत निर्णय के दोषी होते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट केवल चेतावनी देने या ट्रांसफर से आगे कुछ नहीं कर पाता क्योंकि उन्हें हटाने के लिए केवल महाभियोग का प्रावधान है जो आज तक किसी जज के विरुद्ध अमल में नहीं लाया जा सका है। दूसरी तरफ निचली अदालतों से प्रतिवर्ष दो दर्जन से अधिक जज निर्णयों की समीक्षा के नाम पर हाईकोर्टों द्वारा घर बिठा दिए जाते हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय क्या देश में उच्च न्यायालयों की कार्यप्रणाली में गुणात्मक सुधार के साथ न्यायिक निष्पक्षता को भी सुनिश्चित करेगा। यह बड़ा सवाल है।
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