गोपाल गोस्वामी
देवभूमि के लोगों के पास अपनी जमीन व प्रामाणिकता के सिवाय कुछ बचा नहीं है। ऐसे में भूमि भी चली गयी तो चीन की सीमा के राज्य में सुरक्षा का संकट खड़ा हो सकता है। उत्तराखंड सरकार व भारत सरकार को तत्काल इसका समाधान कर इस कानून को रद्द करना चाहिए।
उत्तराखंड को उसके पौराणिक महत्व के कारण देवभूमि के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव की क्रीड़ा स्थली, चार धाम का देश, पवित्र ऋषिकेश, हरिद्वार, कैलाश मानसरोवर का यात्रा मार्ग, भारत के प्रसिद्धतम पर्यटक स्थलों— नैनीताल,मसूरी,अल्मोड़ा, जागेश्वर, फूलों की घाटी, स्वामी विवेकानंद को जहां भगवद दर्शन हुए, ऐसे अलमोड़ा, गांधी जी ने जिसे भारत का स्विट्जरलैंड कहा वह कौसानी, कत्यूरी चांद राजाओं की राजधानी, गढ़वाल के नरेशों की कर्मस्थली। ऐसे उत्तराखंड को पूरे विश्व के हिन्दू एक पवित्र स्थान के रूप में जानते व मानते हैं। इतना महत्वपूर्ण प्रदेश होने के बाद भी कभी भी यह स्थान उत्तर प्रदेश की वरीयता सूची में नहीं आया। 1993—94 के राज्य संघर्ष के बाद 2000 में भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने इसे अलग राज्य बनाने का निर्णय किया। परन्तु राज्य के परिसीमन में मैदानी भाग जुड़ने से इसकी पहाड़ी राज्य की विशेषता नाममात्र रह गयी। हरिद्वार,उधमसिंह नगर, देहरादून के मैदानी भाग की जनसंख्या ने पहाड़ियों को अल्पसंख्यक बना दिया।
जब उत्तराखंड राज्य बना उसके बाद साल 2002 तक अन्य राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर जमीन खरीद सकते थे। 2007 में यह सीमा घटाकर 250 वर्गमीटर की गई। यहां आपको अवगत करा दूं कि गुजरात में गुजरात के बाहर का व्यक्ति एक इंच भी खेती की भूमि क्रय नहीं कर सकता। परन्तु उत्तराखंड में पहले 500 वर्ग मीटर व उसके बाद 250 वर्ग मीटर भूमि बाहर के लोग क्रय कर सकते थ, जिसको वर्तमान भाजपा सरकार ने 6 अक्टूबर, 2018 को नया अध्यादेश लाकर “उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1950 में संशोधन का विधेयक पारित किया। साथ ही इसमें धारा 143 (क) धारा 154(2) जोड़कर पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा ही समाप्त कर दी। अब कोई भी व्यक्ति उत्तराखंड के पहाड़ों में कितनी भी भूमि क्रय कर सकता है। पहाड़ों पर अब पहाड़ियों के सिवाय सभी कुछ होगा। जो इस राज्य के देवभूमि के दर्जे को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
इस संशोधन के तहत उक्त विधेयक में धारा 143(क) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि क्रय करे तो इस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी। औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाते ही उसका भू उपयोग स्वतः बदल जाएगा और वह अकृषि या गैर कृषि हो जाएगी।
एक अन्य पहाड़ी राज्य-सिक्किम में भी भूमि की बेरोकटोक बिक्री पर रोक के लिए कानून बीते वर्ष ही बना है। सिक्किम के कानून-दि सिक्किम रेग्युलेशन ऑफ ट्रान्सफर ऑफ लैंड (एमेंडमेंट) एक्ट—2018 की धारा 3(क) में यह प्रावधान है कि लिम्बू या तमांग समुदाय के व्यक्ति अपनी जमीन किसी अन्य समुदाय को नहीं बेच सकते। जमीन अपने समुदाय के भीतर बेची जा सकती है पर कम से कम तीन एकड़ जमीन व्यक्ति को अपने पास रखनी होगी। केंद्र द्वारा अधिसूचित ओबीसी को 3 एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी। राज्य द्वारा अधिसूचित ओबीसी को 10 एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी।
आश्चर्य यह है कि पिछले तीन वर्ष में किसी व्यक्ति, संस्था या राजनीतिक दल ने इतने बड़े निर्णय का विरोध तो छोड़ दें, बहस तक नहीं की! परन्तु आजकल युवा सोशल मीडिया के माध्यम से पहाड़ मांगें भू—कानून नाम से हैशटैग बनाकर इस पर बहस कर रहे हैं और सरकार पर दबाव बना रहे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार साल, 2000 के आकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखण्ड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी। इसमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से अधिक की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी। इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,22 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी। यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग, बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी। आंकड़े दर्शाते हैं कि किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है और बची 88 फीसदी कृषक आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है।
1972 में हिमाचल में जमीन के क्रय-विक्रय संबंधित एक कानून बनाया गया। इस कानून के अंतर्गत राज्य के बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे। हिमाचल तब इतना सम्पन्न नहीं था। वहां के नेताओं को भय था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें और भूमिहीन हो जाएं। भूमिहीन होने से व्यक्ति अपनी भूमि से ही नहीं वरन अपनी संस्कृति और सभ्यता से भी दूर हो जाता है। यही स्थिति आज उत्तराखंड छोड़कर बाहर बस चुके पहाड़ियों की भी है। उनकी अगली पीढ़ी पूर्ण रूप से अपनी जड़ों को भूल चुकी है। हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आये थे। लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में control on transfer of lands में धारा-118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती। गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है। इस कानून के तहत कमर्शियल प्रयोग के लिए बाहर के लोग जमीन किराए पर ले सकते थे। 2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन कर बाहरी राज्य के व्यक्ति जो 15 साल से हिमाचल में रह रहे हों, उनको भूमि क्रय करने का अधिकार दे दिया। इसके बाद की कांग्रेस सरकार ने इसे बढ़ाकर 30 साल कर दिया।
पहाड़ के युवा इस कानून को समाप्त करने की मांग कर रहे, जो कि पूर्णतः उचित है। उद्योग लगाने के लिए जमीन पूर्व में भी विभिन्न तरीकों से उपलब्ध कराई जा रही है तो उद्योग—धंधों को लगाने के नाम पर पहाड़ को बेच देने का यह षड़यंत्र तुरंत बंद किया जाना चाहिए। देवभूमि के लोगों के पास अपनी जमीन व प्रामाणिकता के सिवाय कुछ बचा नहीं है। ऐसे में भूमि भी चली गयी तो चीन की सीमा के राज्य में सुरक्षा का संकट खड़ा हो सकता है। उत्तराखंड सरकार व भारत सरकार को तत्काल इसका समाधान कर इस कानून को रद्द करना चाहिए।
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